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शुक्रवार, 28 जून 2013

छंद सलिला: कालजयी लोक छंद 'आल्हा' संजीव 'सलिल'

छंद सलिला:

कालजयी बुन्देली लोक छंद 'आल्हा'

संजीव 'सलिल'/सौरभ पाण्डेय
 *
सोलह-पंद्रह यति रखे, आल्हा मात्रिक छंद
ओज-शौर्य युत सवैया, दे असीम आनंद
गुरु-गुरु लघु हो विषम-सम, चरण-अंत दें ध्यान
जगनिक आल्हा छंद के, रचनाकार महान
वीर छंद दो पदों (पंक्तियों) तथा चार चरणों में रचा जाता है. जिस तरह दोहे के प्रत्येक पद १३-११ के हिसाब से चलते हैं उसी तरह वीर छंद में १६-१५ मात्रा के हिसाब से नियत होता है. यानि १६ मात्रा के बाद यति होती है. वीर छंद में विषम पद की सोलहवी मात्रा गुरु (ऽ) तथा सम पद की पंद्रहवीं मात्रा लघु (।) होती है.
इस छंद को आल्हा छंद या मात्रिक सवैया भी कहा जाता है.
धातव्य है कि इस छंद का ’यथा नाम तथा गुण’ की तरह इसके कथ्य अकसर ओज भरे होते हैं और सुनने वाले के मन में उत्साह और उत्तेजना पैदा करते हैं. इस हिसाब से अतिश्योक्ति पूर्ण अभिव्यंजनाएँ इस छंद का मौलिक गुण हो जाता है.
*


                     आल्हा या वीर छन्द अर्ध सम मात्रिक छंद है जिसके हर पद (पंक्ति) में क्रमशः १६-१६  मात्राएँ, चरणान्त क्रमशः दीर्घ-लघु होता है. यह छंद वीर रस से ओत-प्रोत होता है. इस छंद में अतिशयोक्ति अलंकार का प्रचुरता से प्रयोग होता है.                                                                                
छंद विधान:
    आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य.    
गुरु-लघु चरण अंत में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य..
    अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़.
   
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़..
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                    महाकवि जगनिक रचित आल्हा-खण्ड इस छंद का कालजयी ग्रन्थ है जिसका गायन समूचे बुंदेलखंड, बघेलखंड, रूहेलखंड में वर्ष काल में गाँव-गाँव में चौपालों पर होता है. प्राचीन समय में युद्धादि के समय इस छंद का नगाड़ों के साथ गायन होता था जिसे सुनकर योद्धा जोश में भरकर जान हथेली पर रखकर प्राण-प्रण से जूझ जाते थे. महाकाव्य आल्हा-खण्ड में दो महावीर बुन्देल युवाओं आल्हा-ऊदल के पराक्रम की गाथा है. विविध प्रसंगों में विविध रसों की कुछ पंक्तियाँ देखें:
    पहिल बचनियां है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ.
    आजु बाघ कल बैरी मारउ, मोर छतिया कै डाह बुझाउ.. 
    ('मोर' का उच्चारण 'मुर' की तरह)
    बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय.
    जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि मर जाय..
                        
        *
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    टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडौगढ़ बरगद की डार.
    आधी रतिया की बेला में, खोपड़ी कहे पुकार-पुकार.. 
   ('खोपड़ी' का उच्चारण 'खुपड़ी')
    कहवाँ आल्हा कहवाँ मलखे, कहवाँ ऊदल लडैते लाल.
    ('ऊदल' का उच्चारण 'उदल')
    बचि कै आना मांडौगढ़ में, राज बघेल जिए कै काल..
*
    अभी उमर है बारी भोरी, बेटा खाउ दूध औ भात.
    चढ़ै जवानी जब बाँहन पै, तब के दैहै तोके मात..
*
    एक तो सूघर लड़कैंयां कै, दूसर देवी कै वरदान.
('एक' का उच्चारण 'इक')
    नैन सनीचर है ऊदल के, औ बेह्फैया बसे लिलार..
    महुवरि बाजि रही आँगन मां, जुबती देखि-देखि ठगि जाँय.
    राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय..
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चित्र परिचय: आल्हा ऊदल मंदिर मैहर, वीरवर उदल, वीरवर आल्हा, आल्हा-उदल की उपास्य माँ शारदा का मंदिर, आल्हा-उदल का अखाड़ा तथा तालाब. जनश्रुति है कि आल्हा-उदल आज भी मंदिर खुलने के पूर्व तालाब में स्नान कर माँ शारदा का पूजन करते हैं. चित्र आभार: गूगल.
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आल्हा मात्रिक छन्द, सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य।
गुरु-लघु चरण अन्त में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य।
अलंकार अतिशयताकारक, करे राइ को तुरत पहाड़।
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।
   -- सौरभ पाण्डेय
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उदाहरण:

बारह बरिस ल कुक्कुर जीऐं, औ तेरह लौ जिये सियार,
बरिस अठारह छत्री जीयें,  आगे जीवन को धिक्कार.

बुंदेलखंड की अतिप्रसिद्ध काव्य-कृति जगनिक रचित 'आल्ह-खण्ड' से कुछ पद प्रस्तुत हैं. अतिश्योक्ति अलंकार का सुन्दर उदाहरण इन पंक्तियों में देखा जा सकता है, यथा,  
राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय. *
पहिल बचनियाँ है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ.
आजु बाघ कल बैरी मारिउ, मोर छतिया की दाह बताउ.
बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय.
जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि पछताय.

टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडूगढ़ बरगद की डार.

आधी रतिया की बेला में, खोपडी कहे पुकार-पुकार.
कहवां आल्हा कहवां मलखै, कहवां ऊदल लडैते लाल.
बचि कै आना मांडूगढ़ में, राज बघेल जिये कै काल.

एक तो सुघर लड़कैया के, दूसरे देवी कै वरदान.

नैन सनीचर है ऊदल कै, औ बेह्फैया बसै लिलार.
महुवर बाजि रही आँगन मां, युवती देखि-देखि ठगि जांय.
राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय.

सावन चिरैया ना घर छोडे, ना बनिजार बनीजी जाय.

टप-टप बूँद पडी खपड़न पर, दया न काहूँ ठांव देखाय.
आल्हा चलिगे ऊदल चलिगे, जइसे राम-लखन चलि जायँ.
राजा के डर कोइ न बोले, नैना डभकि-डभकि रहि जायँ.


बुंदेली के नीके बोल... संजीव 'सलिल'
*
तनक न चिंता करो दाऊ जू, बुंदेली के नीके बोल.
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल..
कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल.
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल..

अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय.
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय..
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय.
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय..

फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय.
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय..
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय.
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय..
*
सामान्यतः  आल्हा छंद की रचनाएँ वीर रस और अतिशयोक्ति अलंकार से युक्त होती हैं। उक्त रचना में आल्हा छंद में हास्य रस वर्षा का प्रयास है।
 
महारानी लक्ष्मी बाई का चित्रण करती पंक्तियाँ -

कर में गह करवाल घूमती, रानी बनी शक्ति साकार.
सिंहवाहिनी, शत्रुघातिनी सी करती थी अरि संहार.
अश्ववाहिनी बाँध पीठ पै, पुत्र दौड़ती चारों ओर.
अंग्रेजों के छक्के छूटे, दुश्मन का कुछ, चला न जोर..
 


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