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शनिवार, 29 जून 2013

geet pahale bhee... acharya sanjiv verma 'salil'

गीत:
पहले भी
संजीव
*
पहले भी बहु बार घटा है,
आगे भी बहु बार घटेगा।
बन-बन कर मिटता है मानव-
मिट-मिटकर बहु बार बनेगा...
*
माटी के पुतले हैं हम-तुम, माटी में ही खिल पाते हैं।
माटी में उगते-फलते हैं, माटी में ही मिल जाते हैं।।
माटी अपना दीन-धरम है, माटी ही पहचान हमारी।
माटी मिली विरासत हमको, माटी ही परिपाटी प्यारी।।
माटी चन्दन अक्षत रोली,
मस्तक तिलक सुदीर्घ सजेगा।
माटी का हर कंकर शंकर-
प्रलयंकर नव सृष्टि रचेगा...
*
पानी तलवारों का अरि से, पूछो जो मँग सके न पानी।
पानीदार नयन में डूबी जब-जब, मारी गयी जवानी।।
माँ के आँचल के पानी की सौं, आँखों से बहे न पानी-
पानी मांगें अच्छे-अच्छे, चुल्लू भर ले सकें न पानी।।
पानी नेह-नर्मदा पावन,
सलिल-धार बन तार-तरेगा।
वह संजीव, वही सोहन है-
वाष्प मेघ बन वृष्टि बहेगा...
*
हवा हो गया पल में वह, जो चाहे हवा हमारी रोके।
हवा बंद हो गयी उन्हीं की, जो आये थे बनकर झोंके।।
हवा बिगाड़े प्रकृति उन्हीं की, हवा करें जो सतत प्रदूषित-
हवा हवाई बात न हो अब, पग न प्रगति का कोई रोके।।
चुटकी में चुटका के पथ का,
अनचाहा अवरोध हटेगा।
पानी अमरकंटकी पावन,
बिजली दे सागर पहुँचेगा ...
*
आग लगाकर ताप रहे हो, आग लगी तो नहीं बचोगे।
नाम पाक नापाक हरकतें, दाल वक्ष पर दल न सकोगे।।
आग उगलते आतंकी शोलों में आग लगेगी पल में-
चरण चाप चीनी चुरकट के, पछताओगे प्राण तजोगे।।
आग खेलते, चलें आग पर,
आग दिलों में, दिल न जलेगा।
बचे दिलजला नहीं आग से,
आगसात हो हाथ मलेगा...
*
गगन चूमते जंगल काटे, पत्थर तोड़े, माटी खोदी।
गगन-वृष्टि को रोक सके जो, ऐसी सकल सुरक्षा खो दी।।
महाकाल को पूज रहे पर, नहीं काल-पदचाप सुन सके-
गगन बहता रहा अश्रु तुम, कह बरसात न स्वप्न बुन सके।।
देखें चुप केदारनाथ क्यों?,
कौन कोप को झेल सकेगा?

अगर न धारा को आराधा 
तो राधा को कौन भजेगा?...

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