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मंगलवार, 9 जुलाई 2013

kriti salila: vyangya ka lok hitaishee pravah batkahaav ---sanjiv

कृति  सलिला :
व्यंग्य का लोकहितैषी प्रवाह : "बतकहाव"
चर्चाकार : आचार्य संजीव 'वर्मा सलिल' 
[कृति विवरण: बातकहाव, व्यंग्य लेख संग्रह, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १६०, मूल्य २५०रु., पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
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भारत के स्वातंत्र्योत्तर कला में सतत बढ़ाती सामाजिक विद्रूपता, राजनैतिक मूल्यहीनता, वैयक्तिक पाखंडों तथा आर्थिक प्रलोभनों ने व्यंग्य को वामन से विराट बनाने में महती भूमिका अदा की है। फिसलन की डगर पर सहारों की प्रासंगिकता ही नहीं उपादेयता भी होती है। वर्तमान परिदृश्य और परिवेश में व्याप्त विसंगतियों और विडम्बनाओं में किसी भी मूल्यधर्मी रचनाकार के लिए व्यन्य-लेखन अनिवार्य सा हो गया है। गद्य-पद्य की सभी विधाओं में व्यंग्य की लोकप्रियता का आलम यह है कि कोई पत्र-पत्रिका व्यंग्य की रचनाओं को हाशिये पर नहीं रख पा रही है। संस्कारधानी जबलपुर में हिंदी व्यंग्य लेखन के शिखर पुरुष हरिशंकर परसाई की प्रेरणा से व्यंग्य लेखन की परंपरा सतत पुष्ट हुई और डॉ. श्री राम ठाकुर 'दादा', डॉ. सुमुत्र आदि ने व्यंग्य को नए आयाम दिए। 

साहित्य-सृजन तथा पत्रकारिता लोकहित साधना के सार्वजनिक प्रभावी औजार होने के बावजूद इनके माध्यम से परिवर्तन का प्रयास सहज नहीं है। सुमित्र जी दैनिक जयलोक में कभी सोचें, बतकहाव तथा चारू-चिंतन आदि स्तंभों में इस दिशा में सतत सक्रिय रहे हैं। इन स्तंभों के चयनित लेखों का पुस्तकाकार में प्रकाशित होना इन्हें नए और वृहत्तर पाठक वर्ग तक पहुँचा सकेगा। सुमित्र जी के व्यंग्य लेखों का वैशिष्ट्य इनका लघ्वाकारी होना है। दैनिक अखबार के व्यंग्य स्तम्भ के सीमित कलेवर में स्थानीय और वैयक्तिक विसंगतियों से लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समस्याओं तक, वैयक्तिक पाखंडों से लेकर समजिन कुरीतियों तक की किसी कुशल शल्यज्ञ  की तरह चीरफाड़ करने में सुमित्र जी शब्दों के पैनेपन को चिकोटी काटने से उपजी मीठी चुभन तक नियंत्रित रखते हैं, दिल को चुभनेवाली-तिलमिला देनेवाली पीड़ा तक नहीं ले जाते। अपने कथ्य को लोकग्राह्य बनाने के लिए तथा निस्संगता और तटस्थता से कहने के लिए सुमित्र जी ने भरोसे लाल नामक काल्पनिक पात्र गढ़ लिया है। यह भरोसेलाल गरजते-बरसते, मिमियाते-हिनहिनाते अंततः निरुत्तर होने पर ''भैया की बातें'' कहकर चुप्पी लगा लेने में माहिर हैं।

बतकहाव के व्यंग्य लेखों का शिल्प अपनी मिसाल आप है। बाबू भरोसेलाल किसी   प्रसंग में कुछ कहते हैं और फिर  उनमें तथा भैया जी में हुई बातचीत विसंगति पर कटाक्ष कर बतरस की ओर मुड़ जाती है। कटाक्ष की च्भन और बतरस की मिठास पाठक को बचपन में खाई खटमिट्ठी गोली की तरह देर तक आनंदित करती है जबकि भरोसेलाल भैया जी के सामने निरुत्तर होकर अपना तकिया कलाम दुहराते हुए मौन साधना में लीन हो जाते हैं। जयलोक के प्रधान संपादक अजित वर्मा के अनुसार ''सुमित्र जी का अपना रचना संसार है जिसमें प्रचुर वैविध्य और विराटत्व है। उनका अन्तरंग और बहिरंग एकाकार है। हिंदी साहित्य के इतिहास, उसकी धाराओं के प्रवाह और अंतर्प्रवाह, अवरोध और प्रतिरोध के वे अध्येता हैं। गद्य - पद्य की विविध विधाओं और शैलियों के विकास क्रम, विचलन, खंडन - मंडन की सूक्ष्म अनुभूतियाँ उनकी धारणाओं, अवधारणाओं और चिंतन को इतना विकसित करती हैं की वे साधिकार आलोचना-समालोचना करते हैं। अध्यवसाय और अनुशीलन ने उन्हेंशोध परक सृजन की क्षमता से संपन्न बनाया है। 

सहिष्णुता और सात्विकता की पारिवारिक विरासत, व्यंग्य कवि-समीक्षक रामानुजलाल श्रीवास्तव तथा मधुर गीतकार नर्मदा प्रसाद खरे का नैकट्य, सोचने की आदत, पढ़ने का शौक और लिखने का पेशा इन चार संयोगों ने 'संभावनाओं की फसल' उगा रहे तरुण सुमित्र को एक दर्जन से अधिक कृतियों के गंभीर चिन्तक - सर्जक के रूप में सहज ही प्रतिष्ठित कर दिया है। सुमित्र जी के अखबारी स्तम्भ अपनी सामयिकता, चुटीलेपन, सरसता सहजता, देशजता तथा व्यापकता के लिए कॉफ़ी हाउस की मेजों से लेकर नुक्कड़ पर पान के टपरों तक, विद्वानों की बैठकों से लेकर श्रमजीवियों तक बरसों-बरस पढ़े और सराहे जाते रहे हैं। सुमित्र जी बड़ी से बड़ी गंभीर से गंभीर बात बेइन्तिहा सादगी से कह जाते हैं। सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे की उक्ति इन लेखों के के सन्दर्भ में खरी उतरती है। प्रसिद्द व्यंग्यकार डॉ. श्रीरामठाकुर 'दादा' इन रचनाओं को सामाजिक, कार्यालयीन तथा राजनैतिक इन तीन वर्गों में विभक्त करते हुए उनका वैशिष्ट्य क्रमशः सामाजिक स्थितियों का उद्घाटन, चरमराती व्यवस्था से उपजा आक्रोश तथा विडम्बनाओं पर व्यंग्य मानते हैं किन्तु मेरी अपनी दृष्टि में इन सभी व्यंग्य लेखों का उत्स सुमित्र जी की सामाजिक सहभागिता तथा सांस्कृतिक साहचर्य से उपजी सहकारिता है।

विख्यात  हिंदीविद डॉ. कांतिकुमार जैन सुमित्र जी के सृजन को साहित्य और पत्रकारिता के मध्य सेतु मानते हैं। सुमित्र जी किसी प्रसंग पर कलम उठाते समय आम आदमी के नजरिये से यथसंभव तटस्थ-निरपेक्ष भाव से विक्रम -बैताल की तर्ज़ पर संवाद-शैली में घटित का संकेत, अन्तर्निहित विसंगति को इंगित करती फैंटेसी तथा नत में समाधान या प्रेरणा के रूप में कथन-समापन करते हैं किन्तु तब तक वे प्रायः पाठक को अपने रंग में रंग चुके होते हैं। 
 
हम  भारतीयों में जाने-अनजाने सलाह-मशविरा देने को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानने की आदत है। कभी बल्ला न पकड़ने पर भी सचिन की बल्लेबाजी पर टिप्पणी, यांत्रिकी न जानने पर भी निर्माणों और योजनाओं को ख़ारिज करना, अर्थशास्त्र न जानने पर भी बजट के प्रावधानों का उपहास करते हमें पल भर भी नहीं लगता। सुमित्र अपने व्यंग्य लेखों की जमीन इसी मानसिकता के बीच तलाशते हैं। घतुर्दिक घटती घटनाओं की सूक्ष्मता से अवलोकन करता उनका मन, माथे पर पड़े बल और पल भर को मुंदी ऑंखें उनकी सोच को धार देती हैं, मुंह में पान धर जेब से कलम निकलता हाथ चल पड़ता है न्यूनतम समय में, लघुत्तम कलेवर में महत्तम को अभिव्यक्त करने के शारदेय हवं में समिधा समर्पण के लिए और उसे पूर्ण कर चैन की सांस ले फिर अपने सामने बैठे किसी भरोसे लाल से गप्पाष्टक में जुट जाता है।

सारतः, बतकहाव में भारतीय संस्कृति, बुन्देलखंडी परिवेश, नर्मदाई अपनत्व, 'सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है' को जीते बाबू  भरोसे लाल और उनकी लात्रानियों पर मुस्कुराते, चुटकी लेते, मिठास के साथ तंज करते, सकल चर्चा को पुराण न बनाकर निष्कर्ष तक ले जाते भैया जी आम आदमी को वह सन्देश दे जाते हैं जो उसकी सुप्त चेतन को लुप्त होने से बचाते हुए सार्थक उद्देश्य तक ले जाता है। विवेच्य कृति अगली कृति की प्रतीक्षा का भाव जगाने में समर्थ है।
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