मुक्तक :
संजीव
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अहम्-गुल धर शीश बाती कह रही है दीप्ति ले लो
सूखकर नदिया हुई सिकता, कहे: आ नाव खे लो
चाटुकारों ने हमेशा नाव मालिक की डुबाई-
भौंकता कूकुर कहे: 'मुझ सा बनो, आ होड़ ले लो'
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संजीव
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एक नाग दल सर्प दूसरा, तंत्र सपेरा नचा रहा है
घूँट गरल का मुफ्त पिलाकर, जन को काहिल बना रहा है
दलदल का हर दल है दोषी, कैसे कह दें कोई मुक्त है-
परिवर्तन लाने अन्ना सा त्याग न कोई दिखा रहा है
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हर दल में अपराधी-दागी, पैठे मुक्त नहीं है कोई
जिस पर जन ने किया भरोसा, छला गया भारत माँ रोई
दूर धर्म से राम, न सच से है गौतम का तनिक वास्ता-
'सलिल' अमल कैसे हो तट पर जब खुद ही विष-बेलें बोई *
अहम्-गुल धर शीश बाती कह रही है दीप्ति ले लो
सूखकर नदिया हुई सिकता, कहे: आ नाव खे लो
चाटुकारों ने हमेशा नाव मालिक की डुबाई-
भौंकता कूकुर कहे: 'मुझ सा बनो, आ होड़ ले लो'
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