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शनिवार, 21 सितंबर 2013

geet: rakesh khandelwal

गीत गुंजन:






रंग भरने से…
 राकेश खंडेलवाल 

रंग भरने से इनकार दिन कर गया
एक भ्रम में बिताते रहे ज़िंदगी
यह न चाहा कभी खुद को पहचानते 
 
मन के आकाश पर भोर से सांझ तक 
कल्पनाएँ नए चित्र रचती रहीं 
तूलिका की सहज थिरकनें थाम कर
कुछ अपेक्षाएं भी साथ बनती रहीं 
रंग भरने से इनकार दिन कर गया
सांझ के साथ धुंधली हुई रेख भी 
और मुरझा के झरती अपेक्षाओं को 
रात सीढी  उतरते रही देखती 
 
हम में निर्णय की क्षमताएं तो थी नहीं 
पर कसौटी स्वयं को रहे मानते 
 
चाहते हैं करें आकलन सत्य का 
बिम्ब दर्पण बने हम दिखाते रहें 
अपने पूर्वाग्रहों  से न होवें ग्रसित 
जो है जैसा  उसे वह बताते रहें 
किन्तु दीवार अपना अहम् बन गया 
जिसके साए में थी दृष्टि  धुंधला गई 
ज्ञान  के गर्व की एक मोटी परत 
निर्णयों पर गिरी धुल सी छा  गई 
 
स्वत्व अपना स्वयं हमने झुठला दिया
ओढ कर इक मुलम्मा चले शान से 
 
जब भी चाहा धरातल पे आयें उतर 
और फिर सत्य का आ  करें  सामना 
तर्क की नीतियों को चढा ताक पर 
कोशिशें कर करें खुद का पहचानना 
पर मुखौटे हमारे चढाये हुए
चाह कर भी न हमसे अलग हो सके 
अपनी जिद पाँव अंगद का बन के जमी 
ये ना संभव हुआ सूत भर हिल सके 
 
ढूँढते रात दिन कब वह आये घड़ी 
मुक्त हो पायें जब अपने अभिमान से
========================== 

3 टिप्‍पणियां:

achal verma ने कहा…

achal verma

कवि प्रवर राकेश जी,

" रोचक रचना हर बार मिली
हरबार प्रसन्न हुआ मानस "....अचल.....

Kusum Vir via yahoogroups.com ने कहा…

आदरणीय राकेश जी,
आपकी यह कविता मैंने अभी देखी l
बहुत - बहुत सुन्दर l
ख़ासकर, इन पंक्तियों ने तो मन मोह लिया ;

// किन्तु दीवार अपना अहम् बन गया
जिसके साए में थी दृष्टि धुंधला गई
ज्ञान के गर्व की एक मोटी परत
निर्णयों पर गिरी धुल सी छा गई

पर मुखौटे हमारे चढाये हुए
चाह कर भी न हमसे अलग हो सके
अपनी जिद पाँव अंगद का बन के जमी
ये ना संभव हुआ सूत भर हिल सके //

सच में, आप बस कमाल का लिखते हैं l
सराहना के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास l
सादर,
कुसुम वीर

sanjiv ने कहा…

राकेश जी तरह जीवंत चिंतनप्रधान सरस गीति रचना। सामयिक गीत कोष का बहुमूल्य रत्न. बधाई।
रंग भरने से इनकार दिन कर गया
एक भ्रम में बिताते रहे ज़िंदगी - सहज-सटीक अभिव्यक्ति
यह न चाहा कभी खुद को पहचानते - विडम्बना

मन के आकाश पर भोर से सांझ तक
कल्पनाएँ नए चित्र रचती रहीं - सुन्दर
तूलिका की सहज थिरकनें थाम कर
कुछ अपेक्षाएं भी साथ बनती रहीं
रंग भरने से इनकार दिन कर गया
सांझ के साथ धुंधली हुई रेख भी
और मुरझा के झरती अपेक्षाओं को
रात सीढी उतरते रही देखती - सनातन प्रक्रिया

हम में निर्णय की क्षमताएं तो थी नहीं
पर कसौटी स्वयं को रहे मानते - कटु यथार्थ

चाहते हैं करें आकलन सत्य का
बिम्ब दर्पण बने हम दिखाते रहें
अपने पूर्वाग्रहों से न होवें ग्रसित
जो है जैसा उसे वह बताते रहें - आदर्श की चाह
किन्तु दीवार अपना अहम् बन गया
जिसके साए में थी दृष्टि धुंधला गई
ज्ञान के गर्व की एक मोटी परत
निर्णयों पर गिरी धुल सी छा गई

स्वत्व अपना स्वयं हमने झुठला दिया
ओढ कर इक मुलम्मा चले शान से - विडंबना

जब भी चाहा धरातल पे आयें उतर
और फिर सत्य का आ करें सामना
तर्क की नीतियों को चढा ताक पर
कोशिशें कर करें खुद का पहचानना
पर मुखौटे हमारे चढाये हुए
चाह कर भी न हमसे अलग हो सके
अपनी जिद पाँव अंगद का बन के जमी
ये ना संभव हुआ सूत भर हिल सके

ढूँढते रात दिन कब वह आये घड़ी
मुक्त हो पायें जब अपने अभिमान से - मेरी भी कामना