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रविवार, 1 सितंबर 2013

train se bharat : monisha rajesh


 

 

ट्रेन की खिड़कियों से झांकता इंडिया


इसे जुनून नहीं तो क्या कहेंगे कि लंदन स्थित टाइम मैगजीन के दफ्तर में नौकरी करने वाली मोनीषा एक दिन सिर्फ यह जानने के बाद भारत में एक अजीबोगरीब सफर पर निकल पड़ी थी कि अब देशभर में रेलवे का एक अच्छा-खासा नेटवर्क तैयार हो चुका है। नवंबर 2009 की एक सर्द शाम ऑफिस में उसकी नज़र एक खबर पर पड़ी जिसके मुताबिक भारत में एक-दो नहीं बल्कि पूरी 80 मंजिलों तक अब हवाई नेटवर्क कायम हो चुका था। मगर भौगोलिक नज़रिए से भारत जैसे विशाल देश के मामले में इसे ऊंट के मुंह में जीरा ही कहा जाएगा। और फिर देश के हर छोटे बड़े नगरों-शहरों तक हवाई रूट नहीं जाता था! लेकिन भारतीय रेल की पटरियां अब वाकई बहुत दूर निकल चुकी थीं और उन्हीं पर दौडऩे का एक झीना-सा ख्वाब उस शाम मोनीषा की आंखों में कहीं अटककर रह गया था। उसके हाथ एक जुनून लग चुका था।

हिंदुस्तान में एक रेल सैक्शन बन जाने से ‘अराउंड द वल्र्ड इन 80 डेज़’ की चुनौती को स्वीकार किया जा सका था और रिकार्ड 80 दिनों में पूरी दुनिया का चक्कर लगा लेना मुमकिन हुआ था। हैरानी की बात है न कि जो रेलवे नेटवर्क उन्नीसवीं शताब्दी में इस क्लासिक उपन्यास की प्रेरणा बना वही करीब 137 साल बाद एक बार फिर उतनी ही शिद्दत से की गई यात्रा का आधार भी बन गया। हालांकि पात्र इस बार कुछ बदल गए थे और जूल्स वर्न के ‘अराउंड द वल्र्ड इन 80 डेज़’ से प्रेरित और उत्साहित ब्रिटिश जर्नलिस्ट मोनीषा राजेश अपनी जड़ों की तलाश की खातिर एक लंबे सफर के लिए हिंदुस्तान की सरजमीं पर पहुंच चुकी थी।

 
मोनीषा के पास विदेशी यात्रियों के लिए भारतीय रेल का ‘इंडरेल पास’ था जिसकी मियाद कुल 90 दिनों की थी। लेकिन 80 रेलगाडिय़ों में सवारी का सपना इस अवधि के हिसाब से कुछ बड़ा था। बहरहाल, वो अपने देश को उसके असली रंग-ढंग में जानने की खातिर अपनी चमकती आंखों में सपना संजोए पहली रेलगाड़ी में सवार हो चुकी थी। चेन्नई एगमोर स्टेशन पर यात्रियों की रेलम-पेल और इंजनों के शोर ने स्टेशन के बाहर काफी पहले से ही अपनी मौजूदगी का आभास दिला दिया था। मोनीषा को लग गया था कि अगले कुछ महीने उसे अपनी दृश्य-श्रव्य इंद्रियों को ऐसे हमलों के लिए तैयार करना पड़ेगा। 

ट्रेन प्लेटफार्म से खिसकने लगी थी, मोनीषा के इस सफर में उसके साथ एक अंग्रेज़ फोटोग्राफर दोस्त भी था, जिसे खुद मोनीषा साथी और बॉडीगार्ड के तौर पर साथ ले आयी थी। रेलगाड़ी की खिड़की से बाहर उत्सुकता से ताकती इन दो जोड़ी निगाहों को बहुत जल्द समझ में आ गया कि तेजी से गुम हो रहा जो नज़ारा उन्हें रोमांटिक लग रहा था वो वास्तव में, खिड़की के धुंधलाए शीशे की वजह से वैसा दिख रहा था! लेकिन यह तो शुरुआत भर थी, इस पूरे सफर में ऐसे कई झटके मोनीषा को लगने थे। 14 जनवरी, 2010 को चेन्नई से नागरकोइल के 14 घंटे के सफर के लिए पूरे तामझाम के साथ मोनीषा ट्रेन में सवार थी, उसके पिटारे में हैंड जैल, टिश्यू, फस्र्ट एड किट, सफरनामा दर्ज करने के लिए नोट बुक, भारतीय रेल के विशाल और जटिल नेटवर्क को दिखाने वाला एक बरसों पुराना मैप, कुछ किताबें वगैरह शामिल थीं। नागरकोइल जंक्शन से एक और ट्रेन ने उन्हें कुछ ही मिनटों में कन्याकुमारी छोड़ दिया था। अगले दिन यानी 15 जनवरी को सूर्य ग्रहण का नज़ारा अपनी आंखों और स्मृतियों में कैद करने के लिए मोनीषा की सवारी लग चुकी थी।

अक्सर मंजिलों की तरफ यात्राएं होती हैं, लेकिन मोनीषा की यात्रा इस लिहाज से और भी अजब-गजब हो गई थी कि वो उस मंजिल तक उसे लेकर जाने वाली थी जहां कोई न कोई बड़ी घटना या आयोजन तय था या फिर कोई महत्वपूर्ण स्थल को छू आने की कोशिश होती। देश के धुर दक्षिण से भारतीय रेल की पटरियों के साथ मोनीषा की सिलसिलेवार यात्रा शुरू हुई थी। अगले कुछ दिनों में खजुराहो नृत्योत्सव के मौके पर खजुराहो नगरी की दूरी नापी गई तो एक रोज़ पुणे के ओशो कम्युन की गतिविधियों को नज़दीक से देखने-सुनने के बाद मुंबई में लोकल ट्रेनों की नब्ज़ टटोलने से लेकर राजधानी में मैट्रो की सवारी और रेल म्युजि़यम तक की सैर मोनीषा ने कर डाली। हर दिन करीब 2 करोड़ सवारियों को देशभर में इधर से उधर पहुंचाने वाली भारतीय रेल के साथ अब पूरे चार महीने के लिए जैसे मोनीषा का गुपचुप करार हो गया था।

मोनीषा कहती है कि वो बचपन से सुनती आयी है कि असली हिंदुस्तान भारत की स्लीपर श्रेणी में सफर करता था, लिहाजा उसने खुद भी इसी क्लास में दिन-दिन भर कई-कई किलोमीटर का सफर कर डाला। हालांकि सुरक्षा की खातिर रात होते ही वो अपने एसी कोच में लौट जाती लेकिन दिन में अक्सर वो इस असली हिंदुस्तान से दौड़ती-भागती पटरियों पर संवाद करने में जुटी रहती।

वो कहती है ब्रिटेन की रेलगाडिय़ों और लंदन की मैट्रो ‘ट्यूब’ का सफर बेशक वल्र्ड-क्लास है, मगर उनमें न वो सहजता है और न आत्मीयता जो हिंदुस्तान की ट्रेनों में दिखती है। यहां की रेलगाडिय़ों में उसे अक्सर बिन मांगे सलाह मिलती रही तो आध्यात्मिकता की खुराक की भी कमी नहीं थी उन डिब्बों में जिनमें रात- दिन उठते-बैठते, सोते-जागते उसने चार महीनों में 40,000 किलोमीटर की दूरी को नापा।

इन फासलों और सफर में बिताए दिनों ने मोनीषा को एक दिलचस्प यात्रा वृत्तांत लिखने की प्रेरणा दी जो पिछले दिनों रोली बुक्स द्वारा प्रकाशित ‘अराउंड इंडिया इन 80 ट्रेन्स’ की शक्ल में बाजार में आ चुका है। मगर भारत ही क्यों, रेल की पटरियां तो दुनियाभर के कोने-कोने में हैं और फिर ट्रांस-साइबेरियन रेलवे जैसे विशालकाय नेटवर्क भी हैं जिनके सफर में एक-दो नहीं बल्कि पूरे 8-10 टाइम ज़ोन पार हो जाते हैं! मोनीषा की भारतीयता की तलाश ही उसे यहां ले आयी हो, ऐसा नहीं है। इस महायात्रा की कामयाबी का जश्न मना रही इस युवा जर्नलिस्ट का कहना है कि उसकी अगली ट्रैवल राइटिंग का सिलसिला भी भारत की सरजमीं पर से ही होकर गुजरेगा।

क्या यह भारत के प्रति उस युवती की दीवानगी है जिसने एक बार बचपन में यहां अपनी जिंदगी के दो बरस बिताए जरूर थे लेकिन कभी बाथरूम में रखे साबुन कुतरने वाले चूहों, कभी दूधवालों तो कभी गैस सिलेंडरों की कालाबाजारी और बेशऊर पड़ोसी से त्रस्त होकर अपने परिवार के साथ दो साल बाद ही वो इंग्लैंड लौट गई थी। यह नब्बे के दिनों के शुरू की बात है। मोनीषा के डॉक्टर माता-पिता अपनी जड़ों को सींचने शेफिल्ड, इंग्लैंड से लौट आए थे, पूरे परिवार को चेन्नई में बसा भी लिया गया था, लेकिन कुछ ही दिनों में उन्हें अपने फैसले की खामियां साफ दिखने लगी थीं और थक-हारकर दुखी मन से वे एक बार फिर वहीं लौट गए जहां से आए थे।
मोनीषा तब बहुत छोटी थी, मगर उस प्रवास की यादें उसके पास बकाया हैं और शायद वो स्मृतियां ही उसकी बेचैनियों का सबब भी हैं।

80 रेलगाडिय़ों का सफर बेचैनियों के सहारे ही हो सकता है, यह मोनीषा से मिलकर जाहिर हो जाता है। दुबली-पतली काया में सिमटी इस युवती के पास मजबूत इरादों के साथ-साथ जुनून भी असीमित है। कभी गुजरात में सोमनाथ मंदिर और द्वारिका तो कभी राजस्थान के दूर-दराज स्थित मंदिर तक की यात्रा कर आना, और कभी सहयात्रियों की सलाह मानकर मध्य प्रदेश में ओरछा तो पश्चिमी तट पर दीव जैसे मोती तलाश लाना आसान नहीं होता। मोनीषा अपने इस सफर में गोवा से मुंबई तक की माण्डवी एक्सप्रेस की यात्रा को सबसे यादगार बताती हैं। हैरत होती है न सुनकर कि इंडियन महाराजा डक्कन ओडिसी जैसी लग्ज़री ट्रेन का सफर भी माण्डवी के आगे बौना साबित हुआ। मोनीषा ने इस राज़ पर से परदा उठाते हुए बताया कि यूरोप में जब भी उसने रेलों से सफर किया तो बाहर के खूबसूरत नज़ारों और उसके बीच हमेशा एक मोटा शीशा अटका रहा मगर माण्डवी में वो डिब्बे के गेट पर ही सीढिय़ों पर पैर लटकाए बैठी रही और कई बार तो पास से गुजरते पेड़-लताएं उसकी पहुंच में होते थे। कुदरती नज़ारों को इतना करीब से देखना-महसूसना उसके लिए एक अलग अनुभव रहा है।

एसी कोच का डिब्बा कैसे रात ढलते ही परदे गिरा देने के बाद घर का एक सुखद कमरा जैसा लगने लगता है, और राजधानी-शताब्दी जैसी गाडिय़ों में खाने-पीने का मज़ा क्या होता है, गर्द और गर्मी से झुलसती स्लीपर श्रेणी की यात्राएं वास्तव में कितनी आनंददायक होती हैं और कैसे रेलगाडिय़ां बस दूरियां नहीं नापतीं बल्कि साथ सफर करने वाले यात्रियों के दिलों के बीच से भी कई बार दूरियों को मिटा डालती हैं ये गाडिय़ां—ऐसे हजारों-हजार अनुभवों को मोनीषा ने इन यात्राओं के दौरान खुद जिया है। वेटलिस्टेड टिकटों के ‘कन्फर्म’ होने का इंतजार, तत्काल टिकटों की जोड़-घटा से लेकर भारतीय रेलवे के तमाम समीकरणों को सीख चुकी मोनीषा आज हमारे रेल शास्त्र को कई हिंदुस्तानियों के मुकाबले कहीं बेहतर ढंग से समझती है। यकीनन, भारतीय रेल को मोनीषा के रूप में एक ब्रांड एंबैसडर मिल गया है।

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(साभार: दैनिक ट्रिब्यून )

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