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गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

मुक्तिका: शुभ किया आगाज़ संजीव 'सलिल'


मुक्तिका:
शुभ किया आगाज़
संजीव 'सलिल'
*
शुभ किया आगाज़ शुभ अंजाम है.
काम उत्तम वही जो निष्काम है..

आँक अपना मोल जग कुछ भी कहे
सत्य-शिव-सुन्दर सदा बेदाम है..

काम में डूबा न खुद को भूलकर.
जो बशर उसका जतन बेकाम है..

रूह सच की जिबह कर तन कह रहा
अब यहाँ आराम ही आराम है..

तोड़ गुल गुलशन को वीरां का रहा.
जो उसी का नाम क्यों गुलफाम है?

नहीं दाना मयस्सर नेता कहे
कर लिया आयात अब बादाम है..

चाहता है हर बशर सीता मिले.
बना खुद रावण, न बनता राम है..

भूख की सिसकी न कोई सुन रहा
प्यार की हिचकी 'सलिल' नाकाम है..

'सलिल' ऐसी भोर देखी ही नहीं.
जिसकी किस्मत नहीं बनना शाम है..

मस्त मैं खुद में कहे कुछ भी 'सलिल'
ऐ खुदाया! तू ही मेरा नाम है..

****

बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

मुक्तिका: वेद की ऋचाएँ. संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
वेद की ऋचाएँ.
संजीव 'सलिल'
*
बोल हैं कि वेद की ऋचाएँ.
सारिकाएँ विहँस गुनगुनाएँ..

शुक पंडित श्लोक पढ़ रहे हैं.
मन्त्र कहें मधुर दस दिशाएँ..

बौरा ने बौरा कर देखा-
गौरा से न्यून अप्सराएँ..

महुआ कर रहा द्वार-स्वागत.
किंशुक मिल वेदिका जलाएँ..

कर तल ने करतल हँस थामा
सिहर उठीं देह, मन, शिराएँ..

सप्त वचन लेन-देन पावन.
पग फेरे सप्त मिल लगाएँ.

ध्रुव तारा देख पाँच नयना
मधुर मिलन गीत गुनगुनाएँ.

*****

मुक्तिका: आराम है संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
आराम है
संजीव 'सलिल'
*

मुक्तिका:
आराम है
संजीव 'सलिल'
*
स्नेह के हाथों बिका बेदाम है.
जो उसी को मिला अल्लाह-राम है.

मन थका, तन चाहता विश्राम है.
मुरझता गुल झर रहा निष्काम है.

अब यहाँ आराम ही आराम है.
गर हुए बदनाम तो भी नाम है..

जग गया मजदूर सूरज भोर में
बिन दिहाड़ी कर रहा चुप काम है..

नग्नता निज लाज का शव धो रही.
मन सिसकता तन बिका बेदाम है..

चन्द्रमा ने चन्द्रिका से हँस कहा
प्यार ही तो प्यार का परिणाम है..

चल 'सलिल' बन नीव का पत्थर कहीं
कलश बनना मौत का पैगाम है..

*****

दोहा मुक्तिका: नेह निनादित नर्मदा -संजीव 'सलिल'

दोहा मुक्तिका:

 




नेह निनादित नर्मदा
संजीव 'सलिल'
*
नेह निनादित नर्मदा, नवल निरंतर धार.
भवसागर से मुक्ति हित, प्रवहित धरा-सिंगार..

नर्तित 'सलिल'-तरंग में, बिम्बित मोहक नार.
खिलखिल हँस हर ताप हर, हर को रही पुकार..

विधि-हरि-हर तट पर करें, तप- हों भव के पार.
नाग असुर नर सुर करें, मैया की जयकार..

सघन वनों के पर्ण हैं, अनगिन बन्दनवार.
जल-थल-नभचर कर रहे, विनय करो उद्धार..

ऊषा-संध्या का दिया, तुमने रूप निखार.
तीर तुम्हारे हर दिवस, मने पर्व त्यौहार..

कर जोड़े कर रहे है, हम सविनय सत्कार.
भोग ग्रहण कर, भोग से कर दो माँ उद्धार..

'सलिल' सदा दे सदा से, सुन लो तनिक पुकार.
ज्यों की त्यों चादर रहे, कर दो भाव से पार..

* * * * *


मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

दोहा सलिला फागुनी दोहे संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला  
फागुनी दोहे
संजीव 'सलिल'
*
महुआ महका, मस्त हैं पनघट औ' चौपाल
बरगद बब्बा झूमते, पत्ते देते ताल


सिंदूरी जंगल हँसे, बौराया है आम
बौरा-गौरा साथ लख, काम हुआ बेकाम


पर्वत का मन झुलसता, तन तपकर अंगार
वसनहीन किंशुक सहे, पंच शरों की मा


गेहूँ स्वर्णाभित हुआ, कनक-कुंज खलिहान
पुष्पित-मुदित पलाश लख, लज्जित उषा-विहान


बाँसों पर हल्दी चढी, बधा आम-सिर मौर
पंडित पीपल बाचते, लगन पूछ लो और

तरुवर शाखा पात पर, नूतन नवल निखार
लाल गाल संध्या कि, दस दिश दिव्य बहार

प्रणय-पंथ का मान कर, आनंदित परमात्म
कंकर में शंकर हुए, प्रगट मुदित मन-आत्म


Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com

आभार: संजीव 'सलिल

एक रचना:

आभार:

संजीव 'सलिल
*
माननीय राकेश जी और ई-कविता परिवार को सादर
*
शत वंदन करता सलिल, विनत झुकाए शीश.
ई कविता से मिल सके, सदा-सदा आशीष..

यही विनय है दैव से, रहे न अंतर लेश.
सलिल धन्य प्रतिबिम्ब पा, प्रतिबिंबित राकेश..

शार्दूला-मैत्रेयी जी, सदय रहीं, हूँ धन्य.
कुसुम-कृपा आशा-किरण, सुख पा सका अनन्य..

श्री प्रकाश से ॐ तक, प्रणव दिखाए राह.
ललित-सुमन सज्जन-अचल, कौन गह सके थाह..

शीश रखे अरविन्द को, दें महेश संतोष.
'सलिल' करे घनश्याम का, हँस वन्दन-जयघोष..

ममता अमिता अमित सँग, खलिश रखें सिर-हाथ.
भूटानी-महिपाल जी, मुझ अनाथ के नाथ..

दे-पाया अनुराग जो, जीवन का पाथेय.
दीप्तिमान अरविन्द जी, हो अज्ञेयित ज्ञेय..

कविता सविता सम 'सलिल',  तम हर भरे उजास.
फागुन की ऊष्मा सुखद, हरे शीत का त्रास..

बासंती मनुहार है, जुड़ें रहें हृद-तार.
धूप-छाँव में सँग हो, कविता बन गलहार..

मंदबुद्धि है 'सलिल' पर, पा विज्ञों का सँग.
ढाई आखर पढ़ सके, दें वरदान अभंग..

ज्यों की त्यों चादर रहे, ई-कविता के साथ.
शत-शत वन्दन कर 'सलिल', जोड़े दोनों हाथ..

***
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

दोहा गीत_ काल चक्र संजीव 'सलिल

*
काल चक्र नित घूमता,
कहता कर ले कर्म.
मत रहना निष्कर्म तू-
ना करना दुष्कर्म.....
*
स्वेद गंग में नहाकर, होती देह पवित्र.
श्रम से ही आकार ले, मन में चित्रित चित्र..

पंचतत्व मिलकर गढ़ें, माटी से संसार.
ढाई आखर जी सके, कर माटी से प्यार..

माटी की अवमानना,
सचमुच बड़ा अधर्म.
काल चक्र नित घूमता,
कहता कर ले कर्म......
*
जैसा जिसका कर्म हो, वैसा उसका 'वर्ण'.
'जात' असलियत आत्म की, हो मत जान विवर्ण..

बन कुम्हार निज सृजन पर, तब तक करना चोट.
जब तक निकल न जाए रे, सारी त्रुटियाँ-खोट..

खुद को जग-हित बदलना,
मनुज धर्म का मर्म.
काल चक्र नित घूमता,
कहता कर ले कर्म......
*
माटी में ही खिल सके, सारे जीवन-फूल.
माटी में मिल भी गए, कूल-किनारे भूल..

ज्यों का त्यों रख कर्म का, कुम्भ न देना फोड़.
कुम्भज की शुचि विरासत, 'सलिल' न देना छोड़..

कड़ा न कंकर सदृश हो,
बन मिट्टी सा नर्म.
काल चक्र नित घूमता, 
कहता कर ले कर्म......
*
नीवों के पाषाण का, माटी देती साथ.
धूल फेंकती शिखर पर, लख गर्वोन्नत माथ..

कर-कोशिश की उँगलियाँ, गढ़तीं नव आकार.
नयन रखें एकाग्र मन, बिसर व्यर्थ तकरार..

धूप-छाँव sसम smसमझना,
है जीवन का मर्म.
काल चक्र नित घूमता, 
कहता कर ले कर्म......
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com

पीड़ा प्रभु की प्यारी तनया संजीव 'सलिल'

एक रचना :
पीड़ा प्रभु की प्यारी तनया
संजीव 'सलिल'
*
पीड़ा प्रभु की प्यारी तनया, मिले उसी को जो हो लायक.
सुख-ऐश्वर्य भोगता है वह, जिसकी भावी हो क्षय कारक..

कल जोड़ा जो आज खा रहा, सुख-भोगों को ऐसा मानें.
खाते से निकालकर पैसा, रिक्त कर रहे ऐसा जानें..

कष्ट भोगता जो वह करता, आज जमा कुछ कल की खातिर.
अगले जन्म सुकर्म फले, यह जान सहे हर मुश्किल माहिर..

देर मगर अंधेर नहीं है, यह विश्वास रखे जो मन में.
सह पाता वह हँसकर पीड़ा, असहनीय जो होती तन में..
*****

Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com

बासंती कविता: ऋतुराज नव रंग भर जाये नीरजा द्विवेदी

कविता बसंत की :
ऋतुराज नव रंग भर जाये
नीरजा द्विवेदी
*
 
ऋतुराज नव रंग भर जाये

प्रकृति दे रही मूक निमन्त्रण,
बसन्त ने रंगमन्च सजाया.
युवा प्रकृति का पा सन्देशा,
ऋतुराजा प्रियतम है आया.

तजी निशा की श्याम चूनरी,
हुई पूर्व की दिशा सिन्दूरी.
मन्द-सुगन्ध बयार बह रही,
मन आल्हादित, श्वांसें गहरी.

पुष्पित वल्लरि हैं झूम रहीं,
ज्यूं हौले-हौले शीश हिलायें,
मधुमक्खियां हैं घूम रहीं,
मदांध पुष्पों से पराग चुरायें.

कोयल हैं करें अन्ताक्षरी,
लगता जैसे हों होड़ लगायें.
श्यामा आ बैठे वृक्ष पर,
कोयल सा है मन भरमाये.

आम औ जामुन हैं बौराये,
भीनी-भीनी सुगन्ध बहाते.
आलिंगन को आतुर केले,
वायु वेग संग बांह फ़ैलाते.

हिल-हिल पीपल के पल्लव,
खड़-खड़ कर खड़ताल बजायें.
नवयौवना सी आम्रमन्जरी,
लजा-सकुचा कर नम जाये.

जीर्ण-शीर्ण सब पत्र हटाकर,
वृक्षों में नव कोंपल है आई.
प्रकृति सुन्दरी वस्त्र बदलकर,
दुल्हन सी बन ठन है आई.

गौरैया करती स्तुति-वन्दन,
पपीहा पिउ-पिउ टेर लगाते,
महोप करते हैं श्लोक पाठ,
कौए हैं कां-कां शोर मचाते.

बगिया में पुष्प खिले हैं 
श्वेत, लाल, नीले औ पीले.
पुष्प पराग से हैं आकर्षित,
तितली और भौंरे गर्वीले.

नेवले घूम रहे आल्हादित,
प्रेयसि की खोज कर रहे.
दो पैरों पर हो खड़े देखते,
मित्र-शत्रु का भेद ले रहे.

प्रकृति खड़ी है थाम तूलिका,
पल-पल अभिनव चित्र बनाये.
धूमिल चित्र मिटा-मिटा कर,
ऋतुराज नव रंग भर जाये.
____________________
neerja dewedy <neerjadewedy@gmail.com>

आज का विचार:

आज का विचार:


शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

हिंदी मुहावरे

हिंदी मुहावरे 
अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना - (स्वयं अपनी प्रशंसा करना ) - अच्छे आदमियों को अपने मुहँ मियाँ मिट्ठू बनना शोभा नहीं देता ।


अक्ल का चरने जाना - (समझ का अभाव होना) - इतना भी समझ नहीं सके ,क्या अक्ल चरने गए है ?


अपना हाथ जगन्नाथ:- स्वंय के द्वारा किया गया कार्य ही महत्वपूर्ण होता है.

सौ सुनार की एक लुहार की :- एक महत्वपूर्ण कार्य कई अनर्गल कार्यों से ज्यादा सटीक होता है.

चर गयी भेड्की, कुटिज गयी मोडी:-शक्तिवान द्वारा किये गए कार्य के लिए निर्दोष को सजा मिलना.

सौ चूहे खा के बिल्ली चली हज को :- धूर्त व्यक्ति द्वारा धिकावे का किया गया अच्छा कार्य

सर सलामत तो पगड़ी हजार:- व्यक्ति बाधाओं से मुक्त हो जाये तो अन्य वस्तुओं की परवाह नहीं करनी चाहिए.

अंत भला सब भला:- यदि कार्य का अंत अच्छा हो जाये तो पूरा कार्य ही सफल हो जाता है.

अधजल गगरी छलकत जाय:- मुर्ख व्यक्ति ज्यादा चिल्लाता है, जबकि ज्ञानी शांत रहता है.

ना नों मन तेल होगा ना राधा नाचेगी:- कारण समाप्त हो जाने पर परिणाम स्वतः ही समाप्त हो जायेंगे.

नांच ना जाने आँगन टेढा:-स्वंय की अकुशलता को दूसरों पर थोपना.

ओंखली में सर दिया तो मूसलो से क्या डरना:-जब आफत को निमंत्रण दे ही दिया है तो फिर डरने से क्या फायदा.

अन्धों में काना राजा:-मूर्खों में  कम विद्वान भी श्रेष्ठ माना जाता है.

घर का भेदी लंका ढाए:- राजदार ही विनाश का कारण बनता है.

गरजने वाले बरसते नहीं हैं :- शक्तिहीन व्यक्ति निरर्थक चिल्लाता है. वह कुछ कर नहीं सकता है.

बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद :- मुर्ख एव असक्षम व्यक्ति किसी अच्छी एव मूल्यवान वस्तु का मोल नहीं जान सकता है.


अपने पैरों पर खड़ा होना - (स्वालंबी होना) - युवकों को अपने पैरों पर खड़े होने पर ही विवाह करना चाहिए ।


अक्ल का दुश्मन - (मूर्ख) - राम तुम मेरी बात क्यों नहीं मानते ,लगता है आजकल तुम अक्ल के दुश्मन हो गए हो ।


अपना उल्लू सीधा करना - (मतलब निकालना) - आजकल के नेता अपना अपना उल्लू सीधा करने के लिए ही लोगों को भड़काते है ।


आँखे खुलना - (सचेत होना) - ठोकर खाने के बाद ही बहुत से लोगों की आँखे खुलती है ।


आँख का तारा - (बहुत प्यारा) - आज्ञाकारी बच्चा माँ -बाप की आँखों का तारा होता है ।


आँखे दिखाना - (बहुत क्रोध करना) - राम से मैंने सच बातें कह दी , तो वह मुझे आँख दिखाने लगा ।


आसमान से बातें करना - (बहुत ऊँचा होना) - आजकल ऐसी ऐसी इमारते बनने लगी है ,जो आसमान से बातें करती है ।


ईंट से ईंट बजाना - (पूरी तरह से नष्ट करना) - राम चाहता था कि वह अपने शत्रु के घर की ईंट से ईंट बजा दे।


ईंट का जबाब पत्थर से देना - (जबरदस्त बदला लेना) - भारत अपने दुश्मनों को ईंट का जबाब पत्थर से देगा ।


ईद का चाँद होना - (बहुत दिनों बाद दिखाई देना) - राम ,तुम तो कभी दिखाई ही नहीं देते ,ऐसा लगता है कि तुम ईद के चाँद हो गए हो ।


उड़ती चिड़िया पहचानना - (रहस्य की बात दूर से जान लेना) - वह इतना अनुभवी है कि उसे उड़ती चिड़िया पहचानने में देर नहीं लगती ।


उन्नीस बीस का अंतर होना - (बहुत कम अंतर होना) - राम और श्याम की पहचान कर पाना बहुत कठिन है ,क्योंकि दोनों में उन्नीस बीस का ही अंतर है ।


उलटी गंगा बहाना - (अनहोनी हो जाना) - राम किसी से प्रेम से बात कर ले ,तो उलटी गंगा बह जाए

दोहा सलिला :माटी सब संसार..... संजीव 'सलिल'


दोहा सलिला :

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माटी सब संसार.....
संजीव 'सलिल'
माटी ने शत-शत दिये, माटी को आकार.
माटी में माटी मिली, माटी सब संसार..
*
माटी ने माटी गढ़ी, माटी से कर खेल.
माटी में माटी मिली, माटी-नाक नकेल..
*
माटी में मीनार है, वही सकेगा जान.
जो माटी में मिल कहे, माटी रस की खान..
*
माटी बनती कुम्भ तब, जब पैदा हो लोच.
कूटें-पीटें रात-दिन, बिना किये संकोच..
*
माटी से मिल स्वेद भी, पा जाता आकार.
पवन-ग्रीष्म से मिल उड़े, पल में खो आकार..
*
माटी बीजा एक ले, देती फसल अपार.
वह जड़- हम चेतन करें, क्यों न यही आचार??
*
माटी को मत कुचलिये, शीश चढ़े बन धूल.
माटी माँ मस्तक लगे, झरे न जैसे फूल..
*
माटी परिपाटी बने, खाँटी देशज बोल.
किन्तु न इसकी आड़ में, कर कोशिश में झोल..
*
माटी-खेलें श्याम जू, पा-दे सुख आनंद.
माखन-माटी-श्याम तन, मधुर त्रिभंगी छंद..
*
माटी मोह न पालती, कंकर देती त्याग.
बने निरुपयोगी करे, अगर वृथा अनुराग..
*
माटी जकड़े दूब-जड़, जो विनम्र चैतन्य.
जल-प्रवाह से बच सके, पा-दे प्रीत अनन्य..
*
माटी मोल न आँकना, तू माटी का मोल.
जाँच-परख पहले 'सलिल', बात बाद में बोल..
*
माटी की छाती फटी, खुली ढोल की पोल.
किंचित से भूडोल से, बिगड़ गया भूगोल..
*
माटी श्रम-कौशल 'सलिल', ढालें नव आकार.
कुम्भकार ने चाक पर, स्वप्न किया साकार.
*
माटी की महिमा अमित, सकता कौन बखान.
'सलिल' संग बन पंक दे, पंकज सम वरदान..
*



बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

लघुकथा: बड़ा संजीव 'सलिल'

लघुकथा:
बड़ा
संजीव 'सलिल'
*
बरसों की नौकरी के बाद पदोन्नति मिली.

अधिकारी की कुर्सी पर बैठक मैं खुद को सहकर्मियों से ऊँचा मानकर डांट-डपटकर ठीक से काम करने की नसीहत दे घर आया. देखा नन्ही बिटिया कुर्सी पर खड़ी होकर ताली बजाकर कह रही है 'देखो, मैं सबसे अधिक बड़ी हो गयी.'

जमीन पर बैठे सभी बड़े उसे देख हँस रहे हैं. मुझे कार्यालय में सहकर्मियों के चेहरों की मुस्कराहट याद आई और तना हुआ सिर झुक गया.

*****
 

मुक्तिका
नित्य प्रिय :
संजीव 'सलिल'
*
काव्य रचना कर सुधारें नित्य प्रिय!
कसौटी पर कस निहारें नित्य प्रिय!!

यथास्थिति चुप सहन मत कीजिए                                                               
तोड़ सन्नाटा गुहारें नित्य प्रिय!!

आपमें सामर्थ्य है तो चुप न हों.
जो निबल उनको दुलारें नित्य प्रिय!!

आपदाएं परखतीं धीरज 'सलिल'.
राह नाहक मत निहारें नित्य प्रिय!!

अँधेरा घर किसे भाता है कहें?
दीप बन जग को उजारें नित्य प्रिय!!

तनिक अंतर में 'सलिल' अंतर न हो.
दूरियाँ मन से बुहारें नित्य प्रिय!!

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मुक्तिका

तितलियाँ

संजीव 'सलिल'
*
यादों की बारात तितलियाँ.

कुदरत की सौगात तितलियाँ..

बिरले जिनके कद्रदान हैं.

दर्द भरे नग्मात तितलियाँ..

नाच रहीं हैं ये बिटियों सी

शोख-जवां ज़ज्बात तितलियाँ..

बद से बदतर होते जाते.

जो, हैं वे हालात तितलियाँ..

कली-कली का रस लेती पर

करें न धोखा-घात तितलियाँ..

हिल-मिल रहतीं नहीं जानतीं

क्या हैं शाह औ' मात तितलियाँ..

'सलिल' भरोसा कर ले इन पर

हुईं न आदम-जात तितलियाँ..

*******************
स्मृतियों का वातायन :
संजीव 'सलिल'
*
स्मृतियों के वातायन से, झाँक रहे हैं लोग...
*
पाला-पोसा खड़ा कर दिया, बिदा हो गए मौन.
मुझमें छिपे हुए हुए हैं, जैसे भोजन में हो नौन..
चाहा रोक न पाया उनको, खोया है दुर्योग...
*
ठोंक-ठोंक कर खोट निकली, बना दिया इंसान.
शत वन्दन उनको, दी सीख- 'न कर मूरख अभिमान'.
पत्थर परस करे पारस का, सुखमय है संयोग...
*
टाँग मार कर कभी गिराया, छुरा पीठ में भोंक.
जिनने अपना धर्म निभाया, उन्नति-पथ को रोक.
उन का आभारी, बचाव के सीखे तभी प्रयोग...
*
मुझ अपूर्ण को पूर्ण बनाने, आई तज घर-द्वार.
कैसे बिसराऊँ मैं उनको, वे मेरी सरकार.
मुझसे मुझको ले मुझको दे, मिटा रहीं हर सोग...
*
बिन शर्तों के नाते जोड़े, दिया प्यार निष्काम.
मित्र-सखा मेरे जो उनको, सौ-सौ बार सलाम.
दुःख ले, सुख दे, सदा मिटाए, मम मानस के रोग...
*
ममता-वात्सल्य के पल, दे नव पीढ़ी ने नित्य.
मुझे बताया नव रचना से, थका न अभी अनित्य.
'सलिल' अशुभ पर जयी सदा शुभ, दे तू भी निज योग...
*
स्मृति-दीर्घा में आ-जाकर, गया पीर सब भूल.
यात्रा पूर्ण, नयी यात्रा में साथ फूल कुछ शूल.
लेकर आया नया साल, मिल इसे लगायें भोग...
***********

तेवरी ही तेवरी संजीव 'सलिल'

तेवरी
दिल के घाव
संजीव  'सलिल'
*

ताज़ा-ताज़ा दिल के घाव।
सस्ता हुआ नमक का भाव।।

मंझधारों-भंवरों को पार,
किया किनारे डूबी नाव।।

सौ चूहे खाने के बाद
सत्य-अहिंसा का है चाव।।

ताक़तवर के चूम कदम
निर्बल को दिखलाया ताव।।

ठण्ड भगाई नेता ने
जला झोपडी, बना अलाव।।

डाकू तस्कर चोर खड़े
मतदाता क्या करे चुनाव?

नेता रावण, जन सीता
कैसे होगा सलिल निभाव?

*******

रविवार, 17 फ़रवरी 2013

सामयिक लघुकथा: ढपोरशंख संजीव 'सलिल'

सामयिक लघुकथा: 
ढपोरशंख
                                                                    संजीव 'सलिल'
                                                                               *
               कल राहुल के पिता उसके जन्म के बाद घर छोड़कर सन्यासी हो गए थे, बहुत तप किया और बुद्ध बने. राहुल की माँ ने उसे बहुत अरमानों से पाला-पोसा बड़ा किया पर इतिहास में कहीं राहुल का कोई योगदान नहीं दीखता.

               आज राहुल के किशोर होते ही उसके पिता आतंकवादियों द्वारा मारे गए. राहुल की माँ ने उसे बहुत अरमानों से पाला-पोसा बड़ा किया पर देश के निर्माण में कहीं राहुल का कोई योगदान नहीं दीखता.

               सबक : ढपोरशंख किसी भी युग में हो ढपोरशंख ही रहता है.

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

गीत : ... सच है संजीव 'सलिल'

गीत :
... सच है
संजीव 'सलिल'
*
कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है.
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
ढाई आखर की पोथी से हमने संग-संग पाठ पढ़े हैं.
शंकाओं के चक्रव्यूह भेदे, विश्वासी किले गढ़े है..
मिलन-क्षणों में मन-मंदिर में एक-दूसरे को पाया है.
मुक्त भाव से निजता तजकर, प्रेम-पन्थ को अपनाया है..
ज्यों की त्यों हो कर्म चदरिया मर्म धर्म का इतना जाना-
दूर किया अंतर से अंतर, भुला पावना-देना सच है..

कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है. 
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
तन पाकर तन प्यासा रहता, तन खोकर तन वरे विकलता.
मन पाकर मन हुआ पूर्ण, खो मन को मन में रही अचलता.
जन्म-जन्म का संग न बंधन, अवगुंठन होता आत्मा का.
प्राण-वर्तिकाओं का मिलना ही दर्शन है उस परमात्मा का..
अर्पण और समर्पण का पल द्वैत मिटा अद्वैत वर कहे-
काया-माया छाया लगती मृग-मरीचिका लेकिन सच है  

कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है. 
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
तुमसे मिलकर जान सका यह एक-एक का योग एक है.
सृजन एक ने किया एक का बाकी फिर भी रहा एक है..
खुद को खोकर खुद को पाया, बिसरा अपना और पराया.
प्रिय! कैसे तुमको बतलाऊँ, मर-मिटकर नव जीवन पाया..
तुमने कितना चाहा मुझको या मैं कितना तुम्हें चाहता?
नाप माप गिन तौल निरुत्तर है विवेक, मन-अर्पण सच है.

कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है. 
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*


बाल कविता: अक्कड़ मक्कड़ भवानीप्रसाद मिश्र

धरोहर:
बाल कविता:
अक्कड़ मक्कड़ 
 भवानीप्रसाद मिश्र
*
अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़,
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़,
हाट से लौटे, ठाठ से लौटे,
एक साथ एक बाट से लौटे.

बात-बात में बात ठन गयी,
बांह उठीं और मूछें तन गयीं.
इसने उसकी गर्दन भींची,
उसने इसकी दाढी खींची.

अब वह जीता, अब यह जीता;
दोनों का बढ चला फ़जीता;
लोग तमाशाई जो ठहरे
सबके खिले हुए थे चेहरे !

मगर एक कोई था फक्कड़,
मन का राजा कर्रा - कक्कड़;
बढा भीड़ को चीर-चार कर
बोला ‘ठहरो’ गला फाड़ कर.

अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़,
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़,
गर्जन गूंजी, रुकना पड़ा,
सही बात पर झुकना पड़ा !

उसने कहा सधी वाणी में,
डूबो चुल्लू भर पानी में;
ताकत लड़ने में मत खोओ
चलो भाई चारे को बोओ!

खाली सब मैदान पड़ा है,
आफ़त का शैतान खड़ा है,
ताकत ऐसे ही मत खोओ,
चलो भाई चारे को बोओ.

सुनी मूर्खों ने जब यह वाणी
दोनों जैसे पानी-पानी
लड़ना छोड़ा अलग हट गए
लोग शर्म से गले छट गए

सबकों नाहक लड़ना अखरा
ताकत भूल गई तब नखरा
गले मिले तब अक्कड़-बक्कड़
खत्म हो गया तब धूल में धक्कड़

अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़

गीत सलिला: राकेश खंडेलवाल

गीत सलिला:
राकेश खंडेलवाल

 
 
कुछ प्रश्नों  का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है 
ऐसा ही यह प्रश्न तुम्हारा तुमसे कितना प्यार मुझे है 
संभव कहाँ शब्द में बांधू  गहराई मैं मीत प्यार की 
प्याले में कर सकूं कैद मैं गति गंगा की तीव्र धार की 
आदि अंत से परे रहा जो अविरल है अविराम निरंतर 
मुट्ठी में क्या सिमटेगी  विस्तृतता तुमसे मेरे प्यार  की 
असफल सभी चेष्टा मेरी कितना भी चाहा हो वर्णित 
लेकिन हुआ नहीं परिभाषित तुमसे कितना प्यार मुझे है 
अर्थ प्यार का शब्द तुम्हें भी ज्ञात नहीं बतला सकते हैं
मन के बंधन जो गहरे हैं, होंठ कभी क्या गा सकते हैं
ढाई  अक्षर कहाँ कबीरा, बतलासकी दीवानी मीरा 
यह अंतस की बोल प्रकाशन पूरा कैसे पा सकते हैं 
श्रमिक-स्वेद कण के नाते को  रेख सिंदूरी से सुहाग का 
जितना होता प्यार जान लो तुमसे उतना प्यार मुझे है 
ग्रंथों ने अनगिनत कथाएं रचीं और हर बार बखानी 
नल दमयंती, लैला मजनू, बाजीराव और मस्तानी 
लेकिन अक्षम रहा बताये प्यार पैठता कितना गहरे
जितना भी डूबे उतना ही गहरा हो जाता है पानी
शायद एक तुम्हों हो जो यह सत्य मुझे बतला सकता है
तुम ही तो अनुभूत कर रहे तुमसे कितना प्यार मुझे है।

***
Rakesh Khandelwal <rakesh518@yahoo.com>

कविता: मन गीली मिट्टी सा कुसुम वीर

कविता:मन गीली मिट्टी सा
कुसुम वीर
*
मन गीली मिटटी सा
उपजते हैं इसमें अनेकों विचार
भावों के इसमें हैं अनगिन प्रवाह

सपनों की खाद से उगती तमन्नाएं
फूटें हैं हरपल नई अभिलाषाएं
उगती कभी इसमें शंकाओं की घास
ढापती जो ख्वाबों को,उभरने न दे आस

उगने दो मन की मिटटी में
भावनाओं के कोमल अंकुरों को
विस्तारित होने दो सौहार्द की ख़ुशबू को
नोच डालो वैमनस्य की जंगली हर घास 
पनपने दो सपनों की मृदुल कोंपल शाख

प्रेमजल से सिंचित बेल
जल्द ही उग आएगी
लहलहाएंगी हरी डालियाँ
 फूलेंगी नई बालियाँ

मौसम की बहारों में
बासंती मधुमास में
 खिल जाएँगे तब न जाने
कितने ही अनगिन कुसुम

मत रोकना तुम
पतझड़ की बयारों को
झड़ जायेंगे उसमें
 शंकाओं के पीले पात

ठूठी डालों पे फूटेंगी
फिर से नई कोंपलें
 फैलाते पंखों को
डोलेंगे पंछी

दूर कहीं मंदिरों में
घंटों की खनक में
शंखों के नाद संग
आरती आराधन स्वर

वंदना में झूमती
दीपक की लौ मगन
गूंजें फिर श्लोक कहीं
आध्यात्म ऋचाएं वहीँ

भावों के अनकहे
आत्मा के अंतर स्वर
तब तुम भी गा लेना
प्रेम का तराना

मन की गीली मिट्टी सा
कर देगा सरोबार
तुम्हें कहीं अंतर तक
सौंधी सी, पावन सी
ख़ुशबू के साथ
------------------------------

Kusum Vir <kusumvir@gmail.com>
 

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

छंद सलिला- हरिगीतिका: संजीव 'सलिल'

छंद सलिला-
हरिगीतिका:

संजीव 'सलिल'
( छंद विधान: हरिगीतिका X 4 = 11212 की चार बार आवृत्ति)
*

       भिखारीदास ने छन्दार्णव में गीतिका नाम से 'चार सगुण धुज गीतिका' कहकर हरिगीतिका का वर्णन किया है।
छंद विधान:
० १. हरिगीतिका २८ मात्रा का ४ समपाद मात्रिक छंद है।
० २. हरिगीतिका में हर पद के अंत में लघु-गुरु ( छब्बीसवी लघु, सत्ताइसवी-अट्ठाइसवी गुरु ) अनिवार्य है।
० ३. हरिगीतिका में १६-१२ या १४-१४ पर यति का प्रावधान है।
० ४. सामान्यतः दो-दो पदों में समान तुक होती है किन्तु चारों पदों में समान तुक, प्रथम-तृतीय-चतुर्थ पद              में समान तुक भी हरिगीतिका में देखी गयी है।
०५. काव्य प्रभाकरकार जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' के अनुसार हर सतकल अर्थात चरण में (11212) पाँचवी,               बारहवीं, उन्नीसवीं तथा छब्बीसवीं मात्रा लघु होना चाहिए।  कविगण लघु को आगे-पीछे के अक्षर से               मिलकर दीर्घ करने की तथा हर सातवीं मात्रा के पश्चात् चरण पूर्ण होने के स्थान पर पूर्व के चरण का               अंतिम दीर्घ अक्षर अगले चरण के पहले अक्षर या अधिक अक्षरों से संयुक्त होकर शब्द में प्रयोग करने             की छूट लेते रहे हैं किन्तु चतुर्थ चरण की पाँचवी मात्रा का लघु होना आवश्यक है।
*
उदाहरण:
०१. निज गिरा पावन कर कारन, राम ज तुलसी ह्यो. (रामचरित मानस)
      (यति १६-१२ पर, ५वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०२. दुन्दुभी जय धुनि वे धुनि, नभ नग कौतूहल ले. (रामचरित मानस) 
      (यति १४-१४ पर, ५वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)    
०३. अति किधौं सरित सुदे मेरी, करी दिवि खेलति ली। (रामचंद्रिका)
      (यति १६-१२ पर, ५वी-१९ वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०४. जननिहि हुरि मिलि चलीं उचित असी सब काहू ई। (रामचरित मानस)
      (यति १६-१२ पर, १२ वी, २६ वी मात्राएँ दीर्घ, ५ वी, १९ वी मात्राएँ लघु)
०५. करुना निधान सुजा सील सने जानत रारो। (रामचरित मानस)
      (यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०६. इहि के ह्रदय बस जाकी जानकी उर मम बा है। (रामचरित मानस)
      (यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी,  २६ वी मात्राएँ लघु, १९ वी मात्रा दीर्घ)
०७. तब तासु छबि मद छक्यो अर्जुन हत्यो ऋषि जमदग्नि जू।(रामचरित मानस)
      (यति १६-१२ पर, ५ वी, २६ वी मात्राएँ लघु, १२ वी,  १९ वी मात्राएँ दीर्घ)
०८. तब तासु छबि मद छक्यो अर्जुन हत्यो ऋषि जमदग्नि जू।(रामचंद्रिका)
      (यति १६-१२ पर, ५ वी, २६ वी मात्राएँ लघु, १२ वी,  १९ वी मात्राएँ दीर्घ)
०९. जिसको निज / गौरव था / निज दे का / अभिमा है।
      वह नर हीं / नर-पशु निरा / है और मृक समा है। (मैथिलीशरण गुप्त )
      (यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी,  १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
१०. जब ज्ञान दें / गुरु तभी  नर/ निज स्वार्थ से/ मुँह मोड़ता।
      तब आत्म को / परमात्म से / आध्यात्म भी / है जोड़ता।।(संजीव 'सलिल')
   
अभिनव प्रयोग:
हरिगीतिका मुक्तक:
संजीव 'सलिल'
      पथ कर वरण, धर कर चरण, थक मत चला, चल सफल हो.
      श्रम-स्वेद अपना नित बहा कर, नव सृजन की फसल बो..
      संचय न तेरा साध्य, कर संचय न मन की शांति खो-
      निर्मल रहे चादर, मलिन हो तो 'सलिल' चुपचाप धो..
      *
      करता नहीं, यदि देश-भाषा-धर्म का, सम्मान तू.
      धन-सम्पदा, पर कर रहा, नाहक अगर, अभिमान तू..
      अभिशाप जीवन बने तेरा, खो रहा वरदान तू-
      मन से असुर, है तू भले, ही जन्म से इंसान तू..
      *
      करनी रही, जैसी मिले, परिणाम वैसा ही सदा.
      कर लोभ तूने ही बुलाई शीश अपने आपदा..
      संयम-नियम, सुविचार से ही शांति मिलती है 'सलिल'-
      निस्वार्थ करते प्रेम जो, पाते वही श्री-संपदा..
      *
      धन तो नहीं, आराध्य साधन मात्र है, सुख-शांति का.
      अति भोग सत्ता लोभ से, हो नाश पथ तज भ्रान्ति का..
      संयम-नियम, श्रम-त्याग वर, संतोष कर, चलते रहो-
      तन तो नहीं, है परम सत्ता उपकरण, शुचि क्रांति का..
      *
      करवट बदल ऋतुराज जागा विहँस अगवानी करो.
      मत वृक्ष काटो, खोद पर्वत, नहीं मनमानी करो..
      ओजोन है क्षतिग्रस्त पौधे लगा हरियाली करो.
      पर्यावरण दूषित सुधारो अब न नादानी करो..
      *

Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com




lata & rafi

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

द्विपदि: संजीव 'सलिल'

द्विपदि:
संजीव 'सलिल'
*
जब तक था दूर कोई मुझे जानता न था.
तुमको छुआ तो लोहे से सोना हुआ 'सलिल'.
*
वीरानगी का क्या रहा आलम न पूछिए.
दिल ले लिया तुमने तभी आबाद यह हुआ..
*
जाता है कहाँ रास्ता? कैसे बताऊँ मैं??
मुझ से कई गए न तनिक रास्ता हिला..
*
बस में नहीं दिल के, कि बस के फिर निकल सके.
परबस न जो हुए तो तुम्हीं आ निकाल दो..
*
जो दिल जला है उसके दिल से दिल मिला 'सलिल'
कुछ आग अपने दिल में लगा- जग उजार दे.. ..
***

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

chitr par kavita:

चित्र पर कविता:


बसंत के आगमन पर झूमते तन-मन की बानगी लिए चित्र देखिये और रच दीजिए भावप्रवण रचना। संभव हो तो रचना के छंद का उल्लेख करें।


डॉ. प्राची.सिंह
छंद त्रिभंगी
*
मन निर्मल निर्झर, शीतल जलधर, लहर लहर बन, झूमे रे..
मन बनकर रसधर, पंख  प्रखर  धर, विस्तृत अम्बर, चूमे रे..
ये मन सतरंगी, रंग बिरंगी, तितली जैसे, इठलाये..
जब प्रियतम आकर, हृदय द्वार पर, दस्तक देता, मुस्काये..

टीप: त्रिभंगी छंद के रचना विधान तथा उदाहरण प्रस्तुत किये जा चुके हैं।

त्रिभंगी सलिला:
ऋतुराज मनोहर...
संजीव 'सलिल'
*
ऋतुराज मनोहर, प्रीत धरोहर, प्रकृति हँसी, बहु पुष्प खिले.
पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले..
लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले.
पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले..
*
ऋतुराज मनोहर, स्नेह सरोवर, कुसुम कली मकरंदमयी.
बौराये बौरा, निरखें गौरा, सर्प-सर्पिणी, प्रीत नयी..
सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी.
दस दिशा तरंगित, भू-नभ कंपित, प्रणय प्रतीति न 'सलिल' गयी..
*
ऋतुराज मनोहर, सुनकर सोहर, झूम-झूम हँस नाच रहा.
बौराया अमुआ, आया महुआ, राई-कबीरा बाँच रहा..
पनघट-अमराई, नैन मिलाई के मंचन के मंच बने.
कजरी-बम्बुलिया आरोही-अवरोही स्वर हृद-सेतु तने.. 
**
sn Sharma <ahutee@gmail.com>
 
         चित्र पर रचना -

 कौन तुम किस लोकवासी
  तुहिन-वदना अप्सरा सी
प्रकट सहसा सरित-जल पर
  शरद-ऋतु की पूर्णिमा सी 
आचार्य संजीव जी  द्वारा इंगित त्रिभंगी-छंद  में उक्त कलाकृति पर
कुछ पंक्तिया लिखने का प्रयास किया है  । इस छंदके  व्याकरण और शिल्प पर
उनके आलेख की मेल मेरे कंप्यूटर से लोप हो चूकी थी अस्तु  उनके दूसरे त्रिभंगी छंद
को पढ़ कर अपने अनुमान  से यह रचना प्रस्तुत कर  रहा हूँ । आशा है आचार्य जी अपनी
प्रतिक्रिया में इसके व्याकारण  दोष और शिल्प-दोष पर प्रकाश डालेंगे ।   
      
       
           छंद त्रिभंगी षट -रस रंगी अमिय सुधा-रस पान करे
         छवि का बंदी कवि-मन आनंदी स्वतः त्रिभंगी-छंद झरे
     
        दृश्यावलि सुन्दर लोल-लहर पर अलकावलि अति सोहे
        पृथ्वी-तल पर सरिता-जल पर पसरी कामिनी मन मोहे
   
        उषाकाल नव-किरण जाल जल का उछाल  यह लख रे
        सद्यस्नाता  कंचन गाता रति-रूप  लजाता दृश्य अरे
 
      सस्मित निरखत रस रूप-सुधा घट चितवत नेह-पगा रे
     गगन मुदित रवि नैसर्गिक छवि विस्मित  मौन ठगा रे
 
    श्यामल केश कमल-मुख श्वेत रुचिर परिवेश प्रदान करे
    नयन खुले  से निमिष-तजे से अधर  मंद  मुस्कान भरे

   उभरे  वक्षस्थल  जलक्रीडा स्थल लहर उछल मन प्राण हरे
   सोई सुषमा सी विधु ज्योत्स्ना सी शरद पूर्णिमा नृत्य करे

   रोमांचित तन प्रमुदित मन आलोकित सिकता-कण बिखरे
  सस्मित आकृति अनमोल कलाकृति मुग्ध प्रकृति इस पल रे

  उतरी जल-परि सी सिन्धु-लहर सी प्रात प्रहर सुर-धन्या सी
   दीप-शिखा सी नव-कालिका सी इठलाती  हिम-कन्या   सी

   दादा 
 
***

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

बाल गीत: लंगडी खेलें..... संजीव 'सलिल'

बाल गीत:

लंगडी खेलें.....
संजीव 'सलिल'
*
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*************
  Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com

हिमालय अदृश्य हो गया! महावीर शर्मा

“हिमालय अदृश्य  हो गया!”
महावीर शर्मा

*

सोमवार ११ सितम्बर,१८९३। अमेरिका स्थित शिकागो नगर में विश्व धर्म सम्मेलन में गेरुए वस्त्र धारण किए हुए एक ३० वर्षीय भारतीय युवक सन्यासी ने, जिसके हाथ में भाषण के लिए ना कोई कागज़ था, ना कोई पुस्तक, चार शब्दों “अमेरिका निवासी बहनों और भाइयों” से श्रोताओं को संबोधित कर चकित कर डाला। ७००० श्रोताओं की १४००० हथेलियों से बजती हुई तालियों से ३ मिनट तक चारों दिशाएं गूंजती रही। अमेरिका निवासी सदैव केवल “लेडीज़ एण्ड जेंटिलमेन” जैसे शब्दों से ही संबोधित किए जाते थे।   

यह थे स्वामी विवेकानंद जिन्होंने अपने व्याख्यान में भारतीय आध्यात्मिक तत्वनिरूपण कर जन-समूह एवं विभिन्न धर्मों के ज्ञान-विद प्रतिनिधियों के मन को मोह लिया था। अंतिम अधिवेशन में वक्ताओं,विभिन्न देशों और धर्मों के प्रतिनिधियों , श्रोताओं का धन्यवाद देते हुए जिस प्रकार प्रभावशाली भाषण को समाप्त किया, लोग आनंद-विभोर हो उठे। उन्होंने यह भी कहा कि हिंदू-धर्म केवल सार्वभौमिक सहिष्णुता में ही नहीं, अपितु इस में भी विश्वास करता है कि समस्त धर्म सत्य और यथा-तथ्यों पर आधारित हैं।

* * * * *

लगभग नौ वर्ष पश्चातशुक्रवार, ४ जुलाई १९०२ के दिन अमेरिका-निवासी १८५वां स्वतंत्रता-दिवस धूम-धाम से मनाते हुए २ लाख व्यक्ति शैनले-पार्क, पिट्सबर्ग में राष्ट्रपति रूज़वेल्ट का भाषण सुन रहे थे, उसी दिन जिस सन्यासी स्वामी विवेकानंद ने ११ सितंबर १८९३ में अमेरिका में ज्ञान-दीप जला कर सत्य के प्रकाश से लोगों के ह्रदयों को आलोकित किया था—                                                                                                      

भारत के पश्चिमी बंगाल के कोलकात्ता नगर के समीप हावड़ा क्षेत्र में हुगली नदी के दूसरे तीर पर स्थित बेलू मठ में सूर्यास्त के साथ साथ स्वामी विवेकानंद सदैव के लिए नश्वर शरीर त्याग कर ‘महा-समाधि’ लेकर महा-प्रयाण की ओर अग्रसर थे।

स्वामी विवेकानंद प्रातः ही उठ गए थे। साढ़े आठ बजे मंदिर में जाकर ध्यान-रत हो गए। एक घण्टे के पश्चात एक शिष्य को कमरे के सारे द्वार और खिड़कियां बंद करने को कह कर लगभग डेढ़ घण्टे उस बंद कक्ष में भीतर ही रहे। लगभग डेढ़ घण्टे बाद माँ काली के भजन गाते हुए नीचे आगए। स्वामी जी स्वयं ही धीमी आवाज में कुछ कह रहे थेः “यदि एक अन्य विवेकानंद होता तो वह ही समझ पाता कि विवेकानंद ने क्या किया है। अभी आगामी समय में कितने विवेकानंद जन्म लेंगे।” पास में ही स्वामी प्रेमानंद इन शब्दों को सुन कर सतब्ध से रह गए। भोजन के पश्चात स्वामी जी प्रतिदिन की भांति ब्रह्मचारियों को ३ घण्टे तक संस्कृत-व्याकरण सिखाते रहे।

आज स्वामी जी के चेहरे पर किसी गंभीर चिंता के लक्षण प्रगट हो रहे थे। अन्य स्वामी तथा शिष्य-गण देखकर भी उनसे पूछ ना सके। सांय ४ बजे एक अन्य स्वामी के साथ पैदल ही घूमने चले गए। लगभग १ मील चल कर वापस मठ पर चले आए। ऊपर, अपने कक्ष में जाकर अपनी जप-माला मंगवाई। एक ब्रह्मचारी को बाहर प्रतीक्षा करने के लिए कह कर धयानस्थ हो गए। पौने आठ बजे एक ब्रह्मचारी को बुलाकर कमरे के दरवाज़े और खिड़कियां खुलवा कर फ़र्श पर अपने बिस्तर पर लेट गए। शिष्य पंखा झलते हुए सवामी जी के पांव दबाता रहा।

दो घण्टे के पश्चात स्वामी जी का हाथ थोड़ा सा हिला, एक हलकी सी चीख़ के साथ एक दीर्घ-श्वास! सिर तकिये से लुढ़क गया- एक और गहरा श्वास !! भृकुटियों के बीच आंखें स्थिर हो गईं। एक दिव्य-ज्योति सब के ह्रदयों को प्रकाशित कर, नश्वर शरीर छोड़ कर लुप्त हो गई।

शिष्य उनकी शिथिल स्थिर मुखाकृति देख कर डर सा गया। बोझल ह्रदय के साथ दौड़ कर नीचे एक अन्य स्वामी को हड़बड़ाते हुए बताया। स्वामी ने समझा कि स्वामी विवेकानंद समाधि में रत हो गए हैं। उनके कानों में श्री राम कृष्ण परमहंस का नाम बार बार उच्चारण किया, किंतु स्वामी जी का शरीर शिथिल और स्थिर ही रहा, उसमें कोई गति का चिन्ह नहीं दिखाई दिया।

कुछ ही क्षणों में डॉक्टर महोदय आगए। जिस सन्यासी ने अनेक व्यक्तियों के ह्रदयों में दैवी-श्वास देकर जीवन का रहस्य बता कर अर्थ-पूर्ण जीवन-दान दिया , आज उस भव्यात्मा के शरीर में डॉक्टर की कृत्रिम-श्वासोच्छवास में गति नहीं दे सकी। स्वामी विवेकानंद ३९ वर्ष, ५ मास और २४ दिनों के अल्प जीवन-काल में अन्य-धर्मान्ध व्यक्तियों द्वारा हिंदु-धर्म के विकृत-रूप के प्रचार से प्रभावित गुमराह लोगों को हिंदु-धर्म का यथार्थ मर्म सिखाते रहे।

स्वामी ब्रह्मानंद स्वामी जी के गतिहीन शरीर से लिपट गए। एक अबोध बालक की तरह फफक फफक कर रो पड़े। उनके मुख से स्वतः ही निकल पड़ाः

“हिमालय अदृष्य हो हो गया है!”

प्रातः स्वामी जी के नेत्र रक्तिम थे और नाक, मुख से हल्का सा रक्त निकला हुआ था।

तीन दिन पहले २ जुलाई को स्वामी जी ने निवेदिता को दो बार आशीर्वाद देकर आध्यात्मिकता का सत्य-रूप दिखाया था और आज वह उसी दिव्य-ज्योति में समाधिस्थ थी। कक्ष के दरवाजे पर थपक सुन कर ध्यानस्थ निवेदिता ने आंखें खोली और द्वार खोल दिया। एक ब्रह्मचारी सामने खड़ा हुआ था, आंखों में अश्रु निकल रहे थे। भर्राये हुए स्वर से बोला, “स्वामी जी रात के समय—” कहते कहते उसका गला रुंध गया, पूरी बात ना कह पाया। निवेदिता स्तब्ध सी शून्य में देखती रह गई जैसे अंग-घात हो गया हो। जिब्हा बोलने की चेष्टा करने का प्रयास करते हुए भी निश्चल रही। फिर स्वयं को संभाला और मठ की ओर चल दी।

स्वामी जी के शरीर को गोद में रख लिया। दृष्टि उनके शरीर पर स्थिर हो गई, पंखे से हवा देने लगी और उन्माद की सी अवस्था में वो समस्त सुखद घटनाएं दोहराने लगी जब स्वामी जी ने इंग्लैंड की धरती से निवेदिता को भारत की परम-पावन धरती में लाकर एक नया सार्थक जीवन दिया था।

मृत-शरीर नीचे लाया गया। भगवा वस्त्र पहना कर सुगंधित पुष्पों से सजा कर शुद्ध- वातावरण को बनाए रखने के लिए अगर बत्तियां जलाई गईं। शंख-नाद से चारों दिशाएं गूंज उठी। लोगों का एक विशाल समूह उस सिंह को श्रद्धाञ्जली देने के लिए एकत्रित हो गया। शिष्य, ब्रह्मचारी, अन्य स्वामी-गण, और सभी उपस्थित लोगों की आंखें अश्रु-भार संभालने में अक्षम थे। निवेदिता एक निरीह बालिका की भांति दहाड़ दहाड़ कर रो रही थी। उसने स्वामी जी के कपड़े को देखा और विषादपूर्ण दृष्टि लिए स्वामी सदानंद से पूछा, “क्या यह वस्त्र भी जल जाएगा ? यह वही वस्त्र है जब मैंने उन्हें अंतिम बार पहने हुए देखा था। क्या मैं इसे ले सकती हूं ? “

स्वामी सदानंद ने कुछ क्षणों के लिए आंखें मूंद ली, और तत्पश्चात बोले,

“निवेदिता, तुम ले सकती हो। “

निवेदिता सहम सी गई, ऐसा कैसे हो सकता था? वह यह वस्त्र एक याद के रूप में जोज़फ़ीन को देना चाहती थी। उसने वस्त्र नहीं लिया।
चमत्कार था या संयोग-कौन जाने ?

निवेदिता को जिस वस्त्र को लेने की इच्छा थी, जलती हुई चिता से उसी वस्त्र का एक छोटा सा टुकड़ा हवा से उड़कर उसके पांव के पास आकर गिर पड़ा। वस्त्र को देख, वह विस्मित हो गई। छोटे से टुकड़े को श्रद्धापूर्वक बार बार मस्तक पर लगाया। उसने यह स्वमी जी का दिया हुआ अंतिम उपहार जोज़फ़ीन के पास भेज दिया जिसने दीर्घ काल तक उसे संजोए रखा।

उस चिता की अग्नि-शिखा आज भी स्वामी जी के अनुपम कार्यों में निहित, विश्व में भारतीय अंतश्चेतना, अंतर्भावनाशीलता और सदसद् विवेक का संदेश दे, भटके हुए को राह दिखा रही है।

“ईश्वर को केवल मंदिरों में ही देखने वाले व्यक्तियों की अपेक्षा ईश्वर उन लोगों से अधिक प्रसन्न होते हैं जो जाति, प्रजाति, रंग, धर्म, मत, देश-विदेश पर ध्यान ना देकर निर्धन, निर्बल और रोगियों की सहायता करने में तत्पर रहते हैं। यही वास्तविक ईश्वर-उपासना है। जो व्यक्ति ईश्वर का रूप केवल प्रतिमा में ही देखता है, उसकी उपासना प्रारंभिक एवं प्रास्ताविक उपासना है। मानव-ह्रदय ही ईश्वर का सब से बड़ा मंदिर है।”
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आभार: लावण्या शाह

श्री बल्लभाचार्य संप्रदाय- = नवीन सी. चतुर्वेदी

श्री वल्लभाचार्य संप्रदाय :                 

स्रोत - स्व. श्री बाल मुकुन्द चतुर्वेदी जी द्वारा प्रस्तुत ऐतिहासिक दस्तावेज़ "माथुर चतुर्वेदियों का इतिहास"

1336 वि0, में प्रादुर्भावित श्री बाल गोपाल सेवा के प्रवर्तक श्री विष्णु स्वामी संप्रदाय की परम्परा को लेकर श्री बल्लभाचार्य महाप्रभु का अविर्भाव 1535 वि0, में हुआ । ये 1549 वि0 में मथुरा पधारे । इन्होंने 1550 वि0 में अपने विश्राम घाट निवास में यमुनाष्टक की रचना करने के बाद 6 बार श्री उद्धवाचार्य जी के उपदेश से तथा श्री उजागरजी के पौरोहित्य निर्देशन में ब्रज यात्रायें कीं जिनके विषद वर्णन का ग्रंथ श्री उद्धवाचार्य देव जू द्वारा लिखित 650 पृष्ठों में वर्णित हमारे संग्रह में सुरक्षित है । श्री महाप्रभु ने मथुरा ब्रज महात्म और यात्रा पद्धति का 'ब्रज मथुरा प्रकाश' नाम का ग्रंथ भी रचा है जाते हमारे ही यहाँ हैं । उनकी 6 ब्रज यात्राओं में-1-1550 वि0 ग्वालियर से पधारे तब, 2-1555 वि0 में पुष्कर से पधारे तब, 3-1571 वि0 अडैल से पधारे तब, 4-1573 वि0 पुन:, 5-1585 वि0 द्वारिकापुरी से पधारे तब और 6-1586 वि0 गोपलापुर (जतीपुरा) निवास करते तब इस प्रकार 6 ब्रज यात्राओं को सम्पन्न कर ब्रज रस की सिद्धि करने का महा मनोर्थ वर्णित है । ब्रज के प्रमुख स्थलों में इनकी भागवत परायण की 24 बैठकैं सर्व विदित हैं । 1571 वि0 की बृजयात्रा सिकन्दर लोदी काल में जब बहुला बन में पहुंची तो वहाँ के कट्टर इस्लामी फौजदार ने बहुलावन कीं पाषाण गौर की पूजा रोकदी तब माथुर श्री उद्धवदेव जी के ऋग्वेदीय गो सूक्त के पाठ से गौ ने घास खायी और हाकिम चमत्कृत और लज्जित पराजित हुआ । 1565 वि0 में कवि सम्राट सूरदास जी इनकी शरण में आये, इनके समीप ही मणि कर्णिका की एक कोठरी में रहे । 1623 वि0 में जब श्री नाथ जी मथुरा में सतघरा में विराजे थे उस फाग अवसर पर बादशाह अकबर सूरदास जी के दर्शन को आया किंन्तु सूरदास जी ने दर्शन नहीं दिये । श्री आचार्यजी का आसुर व्यामोह 1587 वि0 में हुआ ।                                                      
                गो0 श्री बिठ्टलनाथजी- 1572 वि0 में जन्मे श्री बिठ्टलनाथजी का मथुरा बास 1622 से 1627 वि0 तब रहा । रानी दुर्गावती ने उनके और उनके 7 पुत्रों के लिये सतघरा महुल्ले में सात हवेलियां युक्त विशाल भवन बनवाया । 1623 वि0 में उनके पुत्र गो0 गिरधर जी श्री नाथ जी को जतीपुरा से मथुरा ले आये इस होली उत्सव में बादशाह अकबर आया । श्री गोसांई जी ने अपने समय में श्रीनाथ जी की सेवा का नियमित विस्तार कर कीर्तन साहित्य और कीर्तन की राग पद्धति का विकास करने को अष्ट छाप के कवियों की स्थापना की । 1600 वि0 में गो0 विठ्टलनाथजी ने ब्रजयात्रा की तब श्री उजागरवंश को पौरोहित्य का वृत्ति पत्र लिखा-
'स्वस्ति श्री मद्विट्ठल दीक्षितानां मथुरा क्षेत्रे तीर्थ पुरोहितो उजागर शर्मा माथुरोस्ति- वि0 संवत 1600 ।
इस लेख की फोटो प्रति 1989 वि0 में कांकरौली के गोस्वामी श्री ब्रजभूषण लाल ने अपनी ब्रज यात्रा के अवसर पर ली थी जो अब काँकरौली विद्या विभाग के ग्रंथागार में है । इस सम्बन्ध में प्राचीन मर्यादा के अनुसार श्रीराधाचन्द ने लिखा है- चतुर्णा संप्रदायाणां माचार्ये धर्म वित्तमै: , उद्धवोजागरौ पादौ पूजितानिश्च भक्तित: ।
1644 वि0 में गोस्वामीजी को गोकुल की भूमि का पट्टा मिला और तब से वे गोकुल में रहने लगे । श्री उद्धवाचार्य देवजी ने ही 1559 वि0 में पूरनमलखत्री के द्रव्य से श्रीनाथजी का मन्दिर हीरामन मिस्त्री से तैयार कराया और अनेक विध सेवाओं और उत्सवों के बाद औरंगजेब के प्रहार से रक्षा हेतु श्री नाथजी को 1726 वि0 में मेवाड़ ले जाया गया । 
                    इस वंश में गो0 श्री गोकुलनाथजी, श्री हरिरामजी, श्री गोपेश्वरजी , तिलकायत श्री गोवर्धननाथजी, श्री दाऊजी, श्री यदुनाथजी, श्री रमणप्रभु जी, श्रीमधुसूदनलालजी, श्रीद्वारकेशलालजी, श्री माधवरायजी, श्री गोपाललालजी, आदि अनेक आदरणीय महापुरूष हुए हैं । जिनके हस्तलेख चौबों के यहाँ हैं । चैतन्य महाप्रभु- इनका माध्व गौडीय संप्रदाय है । 1572 वि0 में श्री चैतन्य महाप्रभु मथुरा पधारे । यमुना देखकर प्रेमोन्मत्त हुए जल में कूद पड़े और हरिकीर्तन नृत्य करने लगे । उस समय श्री उद्धवाचार्य देवजी के पौत्र विरक्त वृत्तिधारी श्री दामोदरजी मिहारी वहाँ थे, वे भी अपनी माधवेन्द्र पुरी जी से प्राप्त दीक्षा के अनुसार कीर्तन नृत्य करने लगे । श्री चैतन्य देव ने उन्हें आलिंगन किया और गुरु भाई तथा तीर्थ गुरु की तरह मान दिया चरणों में गिर गये ।

मथुरा आइया केल विश्राम स्नान । 
यमुना तट चव्वीस घाटे प्रभु केल स्नान ।।
सेई विप्र प्रभु केल दिखायतीर्थ स्थान । 
स्वायंभू विश्रान्त दीर्घविष्णु भूतेश्वर ।।
महाविद्या गोकर्ण देखला निस्तर । 
सेई ब्राह्मण प्रभु संग ते लाइल ।।
मधुबन तालबन कुमुदबन गेइला । 
देखला बारह बने ब्रज धाम ।। 

                    विश्रान्त से श्री दामोदर जी उन्हें घर ले गये, प्रसाद अर्पण आदि करके प्रभु का सस्नेह सत्कार किया । प्रभु ने उनके साथ मथुरा परिक्रमा के सभी तीर्थ दर्शन किये, मथुरा के केशव देव दीर्घविष्णु महाविद्या भूतेश्वर गोकर्ण आदि तीर्थ दर्शन किये फिर उन्हीं के साथ 12 बनोंयुक्त ब्रज की यात्रा की । श्री दामोदर देव ने उन्हैं तीर्थों कुंडों में स्नान आचमन देव दर्शन महात्म श्रवण कराया । अक्रूर घाट पर कुछ दिन निवास कर जब उनके साथी उन्हैं अपने देश ले जाने का विचार करने लगे तो महाप्रभु ने उन्हीं दामोदर जी से इसकी आज्ञा चाही । आज्ञा मिलने पर वे जब चलने लगे तो श्री दामोदर जी ने उनका साथ नहीं छोड़ा । वह मथुरिया माथुर विप्र दामोदर देव प्रयाग तक उनके साथ गये । रास्ते में महाबन के समीप अलीपुर खानपुर के बन में पठानों से संघर्ष हुआ और श्री दामोदरजी ने पठानों से मुक्ति दिलायी । वे सभी कीर्तन भक्त होकर वैश्नव पठान बन गये । बंगाल से फिर महाप्रभु ने ब्रज रसानुभव के लिय भी सनातन रूप जीव मधु रधुनाथ रघुनाथ भट्ट आदि अनेक अपने भक्त ब्रज में भेजे । 1574 वि0 में श्री सनातन और रूप गोस्वामी मथुरा आये । श्री रूप जी ने 1600 वि0 में श्री भगवान देवजी के यहाँ से ब्रज का ग्रंथ तथ अन्य अनेक ग्रंथ अवलोकन कर अपना 'मथुरा महात्म' ग्रंन्थ लिखा । सनातन जी नित्य मथुरा में पवित्र पूजनीक माथुर ब्राह्मणों के घरों से भिक्षा लेने आते थे । उन्हैं चौबे जी नारायण अझुमियाँ के घर से पहिले मदना नाम का बालक और फिर मोर मुकटवारों श्याम सुन्दर विग्रह जिसे उन्होंने मदनमोहन ही माना प्राप्त हुआ । ये घटनायें बहुत विस्तार से वर्णित हैं जिन्हें यहाँ संक्षेप में दिया जा रहा है । श्री नारायण जी अझुमियाँ की पत्नी किशोरी देवी थीं जो अपने ठाकुर मोर मुकटवारे को बड़े लाढ से लढाकर सेवा करती थीं । उनके विषय में कुछ पद्य मिले हैं – 
सनातन चरनन लोटत डोलै, पदरज सीस चढावै ।
जसुधा जैसी लाढ़ लढ़ाती, माता के गुन गावै ।
भक्त सिरोमनि ध्न्य किसोरी, श्यामसुन्दर प्रिय दीन्हों ।
जन्म सुफल करदियौ सनातन, सुजस लोक में लीन्हों ।।
मेरौ लाल सम्हार राखियो, बड़े जतन ते पाल्यौ ।
मेरौ घर सूनों भयौ बाबा, तू कछू जादू डार्यो ।।
जनम-जनम जस गांऊरी मैया, सेवा सिद्ध करूंगो ।
मदन मोहन मेरैं प्रानन प्यारौ, तन मन धन अरपूंगो ।।
तेरे घर तौ सदां रहैं है, मेरैंहू कुटी में खेलैं ।।
दूध मलाई माखन रबड़ी, भक्तन छाक सकेलै ।।
उर लिपटाइ मदनमोहन कौ, भाग्यौ रस मदमांतौ ।
रही किसोरी मौंन देखती, बस कछु नहीं जु चलातौ ।। 

                    ये ठाकुर मदन मोहन जी अब करौली में विराजते हैं जो जैपुर रहकर करौली नरेश की याचना पर जैपुर महाराज ने उन्हें अर्पित किये हैं । चौबों को वृन्दावन में मन्दिर बन जाने पर श्री सनातन जी ने यच्छव भेंट के रूप में 1 घोड़ा दुशाला जोड़ी, कड़े सिरपेच नगद दक्षिणा और जब तक वहाँ रहें नित्य मधुर प्रसाद दिये जाने का नेग बांधा जो अभी भी करौली में मान्य है ।

मल्ल विद्या

                    माथुर चौबों की मल्ल श्रेष्ठता भारत प्रसिद्ध हैं । मधु कैटभ माधव केशव बलदाऊ जी भीमसेन कंसराज चांडूल मुष्टिक शल तोशल कूट आदि परम्परा प्राचीन थी, किन्तु समय की मांग के अनुसार चौवों ने औरंगजेब काल में इसको विशेष विस्तार दिया । इस काल में हरएक घर में रोगी दुर्बल को छोड़कर प्राय: सभी पुरूष पहलवान बन गयें थे । मथुरा के इन मल्ल सम्राटों ने पंजाब, दिल्ली हरियाणा महाराष्ट्र मध्य प्रदेश बिहार दक्षिण देश सभी खण्डों के नामी-नामी पहलवानों को धूल चटायी थी । इनकी संख्या हज़ारों में है, अत: सूची न देकर कुछ ख़ास-ख़ास गुरुओं के नाम ही देना पर्याप्त होगा- अलीदत्त कुलीदत्त, रमजीलैया, हौआ चौवे, हरिगुरु, खूंगसिंह, दाऊगुरु, भंग्गाजी, उद्धवसिंह, खैला पांड़े, भगवंतचौवे, बिलासा जी, खौनाबाबा, गिल्हरगुरु, चंके बंके, खुनखुन पाई, धीरा फ़कीरा, नत्थू, पीनूरसका, बंदर सिकन्दर, जगन्नाथ उस्ताद, गलगलजी, भंवरजी, माखनजी, लछमनजी, चूंचू, गेसीलाल, देविया, महादेवा, मोथा जी, द्वारा जी, माखनजी, सिरियागुरु, जौहरी, मेघा, दंगी गुरु, मेघाजी, तपियां, खुश्याला, हिंम्मां, भौंदा, टैंउआं, गोपीनाथजी, विशनजी, बल्देवजी, विसंभरजी (सप्पे), गुलची, गुमानी, हनुमान मिश्र पिनाहट, कल्यान जोनमाने चंदपुर, कन्हईसिंह कमतरी, रौनभौंन मैंनपुरी, बेचेलाल मैंनपुरी, जै गोपाल धौलपुर आदि आदि ।

काव्य साहित्य

                    चतुर्वेदियों में कवियों की परम्परा ख़ूब फली फूली है सैकड़ों कवि हरेक शताद्धियों में हुए हैं । उन सभी का विवरण प्रस्तुत करना संभव नहीं है इनमें से कुछ प्रमुख और ज्ञातव्य जनों के नाम देना उर्चित होगा । इनमें महाकवि बिहारी लाल विश्वख्याति के शीर्षस्थ कवि हैं जो हमारी उपेक्षा के अन्ध कूप में पड़े हैं । माथुर चतुर्वेदी कवि सूची-
                    (1400-1500वि0,) जैनन्द मिहारी 1485, पद्माचारी 1489, (1500-1600 वि,) परसोत्तम बट्ठिया, परसा, 1518, मलूक चौबे 1538, छीत स्वामी 1572, छीहल 1575, विट्ठलदास चीत्तौड़ 1586, कान्हरदास चित्तौड़ 1599, कृपाराम 1598, (1600-1700 वि0), मोहन चौबे निर्गुण काव्य, केशव उचाढ़ा महाकवि बिहारी के पिता 1620, दामोदर चौवे 1622 समय प्रबन्ध, सुलखान चौवे 1620, सुखदेव माथुर 1615 (नील वानर का सेतुशास्त्र 4330 वि0पू0 रचित का अब्दुलरहीम खानखाना के लिय काव्यानुवाद), गंगाधर 1627, चतुर्भुज मिश्र 1624, मोहन चौबे 1630 सहज सनेही, माना 1631, राधा मोहन रावत 1632 मैनपुरी के राजदीवान, दत्तूकवि 1648 केशव माला, कान्हर चौवे 1657, महाकवि बिहारीलाल सतसईकर्ता 1660, उदैराम माथुर, 1660, माथुर नरसिंह 1665 मथुरा महात्म बीकानेर अनूप लाइब्रेरी में, वाण पाठक 1674 कवि चरित्र अकबर काल, चौबेलाल 1687, कवीन्द्र पाठक चन्दपुर 1668, नीलकंठ मिश्र 1648, गोविन्द अटल 1670, बूंदी के (सालिगंराम, हीरालाल, अमरकृष्ण, कृष्णदास 1615) जीवाराम चौवे मथुरा महात्म 1627, (1700-1800 वि0,) हरीबल्लभ 1701, गो0 हरिवंश शिष्य 30 हज़ार पद, हरदत्त चौब 1715 महाविद्या रत्न, कुलपति मिश्र 1717 संग्राम सार, सुखदेव मिश्र 1728, हरदेव मिश्र 1760, चन्द्रभान चौबे 1731, अखैराम मिश्र 1730, चौबेलाल ककोर 1740, कृष्ण कवि ककोर 1740 बिहार के मानजे सत सई पर छंद युक्त टीका, श्यामलाल मिश्र 1738, गणपति मिश्र 1756, कृष्णदेव कृष्ण 1750 भागवत प्रबन्ध, लच्छीराम 1756 करूणा भरण, नीलकंठ मिश्र (सोमनाथ के पिता) 1755, प्रभू 1757, रामकृष्ण 1754, लोकनाथ मिश्र बून्दी 1752, पत्नी रानी चौबे 1754, श्रीधर मिश्र 1756, भोजा मिश्र 1768, मनीराम मिश्र 1778, गंगेश मिश्र 1773, रत्तीराम मिश्र 1780, सोमनाथ मिश्र 1694 (रस पीयूष निधि रासपवाध्यायी) (1800-1900 वि0) ब्रजलाल 1807, आनंद कवि 1821 कोकसार, बालकृष्ण बसुआ 1826 बिहारी के वंशज, सूदन 1801-1812 सुसजान चरित्र, जीवाराम बूंदी 1814, मधुसूदन चौबे हाथरस 1839, रामाश्वमेध, विक्रम 1830 सांझी बत्ती सी, मधुसूदन इटावा 1839, जुगल चौबे 1836 दोहावली, कृष्ण कवि चर्चरी मैनपुरी 1853 तिमिर प्रदीप, मुरली सौरौं 1843 रत्नाबली चरित्र, राधाकिशन चित्र कूट 1849, प्यारे मिश्र 1841, वसींधर पांड़े 1804, हरप्रसाद मिश्र 1856 भाषा तिलक, धांधू चौबे 1860, गुमन कवि 1861 गुमान गढ (भरतपुर युद्ध), जवाहर तिवारी 1862 ब्रज वर्ण, सीतल दास (टटिया स्थान वृन्दावन) 1860 गुलजार चमन आदि, नाथूराम 1874, पिरभू रामकिसन छबीले चौबे 1873, बनमालजी 1882-1976, कल्याण 1880, कलीराम 1884 सुदामा चरित्र, नारायण पंडित 1882, गंगदत्त 1870, चतुर्भुज मिश्र 1880 अलंकार अमी भरतपुर बल्देवसिंह के राज कवि, डिब्बाराम पांड़े दिवेस 1897 ब्रजराज रसामृत, लालजी मिहारी 1897, शीलचन्द्र शील 1893, (1900-2000 वि0) घासीराम चन्दपुर 1908 रतलाम के राज कवि छगन मगन छंगालाल मिहारी 1132 गोविन्द माला, गंगाराम चौबे 1932 संगीत सेतु कश्मीर नरेश के लिये, प्रताप जोनमाने 1937, सभा विनोद, चौबे दत्तराम 1938 दानलीला, चतुर्भुज पाठक 'कंज' 1930-1977 यमक मंजरी, उदैराम 1934 जोग लीला, हनुमान 1930, भोलांराम मालाधारी 1930 काशीनरेश की मुहरैं दान, नवनीत कविनीत 1932 गोपीप्रेम पीयूष प्रवाह मूर्खशतक आदि, माखनचौबे पांड़े 1930 पूरनमासी लीला (करहला के रासधारियों के गुरु), हरदेवा 1934 मोहज्ञान संग्रह, गंगाधर चौबे दूसरे 1944 नागलीला, ऋषीकेश चतु0 आगरा 1998-2030 राम कृष्ण काव्य भंग का लोटा आदि अनेक, मानिक पाठक 1950 मानिक बोध, पुरूषोत्तम दास पुरा कन्हैरा 1967, खड़ग कवि 1884-1935 (दतिया के राजा भवानीसिंह के दरबार में) खड़गवानी, खरखरे छंद आदि, हितराम माथुर 1950, हरीप्रसाद चौबे 1969 महाविद्या रत्न संस्कृत वि0 वि0 बनारस के पुस्तकालय में, अमृतलाल चतुर्वेदी आगरा 1962, गोविन्द तिवारी 1967 रेल पच्चीसी, हीरालाल बूंदी 1916, चतुर्भुज रावत मैनपुरी 1960 पानांजलि आदि 65 ग्रंथ, (ख्याललावनी के उस्ताद अखाड़ा झंडासिंह मथुरा)1958 देवीलाल ककोर, भैरौसिंह ककोर, (रिसाल गिर अखाड़ा) बंसीगुरु गणेश चौवे, हरदेवा, गुलवा अझुमियाँ, मोहन पाँड़े दीवान जी मुकदम आदि, कवि भगवानदत्त 1957-2031 सुपर्णा, रामदयाल उचाढ़ा 2013 काव्य कालिंदी, क्याख़ूब चौबे रामप्रशाद 1953 दानलीला रंगीली होली, बालमुकुन्द 'मुकुन्द' मुदित मुकुन्द 1984 यमुना लहरी ब्रजभागवत आदि 84 रचनायें, विदुर देव वैद्य 1959-1992 जवकुश नाटक संगीत, जुगादी राम चौबे 1980 काव्य संग्रह मथुरा महात्म, उमरावसिंह पाँड़े 1959, गयादत्त शास्त्री गया 1974 कंस वध, गोकुलचन्द चन्दजी 2010, गोविन्द 2043 ब्रजवानी कमल सतसई, श्री नारायण चतुर्वेदी श्रीवर 1998, बालकृष्ण खिलाखिल जहाँगीर पुर एटा 1989, सीजीराम उचाढ़ा 1989 यमुनाष्टक छंद, वैजनाथ चौबे बैजू इटावा 1994 भजन पुष्पाँ जलि, बालकृष्ण हाथरस 1997, ओमीनन्द 1990, नरेन्द्रनाथ लखनऊ 1992, नवीनचन्द्र पुराकन्हैरा 1997, बिहारीलाल हीरालाल 1995 गणेश विरूदावली, घनश्याम निर्भीक 2040 समुद्रमंथन उद्धव गोपी संवाद, दीनानाथी सुमनेश 1997, (2000 से आगे 2043 तक) दूधाधारी 2000, नाथा पाठक 2010, बनमाली शास्त्री 2020, धीरजलाल जाटवारे 2010, अमृतलाल चतु0 आगरा 2005, हालस्यरसावतार जगन्नाथ प्रशाद चतु0 मलयपुर 2002, चन्द्रशेखर शास्त्री 2020, महेन्द्र 2000, राजन्द्र रंजन 2040, महेन्द्र नेह 2041, बमवटुक 2030, शैल चतुर्वेदी 2043, रामकुमार चंचल 2015, डा॰ बरसाने लाल 2043 हाथी के पंख, सुरेश हाथरस 2043,छेदालाल छेदभरतपुर 2043, घनश्याम घनश्री 225, राजेन्द्र खट्टो 2010, मनमोहन चतु0 2027, विष्णु विराट 2043, शंकरलाल काहौ 2043, विजय कवि 2043 व्यंग हास्य, कैलाशनाथ मस्त (पान वाले) 2025, गोवर्धन पुरा कन्हैरा 2010, महादेव प्रशाद वैद्य 2042, उग्रसेन निर्मल कानपुर 2042 सत्यनारायण कथा, मकुन्द महल वारे 2043, गोर्धन बुदौआ 2043 (पोरबंदर),

संगीत नृत्य अभिनय

                    संगीत- मथुरा के चौबों में संगीत के बड़े नामी कलाकार हुए हैं । चौबों को इस कला से स्वाभाविक प्रेम रहा है । इन कलाओं के कुछ विशिष्ट गुणीजन श्री छीत स्वामी 1572-1642 वि0 (अष्टछाप के कीर्तन कार), श्रीस्वामी ललित किशोरी जी 1758, श्रीस्वामी हरिदास टटिया स्थान के नित्य विहार गायक आचार्य, रागी पागी चौवे 1876, बालो चौवे हाथरस 1898, अंवाराम खंबाराम छिनोजी 1900, चन्दनजी गनपतजी 1929-30,बालजी 1970, जमना दास 1930, हरदेव बाबा 1937, बुलबुल मनोहर औघड़ 1970 (अलगोजा), रामचन्द पाठक 1860 (गणेशीलालजी के संगीत गुरु दत्तराम जी के पितामह), लालन जी 1988 (इसराज बादक), छैया नचैया गनपतजी 1980 (तबला के अद्वितीयवादक), गणेशीलालजी संगीत सम्राट 1903-1968 वि0 विश्व विख्यात संगीत आचार्य, इनके भाई चौखेलाल अजुद्धी मुकुंदी 1907 वि0, बंसीधर 1887 वि0 धनीराम 1904, भगवानदास सारंगीवादक कछपुरा 1998, चंदनजी के शिष्यवासुदेव (घुर्रेजी), शिवकुमार लछमनजी बालजी रंछोर पांड़े 1960-2010 तक, अच्चा-पच्चा, मोतीवारौ, सोहनलाल पारूआ, 1986 आदि । बर्तमान 2043 वि0 में- सुखदेव, मुरारीलाल, श्रीकांत, बिहारीलाल, लव, कुश, रमेशराजा, भोला पाठक, मधुसूदन, कृपानाथ, हरदेव, छगनलाल, मदन लाल, बिहारी मुंशी, जगदीश बंसरीवाला, भगवानदास सारंगी वादक कछपुरा, गोविन्दराम (पुच्चड़जी) इसराज मास्टर, नगरा, फगड़ा, बिदुर, केशवदेव आदि । नृत्य- नृत्य चौबे समुदाय की एक विशिष्ट कला है । इसमें विरनृत्य (नरसिंह लीला), श्रृगार नृत्य चौपाई होली की, हास्य नृत्य स्वांग भगत, अद्भुद भगत, भक्ति शांत रस रामलीला में आयोजित होते हैं । नृत्य के प्रभावी कलाकार रीछा टोली श्री गनपतजी (छैयानचैया) मानिकलाल पाठक, फैली मनोरथा दुमियाँ जगन्नाथ नन्दू चट्ठा चाऊचाचा रघुवर कंचन छोटे, नीतलाल (गनपतजी), गरूड़ पाठक, विटना पाठक, केदार, भैयालाल, आदि हुए हैं ।

                    अभिनय- भगत अब समाप्त हो चुकी हैं । संगीत नौंटंकी के सवांग यदा कदा होते रहते हैं , नाटक लवकुश नाटक के बाद नहीं हुआ । कृष्ण लीला की प्रस्तुति कुछ अधिकार लोलुप लोगों ने विखंडित कर दी । रामलीला का उद्योग बढ़ रहा है ।
रामलीला- 
                    चतुर्वेदी समाज के लिये यह एक कमाऊ उद्योग है । लगभग 32 मंडलियाँ प्रति वर्ष आश्विनमास में देश के कोने-कोने में जाकर लीला प्रदर्शन करतीं और धन तथा यश अर्जित करती हैं । अनुमान है कि प्रति वर्ष 3 लाख रुपया इस उद्योग से जो केवल 10-15 दिन ही में समाप्त हो जाता है चतुर्वेदी किशोर कलाकारों को बट जाता है । कुछ मंडल साल भर तक भी जहाँ तहाँ जाते रहते हैं । इस कला उद्योग को और अधिक ऊँचा उठाने और सुसंगठित किये जाने की आवश्यकता है ।

                    रामलीला का आंरभ मथुरा के चतुर्वेदी सुप्रसिद्ध रामभक्त श्री गिरराजदत्त जी (खपाटाचाचे बाद में ज्ञानानन्दजी कार्ष्णि) के द्वारा 1900 वि0 के लगभग हुआ इनके पुत्र श्री वैकुंठदत्तजी तथा प्रधान शिष्य श्री गोविन्दजी नायक हनुमानजी द्वारा रामलीला का परमोत्कर्ष हुआ । इनके परिवारों की मण्डली अभी भी श्रेष्ठ मण्डली मानी जाती है । इस परम्पराओं को और आगे श्री गंगेजी विष्णुजी वैजनाथ जी मथु रेशदत्तजी बासुदेव जी हरदेवजी बढ़ाते जा रहे हैं।

हर्षोल्लास और मेले

                    आमोद प्रमोद और विनोद माथुरों के जीवन के अभिन्न अंग रहे हैं । यहाँ अनेक अवसरों पर उत्सवों और मेलों का सरस आयोजन होता ही रहता है । इनमें से कुछ प्रमुख हैं –
1. कंस का मेला- कार्तिक शु0 10 को होने वाला यह मेला चौबे समाज का प्रमुख मेला है । इसमें कागज का बड़ा कंस का पुतला बनाकर कंस टीले पर ले जाया जाता है- कृष्ण बलराम की सुसज्जित सवारी हाथी पर वहाँ जाती है । चतुर्वेदी समुदाय के सभी नर नारी किशोर युवक वृद्ध राजा महाराजाओं की प्रदत्त अदभुद पोषाकों शस्त्रों विशाल लट्ठों को लेकर उन्माद के साथ नाचते कूदते गाते हुए इसमें भाग लेते हैं । बाहर कार्यकरत उद्योगी बन्धु भी इस अवसर पर आते हैं । मथुरा के वायु मंडल में इस समय बड़ा आनन्द और उत्साह रहता है । कुछ सांस्कृतिक झांकियों और सजावट रोशनी से भी वर्तमान में मेला का रूप भव्य बना है । कंस का मेला वज्रनाभ काल 3042 वि0 पू0 से है । हरिवंश पुराण के अनुसार मथुरा के यादव गण माथुरों के साथ नृत्य गान उल्लास के उत्सव मनाते थे, जिन्हें द्वारिका प्रयाण के बाद वे द्वारिकापुरी में तथा माथुर प्रजा मथुरा में मनाती थी । प्राणिनी ने अष्टध्यायी 1143 वि0 पू0 में तथा कंस वध नाटक में इसका प्रस्तुतिकरण किया है । इसमें उद्घोष की जाने वाली साखी भी शौरसेनी प्राकृत से किंचित ही रूपांतरित हैं यथा-'कंस्स बलरम्मा लै आम्मैं सखा सूरसेन '(हम) सूरसेन '।' कंस्सा मारू मधुप्पुरी आए कंसा के घर केह घव्वराए आदि । भारयुक्त हैं- इनमें मानिक
2. नृसिंह लीला- यह वीर नृत्न प्रदर्शन माथुरों के पुरूषार्थ परिक्षण का महान महोत्सव है । वैशाख शु0 14 से 3-4 तक यह मेला अनेक चौबों के मुहल्लों में चलता रहता है । यह अयोध्या पति भगवान राम के समय 4044 वि0पू0 से यहाँ स्थापित है, जब शत्रुहन द्वारा लवणासुर का वध किये जाने पर नवनिर्मित मथुरा में वे पधारे, विश्रान्ततीर्थ पर तीर्थस्नान रात्रिजागरण ब्रत किया तब निशा काल यापन के लिये मथुरा के चतुर्वेदियों ने इस वीर विजय शास्त्रीय द्वंद युद्ध शैली में प्रवर्तित इस लीला का उनके सन्मुख प्रस्तुतीकरण किया । एतिहासिक प्रमाण तथ्य यह हैं कि इस लीला में विनायक गणेश से सिंधुर दैत्य, देवी से मर्हिषासुर, हनुमान से अहिरावण अधकट्, ब्रत्तासुर से इन्द्र श्रीबाराहदेव से हिरण्याक्ष का द्वंद रात्रि में तथा निशान्त में ब्रह्मा से शंकर युद्ध पांचवा ब्रह्मा का मुख छेदन शिव से ताड़कारसुर का तथा अन्त में भगवान नृसिंह का प्रादुर्भाव होकर हिरयकशिपु का संहार होता है । त्रेता का मरू बाजा, बाराहों का वर्हा वाद्य भर्रा झांझ, नृसिंह का सिंह प्रहार मुद्राओं में शौर्य नृत्य इसकी विशेषतायें हैं तथा लीला में राम रावण, शत्रुघ्न लवण, कृष्ण कंस का युद्ध अनुपस्थित होने से इसे राम कालीन मानने की विंचार धारा को दृढ़ बल मिलता है । नृसिंह भगवान के चेहरे (मुखौटे) भी पर्याप्त भारयुक्त हैं- इनमें मानिक चौक का 15 सेर चौबच्चा का 10 सेर मारू गली का 8 सेर गोलपारे का 5 सेर बताये जाते हैं । चौबच्चा का चेहरा मुलतान से 1710 वि0 में शाहजहाँ काल में चौबे खड़गराम पाठक लाये थे । कहते हैं । मुलतान के हाकिम अबुल फ़तह ने हिन्दुओं के देवता नरसिंह की असलियत की परिक्षा करनी चाही । उसके निर्देश से पंजाबी पहलवान गवरू को हिरण्याक्ष बनाने के लिये ख़ूब बादाम घी आदि खुराक खिलाकर नरसिंह को पराजित करने को तैयार किया गया । उस समय नरसिंह के स्वरूप के लिये उससे भी अधिक बलवान पहलवान की खोज हुई पंजाब में सिख औरंगजेब विरोधी थे, वे पहलवानों योद्धाओं पटेवाजों का बड़ा सम्मान और पोषण करते थे, मथुरा के चौबे पहलवान इसी आधार से पंजाब जाते रहते थे । खड़गराम पाठक भी वहीं थे, वे बुलाये गये और उन्हें नरसिंह का लीला पद अर्पित किया गया । लाखों दर्शकों की अति उत्सुक भीड़ में चौबेजी ने देव आवेश में आकर हिरण्याक्ष को चिड़िया की तरह मरोड़ कर उछाल कर गोद में ले लिया और उसका तीक्ष्ण नखों से उदर विदीर्ण कर डाला । यह देख उसके पक्ष के गुंडे पहलवानों ने चौबे को मार डालने का गिरोह बनाया, ज्ञात होते ही खड़गजी रातों रात उस मुखौटे को कपड़े में लपेट पीठ से बांध वहाँ से मथुरा भाग आये और यहाँ अगले वर्ष से उसी चेहरे से लीला प्रदर्शित की । ये मथुरा से चन्दपुर जाकर भी कुछ काल अपने परिवार के पाठकों के साथ रहे थे । वर्तमान में इनके वंश के 'खरगराम के पाठक' मथुरा में चौबच्चा मुहल्ला में अभी रहते हैं । अन्य मेलों में- होली की चौपई (नृत्य गान), संवत्सर के फूल डोल, यमुना छट, रामनवमी, आषाढी दंगल, राधा अष्टमी वृन्दावन टटिया स्थान, रामलीला, यमदुतिया, गोचारन, अखैनौमी, देव उठान (परिक्रमायें), आदि हैं । प्राय: सभी मेले सुरीली भांग ठंडाई, उत्तम मिष्टान्न भोजन, चीज चट्टोंनी, सैर सपाटे के लिये आकर्षण के केन्द्र हैं जिन्हें आज की नई पाश्चात्य सभ्यता में पिकनिक का खोल उढाया जा रहा है ।समय की मार से मधुवन, सतोहा, गरूड़-गोविन्द, करौटनी गोर्धन, द्वारिकाधीश के होरी खेल के दर्शन, बन विहार आदि मेले मंहगाई के पेट में समा गये हैं ।

विव्दद्वर्ग और विशिष्टजन

                    माथुरों में विद्वानों और गुणीजनों की बहुत संख्या है । चतुर्वेद विद्यालय के द्वारा संस्कृत पण्डितों की बहुत बृद्धि हुई है, तथा ये मथुरा बृन्दावन गोकुल दाऊजी जतीपुरा, गोवर्धन बरसाना नन्दगाँव आदि अनेक क्षेत्रों के संस्कृत विद्यालयों में प्रधानाध्यापक और अध्यापक हैं । इनमें वेदपाठी, कथा वाचक, कर्मकाँडी, ज्यौतिषी, आयुर्वेदज्ञ, सिद्ध महात्मा, तंत्रमंत्रज्ञ, अंग्रेजी शिक्षा पारंगत, प्रोफेसर, डाकटर, एडवोकेट, वैरिष्टर, इंजनीयर, राजकीय सेवा नियुक्त, व्यापारी, उद्योग पति, वित्तीय प्रबन्धक, निर्देशक और सलाहकार, वैज्ञानिक तकनीशियन, सैनिक व पुलिस उच्चाधिकारी , मुनीम, मेनेजर, कार्याधिकारी कुशल और प्रतिष्ठा प्राप्तजनों की संख्या हज़ारों की संख्या में है । अस्तु कुछ अतिविशिष्ट उल्लेखनीय महानुभावों के नाम निर्देश ही यहाँ पर्याप्त होंगे ।
विद्वद्वर्ग- श्री महाप्रभु उद्धवाचार्यदेव, भगवान जी मिहारी, श्री शंकर मुनिजी, श्री शीलचंदजी, श्री नन्दजी, श्री वासुदेवजी, श्रीकेशवदेवजी, रंगदत्त गंगदत्त, बन्नाजी, बनमालजी, गयादत्तजी शास्त्री, गुलवा पंडित, श्रीवरजी, हरिहरजी, रंछोरजी, केशवदेव पांड़े, श्री जंगीरामजी (भागवत कंठाग्र पढाने वालेद्ध, बिहारी लाल शास्त्री, बिदुरजी पाठक, हरदेवजी (हाबू पंडित), बाला मौरे (भागवत वक्ता), बनमाली शास्त्री, जगनजी, गोर्धनजी शास्त्री, मगन पंडित, सैंतीरामजी, मदननरसीजी, अर्जुनजी, सोहनलालजी पांड़े, मालीराम, छंगालालजी, जनार्दनजी, वामनजी, वासुदेव शास्त्री, अनंतरामजी, पं0 छप्पाराम, विश्वनाथ शास्त्री, रिषीराम रामायणी, गोपालचन्द जी बड़े चौबे, राधाचन्दजी, अलवेली चन्दजी, वर्तमान में भी सैकड़ों की संख्या में चतुर्वेदी विद्वान हैं । भगावत और रामायण पाठियों की तो कोई गिनती ही नहीं- सहस्त्र भागवत पाठ कराने वाले श्रद्धावान को सहस्त्र से, भी अधिक पंडित केवल माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों में ही मिल सकते हैं । चतुर्वेद विद्यालय की छत्र-छाया में यहाँ संस्कृत विद्वानों की अभूत पूर्व बृद्धि हुई है ।
ज्योतिष- ज्योतिष विद्या के अनेक धुरंधर मनीषि माथुरों में हुए हैं जिनमें कुछ नाम यहाँ दिये जा रहे हैं- नृसिंह दैवज्ञ भानुचन्द दैवज्ञ अकबर के दरवारी ज्योतिषी, रमामेला पंडित, भगवानजी (इनने ज्योतिषी के अनेक दुर्लभ ग्रंथ लिखे हैं विदेशी यूनानी ओलंपिया देश की ज्योतिष का ओलंपिक शास्त्र, अरवी का रमलशास्त्र इनका लिखा तथा अनेक ग्रंथ-यंत्र आदि हमने पंडित प्रयागदत्त के पास स्वयं देखे हैं) ज्योतिर्विद पं0 शंभूरामजी (महान गणितज्ञ), नारायण पंडित, चन्द्रशेखर शास्त्री, जगन्नाथ पंडित ग्वालियर राज ज्योतिषी, प्रेमसिंह पांड़े, तालगांव, नरोत्तम मिश्र, नीकंठमिश्र, (ताजिक नीकंठीकर्ता) घंघलजी, गणेशी (तपियाँ) आदि ।
आयुर्वेद-आयुर्वेद भी हमारी सिद्ध विद्या है । इसमें प्रमुख विद्वानों के नाम हैं- हरप्रसाद जी (1822 अनूप शहर में हकीम अफजल अली से शिक्षा) इनके पुत्र सुआलाल हकीम (राजा अलवर को पुत्रोत्पत्ति), मोहन, सोहन (हिकमतप्रकाश हिकमत प्रदीप रचना), डोरा से नाड़ी निदान भैंस का उचित निदान बतलाया, घोलम मोलम, अच्चा बच्चा जी वैद, कूकाजी, नटवर जी, तप्पीराम, तपियाजी, चौबे गणेशीलाल संगीतज्ञ (चिकित्सा सागर विशाल ग्रंथ लेखक), विदुरदेव, बाबूदेव शास्त्री (चतु0 विद्यालय) लालाराम वैद्य, झूपारामजी, चक्रपाणि शास्त्री, राधाचन्द्र, मदनमोहन मुन्शी, गोपालजी, गरूड़ध्वज आदि । यंत्रमंत्र- श्री शंकर मुनिजी, श्री शीलचन्दजी महाराज, श्री बासुदेवजी, श्री केशवदेवजी, श्री करूणा शंकरजी, श्री वृन्दावनजी, बटुकनाथजी, तुलारामजी, विष्णुजी, गणेश दीक्षित, गंगदत्त, कवि नवनीत, श्री बद्रीदत्तजी महाराज, कामेश्वरनाथजी, मूसरा धार चौबे, शिंभूराम चौधरी, लक्ष्मणदादा (गंगदत्त रंगदत्त के पिता), आदि ।
                    कर्मकांड वेद यज्ञ-विशिष्टजन नरोत्तमजी, सोहनलालजी, भगवानदत्तजी, याज्ञिक, लक्ष्मणदत्त शास्त्री, बिहारीलाल याज्ञिक, लड्डूगोपाल शास्त्री, लक्ष्मीनारायण वदेनिधि, प्रहलादजी, कन्हैयालालजी, धीरजजी सामवेदी, गोकुलचंदजी, हेलाचेला, बालाजी मौरे, धीरजजी प्रयाग घाट, कैलाशनाथ, ब्रह्मदत्त (लिंगाजी), टिम्माजी, गिरिराज शास्त्री, हुदनाजी, सैंगरजी, आदि ।

गुरुगादी पदासीन ग्रहस्थ आचार्य

                    श्री गोपाल मन्दिर पीठ के – आचार्यों में श्री मौजीरामजी, मठोलजी, बंशाजी, श्री नन्दनजी महाराज (इनसे शास्त्रार्थ में पराजय के भय से स्वामीदयानंद रातोंरात भाग गये थे), श्री योगीराज बाबा रज्जूजी, 1920 वि0 जन्म (योगचर्या सिद्ध दिव्य दृष्ठा), श्री विष्णुजी महाराज जन्म 1956 वि0 )गोपाल वेद पाठशाला संस्थापक) तथा वर्तमान में श्री विठ्ठलेशजी महाराज इस गादी के सरल शुद्ध विद्वान इष्ट सेवी और आदर्श चरित्र हैं । चौबों में इनके हज़ारों शिष्य हैं ।
                    श्री विद्या आदि पीठके – लोक वंदित सिद्ध आचार्यों में दक्ष गो़त्रिय श्री मकरंदजी महाराज 1742 वि0, श्री पतिजी 1772, श्री मोहनजी 1794, श्री गुरुशंकर मुनिजी 1822, श्री चेतरामजी 1850, स्वनामधन्य श्री शीलचंदजी बाबा गुरु 1861-1905, श्री वासुदेवजी 1887, श्री केशवदेवजी (भैयाजी) 1928, श्री शिवप्रकाशजी 1960, श्री करूणा शंकरजी 1968 वि0, आदि महानुभाव हुए हैं ।
                    श्री शंकर मुनिजी को जयपुर के जगन्नाथ पंडितराज सम्राट दीक्षित ने श्री विद्या यंत्रराज तथा पूजारत्न ग्रंथ समर्पित किया । इन्होंने ही श्री महाविद्यादेवी मन्दिर का शिखरबन्ध निर्माणकरा कर दीक्षित महोदय को महाविद्या उपासना की सिद्धि उपलब्ध करायी । श्री शीलचन्दजी की जिव्हा पर वाग्भज बीज मंत्र अनूप शहर में गंगा तट पर श्री गंगा माता ने स्वयं प्रगट होकर स्थापित कर बाणी सिद्ध महापुरूष बना दिया था। इनके सैकड़ों शिष्य चौबों में तथा अन्यत्र हुए है । श्री महाविद्या जी की नव पीठ प्रतिष्ठा, दशभुजी गणेश स्थापना, विश्रान्त मुकट मन्दिर तथा श्री द्वारिकाधीश स्थापना आदि अनेक महान कार्य इनके द्वारा हुए हैं । गंगदत्त रंगदत्त, ब्रह्मानन्द सरस्वती, बूंटी सिद्ध, गणेशीलाल संगीत मार्तड इनके शिष्य थे । श्री गोपाल सुन्दरी और पीतांबरा तथा वाला पद्धतियाँ इनकी रचित हैं । श्री वासुदेव बबुआजी की जिव्हा पर बाग्वादिनी सरस्वती माता विराजती थी अर्कीमन्डी के राजाध्यानसिंह, काम बन के गो0 देवकीनन्दनजी, काशी नरेश आदि इनके अनेक भक्त और शिष्य थे । श्री केशवदेव भैयाजी असाधारण तेजस्वी और शास्त्र प्रवक्ता थे । इनका नित्य आन्हिक बहुत विस्तृत तथा ग्रंथ प्रणयन अति गहन चिंतनमय था । आपकी कृपा से गो0 गोपाललालजी कठिन रोग से मुक्त तथा भरतपुर के धाऊजी को बृद्ध अवस्था में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई । आपकी अनेक उपासना पद्धति श्री बालात्रिपुरसुन्दरी, बगलामुखी, भुवनेश्वरी, माता आदि की रचित हैं । श्री शिवप्रकाशजी लाल बाबा गम्भीर अल्पभाषी विद्वान थे । कलकत्ता के कार्पालक आचार्य चांवर्दिया ओझा को आपने तंत्र शास्त्र में नतमस्तक कर उससे श्री यंत्र भेंट में प्राप्त किया । श्री करूणा शंकरजी सार्वदेशिक विद्वान थे- राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रशादजी उप राष्ट्रपति बासप्पादानप्पा जत्ती राजपाल कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी महोदय तथा मथुरा विद्वत्सभा, काशी तांत्रिक सम्मेलन, संस्कृत अकादमी उ0प्र0, गायत्रीयागदतिया, ललितात्रिपुरसुन्दरी पीठ उरई, गंगेश्वरानन्द वेद पीठ आदि से आप सम्मानित किये गये । आपके रचित तंत्र के अनेक ग्रंथ हैं । बर्तमान में इनकी गादी पर श्री पृथ्वीधरणजी विराजमान हैं जो सीधे सरल सौम्य और संकोची गम्भीर प्रकृति के हैं । श्री लालबाबा महाराज की प्रधान गादी पर श्री लक्ष्मी पतिजी (मुन्ना बाबा) विराजमान हैं, जो एकनिष्ठ उपासना तंत्र-ज्ञान और तेजस्विता की मूर्ति हैं । स्नेह भाव और सौहार्द्र इनने स्वाभाविक ही पाया है । श्री लालबाबा की पूज्य मातु श्री माया देवी (महारानीजी) भी परम बिदुषी कृपानिष्ठ और सर्व कल्याण भावना मयी महान आत्मा थीं, जिनके आशीर्वाद प्राय: सिद्ध और मंगलकारी ही होते थे । इस गादी के हज़ारों शिष्य चौबे तथा अन्य लोग हैं । इस गादी के शिष्य धूजी चौबे ने घोर अकाल की आशंका वाले अवर्षण काल में मंत्र बल से इन्द्र लोक जाकर इन्द्रदेव द्वारा मूसलाधार वर्षा करायी जिससे उनका नाम ही मूसराधार चौबे पड़ गया ।
श्री यमुनाजी धर्मराज पीठ-श्री शंकर मुनिजी के वंश की दूसरी गादी में श्री आसारामजी, हरिदत्तजी, दामोदरजी, (टुन्नौजी) श्री बद्रीदत्तजी श्री पूर्णानन्दजी तथा अब इस वंश में श्री कामेश्वरनाथ जी (दिल्ली गौरीशंकर मन्दिर) तथा श्री नित्यानन्दजी (दिल्ली राम मन्दिर) के व्यवस्था आचार्य हैं । यहाँ भी प्राचीन श्री शंकर मुनिजी द्वारा अर्चित श्री यंत्र की तांत्रिक उपासना है ।
                    श्री पीठ रत्न कुंड- इस शक्ति पीठ के प्रथम आचार्य श्री गंगारामजी (घघलजी) 1820 वि0 थे जो रीवांनरेश नघुराज सिंह के तीर्थ गुरु थे । अपनी श्री विद्या साधना से इनने राजा का अधमकुष्ट रोग दूर किया और भेंट में 2 गाँव पाये । इनके पुत्र सूरतरामजी 1853, तुलारामजी 1881, श्री बृन्दावनजी 1912 बहिन श्री यशोदादेवी 1914, श्री बटुकनाथजी 1944 भाई श्री भगवानजी 1946 तथा वर्तमान में तंत्र शास्त्र के मान्य विद्वान श्री विष्णुजी हैं । इस परिवार के प्राय: सभी महानुभाव तंत्र शास्त्र श्री यंत्र के एक निष्ठ आराधक ज्योतिविंद पुराणविद् तथा शाक्त संप्रदाय के प्रभाव शाली आचार्य रहे हैं । श्री विष्णुजी ने काशी के तांत्रिक सम्मेलन में मथुरा के विद्वन्मंडल का नेत्रिटत्व किया तथा यमुना पार की पैंठ बस्ती में जड़िया परिवार द्वारा श्री विद्यापीठ की स्थापना करायी है । श्री भगवानजी के कुल रत्न सपूत वर्तमान में टटिया स्थान की गादी पर हैं । जिनके हज़ारौं माथुर शिष्य प्रशिष्य हैं। विदुर जी तांत्रिक की बैठक-इस स्थान के आचार्य सुप्रसिद्ध भारत विख्यात विद्वान श्री गंगदत्त रंगदत्त के वंशज श्री विदुर दत्तजी तांत्रिक थे । ये श्री यंत्र उपासक एक चमत्कारी सिद्ध पुरूष थे । इनने अनेक लोगों को संकटमुक्त और दुर्गाभक्त बनाकर मंत्र दीक्षित किया था । वर्तमान में इस स्थान पर कोई प्रभाव शाली आराधक नहीं हैं ।

माथुर समाज के विशिष्टजन

                    दानवीर श्री बैजनाथजी इटावा (चतुर्वेद विद्यालय को अपना लाखों का सर्वस्वदान), चौबे रामदासजी, श्री डिब्बारामजी (जगद गुरु श्री शंकराचार्य स्वामी के पूज्य, चतुर्वेद परिषद के प्रथम अध्यक्ष) , श्री नन्दजी महाराज, श्री शीलचंदजी वासुदेवजी केशवदेवजी, महामहोपाध्याय श्री गिरधर शर्मा जी, राजा जय कृष्णदास, कुंवर जगदीशप्रशाद परमानन्द जी कृष्णानन्दजी, श्री ऋषीकेश चतुर्वेदी, बन्नाजी बंसाजी पाठक, छप्पारामजी, गजाधर प्रशादजी (चतुर्वेदी महासभा अध्यक्ष), तपस्वीराम लालगंजवारे, चतुर्भुजजी जाटवारे, गणेशी लाल जी चौधरी, गैंदाजी ककोर सर्दार, अलखूराम मिहारी, सर्दाररामलाल मिहारी, शम्भूनाथजी मैम्बर, होली पांड़े, झाऊ दामोदर चौबे, बुचईसिंह, बिक्रमाजीत कमलाकर पांड़े काजीमार, हरगोविन्द श्री वैष्णव, श्री मन्नारायणजी, चौबे द्वारिकानाथजी (द्वारिकाधीश संस्थापक), द्वारिकाप्रशादजी ।

राजकीय सन्मानित जन

                    रोहनलाल चतु0 केन्द्रीय उप रेल मंत्री, कुंवर जगदीशप्रसाद आई0सी0एस0 मुख्य सचिव वायसराय की एक्जीक्यूटिव कौंसिल के मैम्बर उ0 प्र0, श्री नारायण जी भू0 पू0 शिक्षा निर्देशक उ0 प्र0 आकाशवाणी उप महानिदेशक, दीवान परमानन्दजी झालावाड़ के, रघुनाथदासजी कोटा राज्य दीवान, रा0 ब0 विश्वम्भरनाथ कोटा राज्य दीवान, यादराम चौबे भरतपुर राज्य मंत्री, मुन्नालालजी सूवा ग्वालियर, पृथ्वीनाथजी आई0 ए0एस0 शिक्षा सचिव उ0 प्र0, चंपाराम गिरीशचन्द्र आई0 ए0 एस0 चांसलर गोरखपुर विश्व विद्यालय, भरतचंद्र म0 प्र0 राज्य उपसचिव, मनोहरदास डिवाई जंगलात के सर्वोच्च अधिकारी, शम्भूनाथजी एस0 पी0 पद त्याग वर्तमान संसद सदस्य, भूपेन्द्रनाथ थर्ड सिक्योरिटी फोर्स के डी0 आई0 मनोहरलाल सिक्योरिटी आफीसर, त्रिलोकीनाथ चतु0 केन्द्रीय लेखा निरीक्षक, सचिव केन्द्रीय गृह विभाग, डिप्टी राधेलाल रजि0 कोआपरेटिव सोसाइटी उ0 प्र0, देवकी नन्दनजी बूंदी दीवान, सर लक्ष्मीपति जी सर्वोच्च चीफ कमिश्नर रेल विभाग, जनरल मैनेजर हिन्दमोटर्स, सतीशचन्द्र सदस्य केन्द्रीय रेलवे बोर्ड, कैलाशचन्द पाठक सीनियर गवर्मेंट रेलवे इन्सपेक्टर, प्रभातचंद्र मिश्र महाप्रबन्धक उत्तर रेलवे, मृगेन्द्र नाथ आई0 ए0 एस0 अधिकारी केन्द्र सरकार, रा0 व0 विश्वंश्वरदयाल रेवेन्यू कमिश्नर, बद्रीनाथ आई0 ए0 एस0 पुरातत्व अधिकारी मद्रास, ललित किशोरजी राजस्थान, मंत्री, सतीशचन्द्रजी मंत्री महाराष्ट्र प्रदेश ।
                    सेना पुलिस विभाग- डी0 पी0 मिश्र मेजर जनरल, मोहनस्वरूप एयर मार्शल, सोहनलाल मिश्र नौसेना कमांडर, जगदीश पाठक एयर इन्डिया फ्लाइट, ज्वालाप्रशादजी जटवारे मथुरा के ऐसे विद्वान थे जिन्होंने सर्वप्रथम अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर भरतपुर नरेशों और उनके राजकुमारों को अंग्रेजी पढ़ाई । नरोत्तमदास आई0 जी0 हैद्राबाद, जयेन्द्रनाथ पुलिस कमिश्नर दिल्ली, डाइरेक्टर जनरल पुलिस उ0प्र0 ,सुशीलकुमार आई0 जी0, भरतचन्द मिश्र आई0 जी0 प्र0, फणीचन्द्र नाथ आई0 जी0 मध्य प्रदेश ।
न्याय- न्याय मूर्ति प्यारेलालजी जज बीकानेर, श्री ब्रजकिशोरजी इन्दौर, श्री मिश्रीलालजी प्रयाग उच्च न्यायालय, श्री शम्भूरामजी जज मध्यप्रदेश, संपादक उच्चन्यायालय निर्णय पत्रिका, समाज में बैरिष्टर वकील एडवोकेटों की संख्या भी बहुत विस्तृत है । इंजनीयर और तकनीकविद्- चंद्रसेन चौबे कलकत्ता यंत्र आविष्कारक हिन्दीबंगवासी, में, मुक्ताप्रसाद, अविनाशचन्द्र, उजागरलाल, रामस्वरूप, दिनेश चन्द्र, राकेशकुमार । 30 वि0 पू0 में माथुर भीमसेन ने मथुरा में विश्वकर्मा शिल्प शास्त्र का 1 लाख 18 हज़ार श्लोकों में प्राक्रत से पाली में अनुवाद शुंगकाल में किया जो 12 विभागों में था । सुखदेव माथुर के 1615 वि0- के राम काल के नलनील बानरों के सेतु शास्त्र का अब्दुलरहीम खानखाना के अनुरोध पर 15, 480 श्लोकों में अनुवाद किया इस पर खानखाना 16 हज़ार मुहरैं उन्हें भेटकीं । इस ग्रंथ में सेतु, जलवंध, सरिता, नहरें, तड़ाग कूपवापी आदि निर्माण का विधान था । चिकित्सा- डा॰ संपतराम, डा॰ कृष्णचन्द्र, बालस्वरूप (नागपुर), उमेशचन्द्र महावीरप्रशाद (कनाडा में), राजीव रंजन, बीणांदेवी ।
शिक्षा- श्री नारायणजी, सालिगराम, दीनानाथ, बरसानेलाल, ओंकारनाथ, प्रयागनाथ, प्रो0 चंपाराम, विश्व विद्यालयों में अनेकों डीन रीडर चान्सलर प्राध्यापक हैं ।

साहित्यकार लेखक सम्पादक- श्री नारायणजी, बनारसीदास, जवाहरलालचतु0, दत्तराम चौबे, नारायण दत्तपाठक, द्वारिका प्रशादजी, चन्द्रशेखर शास्त्री, राधाचन्दजी, जगदीशप्रशाद, रामेश्वरप्रसाद, हास्य रसावातार जगन्नाथप्रशाद, प्रभु दयाल पांड़े प्रथम पत्रकार सम्पादक हिन्दी बंगवाली कलकत्ता, मदनलाल पत्रकार, युगलकिशोरजी, रघुनाथप्रशाद शास्त्री, सबल किशोरजी, बासुदेव कृष्ण, रामस्वरूप, बालमुकुन्द, माला रविन्दम्, राजेन्द्र रंजन ।

श्री विश्रान्त तीर्थराज

                    ब्रजमंडल की राजधानी श्री मथुरापुरी में विश्रान्त तीर्थ विश्व के तीर्थों का मुकुटमणि सब तीर्थों का पिता परम पुरातन तीर्थ हैं । सतयुग के आरंभकाल में भगवान श्री आदि नारायण (गतश्रम नारायण) प्रभु ने अपने दो अंगभूत देवों केशव माधव के द्वारा महामल्ल मधु कैटभ का संहार कराकर चतुर्मास की विश्राम निद्रा के साथ यहाँ विश्राम किया- सूर्य सुता श्री यमुना महारानीजी ने अपने भाई यमराज के सत्कार में उनके साथ स्नान किया तथा महामान्य श्री बसुदेव जी ने अपने लाढ़ले पुत्रों श्री कृष्ण बालराम के घर आने पर पूर्व संकल्पित 10 हज़ार गोऐं माथुर ब्राह्मणों को दान में दीं । वे यहीं यादवों की कुकुरपुरी (ककोरन) में कंस के कारागार में बन्द रहे थे अस्तु यहीं समीप में कारामहल नाम की प्राचीन काराग्रह स्थली में श्रीकृष्ण के जन्म स्थान की स्थली है । जिसे लोग आज भी नहीं जानते ।
                    काल पुरूष का दान- विश्रान्त के महादानों के संदर्भ में काल पुरूष दान की प्राचीन चर्चा है । दक्षिण देश का राजा गौथमां यह दान करने सुवर्ण निर्मित काल पुरूष मूर्ति को लेकर मथुरा आया बात बहुत पुरानी है । इतिहास विमर्ष से ज्ञात हुआ है कि यह 170 विक्रम संवत में हुआ । तब गोदावरी तट की काकुलमपुरी और दक्षिण पैंठण में सात वाहन (शालि वाहन) बंशी गौत्तमीपुत्र, शातकर्णी का विशाल साम्राज्य था । उसके लाढ़ले राजकुमार वाशिष्ठीपुत्र पुलुमायी को आसाध्यरोग लगा दक्षिणी पंडितों ने उसे काल ग्रास योग बताया और उसका उपाय एकमात्र काल पुरूष का दान ही ऐसा निश्चित किया । तब 21 मन सुवर्ण की रत्नों से जड़ी काल पुरूष की मूर्ति बनवाई, गयी, और पंडितों ने उसमें विधिवत काल पुरूष की प्राण प्रतिष्ठा की ।
                    प्रथम यह काल पुरूष काशी ले जाया गया- एक महीने तक वह भयानक दुर्जय मूर्ति काशी के गंगा तट पर खड़ी रही- कोई ब्राह्मण उसका दान न ले सका । लोग दूर से ही उसका कराल भयोत्पादक रूप देखकर कांप उठते थे तथा जो सामने आकर आँख मिलाता वह मूर्छित होकर प्राण हीन हो जाता था । तब काशी से यह महाकाल मथुरा लाया गया उस समय मथुरा के माथुर ब्राह्मणों के तप तेज की सारे देश में प्रसिद्धि थी । महाराज गौत्तमीपुत्र ने कहा- 'ब्राह्मणों के ब्रह्मतेज की आज कठिन परिक्षा है' । 15 दिवस यहाँ भी किसी का इस दान को लेने का साहस नहीं हुआ, तब माथुरों ने बिचार किया-'मथुरा की बात जाती है, इस समय सिद्धपति गुरु को किसी तरह लाना चाहिये- उन्होंने 24 गायत्री मंत्र के कठिन अनुष्ठान किये हैं ।' बहुत प्रयत्नों के बाद किसी तरह वे महात्मा पधारे । उन्होंने राज से संकल्प लिया और गायत्री मंत्र से प्रथम बार जल छिड़का तो मूर्ति का रंग श्याम पड़ गया-दूसरी बार में काल पुरूष का सीस नीचे झुक गया और तीसरे मार्जन में उसके खंड खंड होकर बिखर गये । राजा और दर्शक लोग चकित रह गये और भारी जय जय कार होने लगी । माथुर मुकुट मणि धौम्य गोत्री श्री सिद्धपतिजी ने यमुना जल से मूर्ति खण्डों को धुलवाया और उससे 3 महासंभार युक्त गायत्री माता के अनुष्ठान गायत्री तीर्थ (गायत्री टीला) पर किये । इसी स्थान पर पीछे तपस्वी रूप बूटी सिद्ध ने गायत्री मंत्र सिद्ध किया । यह स्थान अभी भी माथुरों की सेवा साधना के अन्तर्गत है ।
                    1584 वि0 में उदयपुर चित्तोड़ के राना सांगा (संग्रामसिंह) ने बावर की मुग़ल दासता से मातृभूमि का उद्धार करने को स्वाधीनता प्रेमी राजपूत राजाओं का संघ मथुरा में बनाया, और एक बिशाल सेना संगठित कर फ़तेहपुर सीकरी के पास बावर से लोहा लिया । वास्तव में भारतीय स्वाधीनता का यह सबसे पहिला एतिहासिक अभियान था राणा सांगा ने तब मथुरा में विश्रांत पर प्रभूत द्रव्य दान किया और उससे विश्रान्त तीर्थ पर शोडष दल कमल चौकी, आरती की चौंतरी तथा ककइयाईष्टों की घाट की सीढियों एवं कुछ तिवारियाँ बनवाई, जिनके कारण विश्राम घाट का नाम सांगा नाम तीर्थ कहा जाने लगा । 1622 वि0 में जैपुर के महाराज मानसिंह ने अपने पिता बिहारीमल का तुला दान कराने को जैपुर का तुला द्वार बनवाया जो कालांतर में ढह गया । जैपुर के राजा कंसखार के समीप हाथीघोड़ा बारी लाल पत्थर की विशाल हवेली में रहते थे और बिहारी मल की रानी के सती होने का सतीबुर्ज निकट ही यमुना तट पर है ।
                    1671 वि0 में ओरछा नरेश बुन्देले बीरसिंह ने अपार सुवर्ण राशि (81 मन) से विश्रान्त पर तुला दान किया । इस सुवर्ण राशि को उनके तीर्थ पुरोहित गोविन्द जी ने ठुकरा दिया । किंबदंती है कि राज ने दान देते समय कुछ गर्वाक्ति पूर्ण कटु शब्द कहे जिससे पुरोहितजी रुष्ट हो गये और द्रव्य राशि का त्याग कर दिया । परन्तु एतिहासिक साक्षी कुछ और ही चित्र प्रस्तुत करती है । बीरसिंह बुंदेला शाहजादे जहाँगीर का कृपा पात्र था उसकी अकबर से नहीं बनती थी । अकबर का विश्वस्त बजीर अबुलफजल इन दोनों के प्रतिकूल बादशाह के कान भरता रहता था । इस काल में अबुलफजल दक्षिण से सुलतानी राज्यों को सम्हालता अपार सुवर्ण और रत्न राशि लेकर आगरा आ रहा था । जहाँगीर ने बुंदेले को संकेत दिया और राजा ने ग्वालियर केसमीप अबुलफजल की सैनिक टुकड़ी को खदेड़ कर बड़ी निर्दयता से बृद्ध अबुलफजल को कत्ल कर दिया । सारा अटूट सुवर्ण उसके हाथ लगा । धन लूट कर बुन्देला बहुत चिंतित हुआ- विद्वान धार्मिक शांत चित्त निरपराध विनय करते बुजुर्ग की हत्या उसे रह कर कचोट रही थी । नींद में अकसर उसे सिर नीचा किये कराहते अबुलफजल की रूह सामने दीखती थी । उसने वह द्रव्य अपने खजाने में नहीं रखा । पंडितों से पूछा तो उनने भी इस धन को 'सत्यानाशी कौड़ी' बताया और इसे किसी तीर्थ में लगादेने की सलाह दी । 
                    राजा तब सारा सोना लेकर सप्तपुरी शिरोमणि मथुरापुरी में आया । उसने तुलादान के प्रयास से सारा सोना दान कर अपने शरीर में व्याप्त बृद्ध हत्या को शमन करने का संकल्प लिया । गुरु गोविन्दचन्ददेव जी को यह जब ज्ञात हुआ कि यह 'हत्या की कौड़ी' है तो उन्होंने बहाना पाकर उस सारे द्रव्य को सहज ही ठुकरा दिया । तब राजा के उस द्रव्य को किसी चौबे ने भी नहीं लिया, और राजा ने केशव मन्दिर, बरसाना मंदिर, भानोखर, पान सरोवर (नन्द गाँव) गोपाल सागर समुद्र सागर नाम के बिशाल तालाब बनवाकर उस द्रव्य को ठिकाने लगाया । गोविदचन्दजी के इस त्याग की प्रशंसा में चतुर्वेदियों के कवियों ने कई कवितायें रची हैं ।
1908 वि0 में रीवाँ नरेश श्री रघुराजसिंह जी ने तुलाद्वार निर्माण कर रजत तुलादान किया । 1902 वि0 में शिंदे माधव राव (महादजी) रघुनाथ राव सीतावाई ने मुकट मंडल का मंदिर बनाया जिसके कागज परिशिष्ट में हैं । 1962 वि0 में काशी नरेश श्री प्रभु नारायण सिंहजी ने तुला द्वार बनाकर 3।। मन सुवर्ण से तुला दान किया तथा 1969 वि0 में उनकी पत्नी महारानी साहिबा ने अपना पृथक तुला द्वार बनवाकर तुला दान किया । इस तुला दान की मुहरैं समस्त चतुर्वेदियों को घर घर बाँटी गई ।

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