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सोमवार, 25 नवंबर 2013

chhand salila: PREMA CHHAND - sanjiv

छंद सलिला%

प्रेमा छंद

संजीव
*
१. मिले&जुले तो हमको तुम्हारे हसीं वादे कसमें लुभायें
   देखो नज़ारे चुप हो सितारों हमें बहारें नगमे सुनाये
   *
२. कहो कहानी कविता रुबाई लिखो वही जो दिल से कहा हो
    देना हमेशा प्रिय को सलाहें सदा वही जो खुद भी सहा हो
   *
३. खिला कचौड़ी चटनी मिठाई मुझे दिला दे कुछ तो खिलौने
   मेला लगा है चल घूम आयें बना न बातें भरमा रे!
****

गुरुवार, 21 नवंबर 2013

virasat: dwandw geet - ramdhari singh 'dinkar'

विरासत:
द्वन्द्वगीत / 
रामधारी सिंह
"दिनकर" / पृष्ठ - १
*
(१)
चाहे जो भी फसल उगा ले,
तू जलधार बहाता चल।
जिसका भी घर चमक उठे,
तू मुक्त प्रकाश लुटाता चल।
रोक नहीं अपने अन्तर का
वेग किसी आशंका से,
मन में उठें भाव जो, उनको
गीत बना कर गाता चल।
(२)
तुझे फिक्र क्या, खेती को
प्रस्तुत है कौन किसान नहीं?
जोत चुका है कौन खेत?
किसको मौसम का ध्यान नहीं?
कौन समेटेगा, किसके
खेतों से जल बह जाएगा?
इस चिन्ता में पड़ा अगर
तो बाकी फिर ईमान नहीं।
(३)
तू जीवन का कंठ, भंग
इसका कोई उत्साह न कर,
रोक नहीं आवेग प्राण के,
सँभल-सँभल कर आह न कर।
उठने दे हुंकार हृदय से,
जैसे वह उठना चाहे;
किसका, कहाँ वक्ष फटता है,
तू इसकी परवाह न कर।
(४)
हम पर्वत पर की पुकार हैं,
वे घाटी के वासी हैं;
वन में ही वे गृही और
हम गृह में भी संन्यासी हैं।
वे लेते कर बन्द खिड़कियाँ
डर कर तेज हवाओं से;
झंझाओं में पंख खोल
उड़ने के हम अभ्यासी हैं।

(५)
जब - तब मैं सोचता कि क्यों
छन्दों के जाल बिछाता हूँ,
सुनता भी कोई कि शून्य में
मैं झंझा - सा गाता हूँ।
आयेगा वह कभी पियासे
गीतों को शीतल करने,
जीवन के सपने बिखेर कर
जिसका पन्थ सजाता हूँ?
(६)
रोक हॄदय में उसे, अतल से
मेघ उठा जो आता है।
घिरती है जो सुधा, बोलकर
तू क्यों उसे गँवाता है?
कलम उठा मत दौड़ प्राण के
कंपन पर प्रत्येक घड़ी।
नहीं जानता, गीत लेख
बनते-बनते मर जाता है?
(७)
छिप कर मन में बैठ और
सुन तो नीरव झंकारो को।
अन्तर्नभ पर देख, ज्योति में
छिटके हुए सितारों को।
बड़े भाग्य से ये खिलते हैं
कभी चेतना के वन में।
यों बिखेरता मत चल सड़कों
पर अनमोल विचारों को।
(८)
तू जो कहना चाह रहा,
वह भेद कौन जन जानेगा?
कौन तुझे तेरी आँखों से
बन्धु! यहाँ पहचानेगा?
जैसा तू, वैसे ही तो
ये सभी दिखाई पड़ते हैं;
तू इन सबसे भिन्न ज्योति है,
कौन बात यह मानेगा?
(९)
जादू की ओढ़नी ओढ़ जो
परी प्राण में जागी है;
उसकी सुन्दरता के आगे
क्या यह कीर्ति अभागी है?
पचा सकेगा नहीं स्वाद क्या
इस रहस्य का भी मन में?
तब तो तू, सत्य ही, अभी तक
भी अपूर्ण अनुरागी है।
(१०)
बहुत चला तू केन्द्र छोड़ कर
दूर स्वयं से जाने को;
अब तो कुछ दिन पन्थ मोड़
पन्थी! अपने को पाने को।
जला आग कोई जिससे तू
स्वयं ज्योति साकार बने,
दर्द बसाना भी यह क्या
गीतों का ताप बढ़ाने को!
(११)
कौन वीर है, एक बार व्रत
लेकर कभी न डोलेगा?
कौन संयमी है, रस पीकर
स्वाद नहीं फिर बोलेगा?
यों तो फूल सभी पाते हैं,
पायेगा फल, किन्तु, वही,
मन में जन्मे हुए वृक्ष का
भेद नहीं जो खोलेगा।
 

(१२)
तारे लेकर जलन, मेघ
आँसू का पारावार लिए,
संध्या लिए विषाद, पुजारिन
उषा विफल उपहार लिये,
हँसे कौन? तुझको तजकर जो
चला वही हैरान चला,
रोती चली बयार, हृदय में
मैं भी हाहाकार लिये।
(१३)
देखें तुझे किधर से आकर?
नहीं पन्थ का ज्ञान हमें।
बजती कहीं बाँसुरी तेरी,
बस, इतना ही भान हमें।
शिखरों से ऊपर उठने
देती न हाय, लघुता अपनी;
मिट्टी पर झुकने देता है
देव, नहीं अभिमान हमें।
(१४)
एक चाह है, जान सकूँ, यह
छिपा हुआ दिल में क्या है।
सुनकर भी न समझ पाया
इस आखर अनमिल में क्या है।
ऊँचे-टीले पन्थ सामने,
अब तक तो विश्रान नहीं,
यही सोच बढ़ता जाता हूँ,
देखूँ, मंजिल में क्या है।
(१५)
चलने दे रेती खराद की,
रुके नहीं यह क्रम तेरा।
अभी फूल मोती पर गढ़ दे,
अभी वृत्त का दे घेरा।
जीवन का यह दर्द मधुर है,
तू न व्यर्थ उपचार करे।
किसी तरह ऊषा तक टिमटिम
जलने दे दीपक मेरा।
(१६)
क्या पूछूँ खद्योत, कौन सुख
चमक - चमक छिप जाने में?
सोच रहा कैसी उमंग है
जलते - से परवाने में।
हाँ, स्वाधीन सुखी हैं, लेकिन,
ओ व्याधा के कीर, बता,
कैसा है आनन्द जाल में
तड़प - तड़प रह जाने में?
(१७)
छूकर परिधि-बन्ध फिर आते
विफल खोज आह्वान तुम्हें।
सुरभि-सुमन के बीच देव,
कैसे भाता व्यवधान तुम्हें?
छिपकर किसी पर्ण-झुरमुट में
कभी - कभी कुछ बोलो तो;
कब से रहे पुकार सत्य के
पथ पर आकुल गान तुम्हें!
(१८)
देख न पाया प्रथम चित्र, त्यों
अन्तिम दृश्य न पहचाना,
आदि-अन्त के बीच सुना
मैंने जीवन का अफसाना।
मंजिल थी मालूम न मुझको
और पन्थ का ज्ञान नहीं,
जाना था निश्चय, इससे
चुपचाप पड़ा मुझको जाना।
(१९)
चलना पड़ा बहुत, देखा था
जबतक यह संसार नहीं,
इस घाटी में भी रुक पाया
मेरा यह व्यापार नहीं।
कूदूँगा निर्वाण - जलधि में
कभी पार कर इस जग को,
जब तक शेष पन्थ, तब तक
विश्राम नहीं, उद्धार नहीं।
(२०)
दिये नयन में अश्रु, हॄदय में
भला किया जो प्यार दिया,
मुझमें मुझे मग्न करने को
स्वप्नों का संसार दिया।
सब-कुछ दिया मूक प्राणों की
वंशी में वाणी देकर,
पर क्यों हाय, तृषा दी, उर में
भीषण हाहाकार दिया?
(२१)
कितनों की लोलुप आँखों ने
बार - बार प्याली हेरी।
पर, साकी अल्हड़ अपनी ही
इच्छा पर देता फेरी।
हो अधीर मैंने प्याली को
थाम मधुर रस पान किया,
फिर देखा, साकी मेरा था,
प्याली औ’ दुनिया मेरी।
(२२)
विभा, विभा, ओ विभा हमें दे,
किरण! सूर्य! दे उजियाली।
आह! युगों से घेर रही
मानव-शिशु को रजनी काली।
प्रभो! रिक्त यदि कोष विभा का
तो फिर इतना ही कर दे;
दे जगती को फूँक, तनिक
झिलमिला उठे यह अँधियाली।
(२३)
तू, वह, सब एकाकी आये,
मैं भी चला अकेला था;
कहते जिसे विश्व, वह तो
इन असहायों का मेला था।
पर, कैसा बाजार? विदा-दिन
हम क्यों इतना लाद चले?
सच कहता हूँ, जब आया
तब पास न एक अधेला था।
(२४)
मेरे उर की कसक हाय,
तेरे मन का आनन्द हुई।
इन आँखों की अश्रुधार ही
तेरे हित मकरन्द हुई।
तू कहता ’कवि’ मुझे, किन्तु,
आहत मन यह कैसे माने?
इतना ही है ज्ञात कि मेरी
व्यथा उमड़कर छन्द हुई।

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chhand salila: prema chhand -sanjiv

छंद सलिला :
प्रेमा छंद
संजीव
*
इस द्विपदीय, चार चरणीय छंद में प्रथम, द्वितीय तथा चतुर्थ चरण उपेन्द्र वज्रा (१२१ २२१ १२१ २२) तथा तृतीय चरण इंद्रा वज्रा (२२१ २२१ १२१ २२) छंद में होते हैं. ४४ वर्ण वृत्त के इस छंद में ६९ मात्राएँ होती हैं.

उदाहरण:
१. मिलो-जुलो तो हमको तुम्हारे, हसीन वादे-कसमें लुभायें
   देखो नज़ारे चुप हो सितारों, हमें बहारें नगमे सुनायें

२. कहो कहानी कविता रुबाई, लिखो वही जो दिल से कहा हो
   देना हमेशा प्रिय को सलाहें, सदा वही जो खुद भी सहा हो

३. खिला कचौड़ी चटनी मिठाई, मुझे दिला दे कुछ तो खिलौने
   मेला लगा है चल घूम आयें, बना न बातें भरमा नहीं रे!

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बुधवार, 20 नवंबर 2013

rani laxami bal

Original Rani Laxmi Bai picture​रानी लक्ष्मी बाई का मूल चित्र 

झाँसी कि रानी का वास्तविक  चित्र देखिये. बेलगाम के ८८ वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी विट्ठल राव यलगी के पास रानी लक्ष्मीबाई का १५ वर्ष की  अवस्था का मूल चित्र कि प्रति है जो जर्मन छायाकार जॉनस्टोन हॉफमैन ने उतारा था. १८३५ में जन्मी रानी का यह चित्र १८५० में झाँसी के महल में लिया गया था जिसमें रानी नाना साहब द्वारा भेंट किये गए परंपरागत मराठी गहने, शाही पोशाक और अपनी ऐतिहासिक तलवार धारण किये हैं. इस चित्र में जो रंग और टोन है वही उस समय के अन्य चित्रों में मिलती है. इसे १९६८ में जयपुर के अम्बर लाल ने १.५ लाख रुपयों में जर्मनी में खरीदा तथा इसकी प्रति अपने मित्र यलगी को दी. 


   न्यू इंडियन एक्सप्रेस ने १८ - ११ २००९ को यह चित्र रानी लक्ष्मीबाई का असली चित्र बताते हुई छापा। इस चित्र में चेहरे पर प्रकाश का जो छायांकन है वह १८ वीं सदी के कैमरों से सम्भव नहीं था. रानी का ऐसा चित्र लिया जाना उस समय में सम्भव नहीं था. रानी कभी स्टूडियो गयी नहीं और  महल में किसी अंग्रेज छायाकार के सामने इस मुद्रा में आना उनके पद के मर्यादा के विरुद्ध था. 




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मंगलवार, 19 नवंबर 2013

Indian manual lift: sanjiv

भारतीय यांत्रिक लिफ्ट व्यवस्था                   
अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
वाराणसी. आधुनिक बहुमंज़िला इमारतों में बिजली चालित लिफ्ट की परिकल्पना भले ही पश्चिमी देशों ने की हो भारत में भी 18वीं शताब्दी के आखिर में दरभंगा नरेश ने यांत्रिक लिफ्ट की परिकल्पना ही नहीं निर्माणकर उपयोग भी किया था।

राजमाता और रानी के गंगा स्नान के लिए नरेश ने उस समय चक्र (पुली) पर चलने वाली लिफ्ट दरभंगा के राजमहल में लगवा यी थी। रानी और राजमाता को नित्य प्रातः गंगा स्नान के लिए महल से गंगा जी तक सकरी गलियों से होकर आना-जाना पड़ता था जो सुरक्षा की दृष्टि से चिन्ताजनक तथा आम लोगों के लिये असुविधा का कारण था. इसलिए महराजा रामेश्वर सिंह ने 50 फुट ऊंचे दरभंगा महल के ठीक सामने की ओर मीनार में हाथ से चलाई जा सकनेवाली यांत्रिक लिफ्ट बनवायी थी।
गंगा के पश्चिमी तट पर बसी अस्सी और वरुणा के बीच का भूगोल वाराणसी के नाम से विश्वविख्यात है। प्राचीन लोकभाषा "पाली" में वाराणसी को ढाई हजार साल पहले से आमलोग "बनारस" कहा करते थे। भारत के हर प्रदेश के प्रमुख राजघरानों और जमीदारों ने बनारस में आकर बसने का सपना देखा और शायद उसी का परिणाम हैं कि हर घाट के निर्माण में या घाट के ऊपर महलों या भवनों ने अलग-अलग प्रदेश की पहचान और छाप छोड़ी। 100 के ऊपर वाराणसी के घाटो के बीच घाट है 'दरभंगा घाट'। दरभंगा नरेश ने 18वीं शताब्दी के अंतिम दशक में दरभंगा महल का निर्माण कराया था। यह आज भी अपनी मनमोहक नक्काशी और रूप के लिए जाना जाता है।
महल के बाशिंदों में राजमाता या नरेश की पत्नी (रानी) पर्दानशीं हुआ करती थीं। शायद इसलिए घाट से 50 फीट ऊपर महल से गंगा स्नान हेतु आने के लिए दरभंगा नरेश ने काशी के इतिहास में पहली 'लिफ्ट' लगायी। आधुनिक विद्युत् चालित लिफ्ट की परिकल्पना भले ही पश्चिमी देशों ने की हो परन्तु भारत में कुंए से पानी निकालने की विधा बहुत प्राचीन है। चक्र यानी पुली के सहारे भारी वस्तु ऊपर भी जा सकती हैं और नीचे भी आ सकती हैं। कुओं से पानी निकलने के लिए मोट का सञ्चालन बैलों से किया जाता था. इसी विधा पर दरभंगा नरेश ने 18वीं शताब्दी के अंतिम दशक में रानी और राजमाता के लिए हाथ से चलनेवाली लिफ्ट को महल में बनवाया था।

रानी और राजमाता गंगा स्नान के लिए घाट पर आने के लिए महल के बाहरी हिस्से में बनी मीनार में लगी लिफ्ट की मदद से सीधे घाट पर उतर आती थीं। दासियाँ साड़ी का घेरा बनाती थी और स्नान के पहले व बाद रानी और राजमाता पुनः लिफ्ट के माध्यम से महल में वापस चली जाती थी। रख-रखाव न किये जेन के कारण हाथों से चलायी जा सकनेवाली लिफ्ट काल के गर्त में समा चुकी है। जानकार पर्यटक इसके बारे में जानते हैं वह दरभंगा घाट पर बने इस महल को जरूर देखने आते हैं। दरभंगा महल की यह मानवचालित यांत्रिक लिफ्ट इतिहास की एक धरोहर है। बहुत कम लोग जानते हैं कि 18वीं शताब्दी के अंतिम दशक में ही हमारे देश में लोग लिफ्ट का इस्तेमाल करने लगे थे। विज्ञान का अद्भुत समन्वय दरभंगा महल की लिफ्ट थी जो आज इतिहास के पन्नों में रह गई है। इस तकनीकमें सुधर कर आज भी मानवचालित लिफ्ट कम ऊंची इमारतों में उपयोग कर बिजली बचाई जा सकती है तथा अल्पशिक्षित श्रमिकों के लिए रोजगार का सृजन किया जा सकता है.

chhand salila: ardra chhand -sanjiv


छंद सलिला
आर्द्रा छंद
संजीव
*

द्विपदीय, चतुश्चरणी, मात्रिक आर्द्रा छंद के दोनों पदों पदों में समान २२-२२ वर्ण तथा ३५-३५ मात्राएँ होती हैं. प्रथम पद के २ चरण उपेन्द्र वज्रा-इंद्र वज्रा (जगण तगण तगण २ गुरु-तगण तगण जगण २ गुरु = १७ + १८ = ३५ मात्राएँ) तथा द्वितीय पद के २ चरण इंद्र वज्रा-उपेन्द्र वज्रा (तगण तगण जगण २ गुरु-जगण तगण तगण २ गुरु = १८ + १७ = ३५ मात्राएँ) छंदों के सम्मिलन से बनते हैं.
उपेन्द्र वज्रा फिर इंद्र वज्रा, प्रथम पंक्ति में रखें सजाकर
द्वितीय पद में सह इंद्र वज्रा, उपेन्द्र वज्रा कहे हँसाकर
उदाहरण:
१. कहें सदा ही सच ज़िंदगी में, पूजा यही है प्रभु जी! हमारी
   रहें हमेशा रत बंदगी में, हे भारती माँ! हम भी तुम्हारी
२. बसंत फूलों कलियों बगीचों, में झूम नाचा महका सवेरा
   सुवास फ़ैली वधु ज्यों नवेली, बोले अबोले- बस में चितेरा
३. स्वराज पाया अब भारतीयों, सुराज पाने बलिदान दोगे?
    पालो निभाओ नित नेह-नाते, पड़ोसियों से निज भूमि लोगे?
    कहो करोगे मिल देश-सेवा, सियासतों से मिल पार होगे?
    नेता न चाहें फिर भी दलों में, सुधार लाने फटकार दोगे?
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सोमवार, 18 नवंबर 2013

chhand salila: vani chhand -sanjiv

छंद सलिला:
वाणी छंद
संजीव
*
रचना विधान
द्विपदिक, चतुश्चरणी, मात्रिक, ४४ वर्ण, ७१ मात्राएँ
पहला, तीसरा, चौथा चरण
इंद्रा वज्रा, दूसरा चरण उपेन्द्र वज्रा
१, ३, ४ चरण: तगण तगण जगण २ गुरु / २ चरण: जगण तगण जगण २ गुरु
१, ३, ४: २२१-२२१-१२१-२२ २: १२१-२२१-१२१-२२
*
उदाहरण:
१. बोलो न बोलो सुन लो विधाता / अनामनामी वरदानदाता
   मोड़ो न तोड़ो वर दो प्रदाता / जोड़ें न- छोड़ें वह जो सुहाता

२. लोकोपयोगी परियोजनाएँ / विकासवाही सुविकास लायें
   रोकें अँधेरे फिर रौशनी दें / बाधा हटायें पग भी बढ़ायें

३. छोडो न पर्दा प्रिय! लाज क्यों है? / मुझे न रोको अब पास आओ
   रोके न टोके हमको जमाना / बाँहें न छोडो दिल में समाओ

------------

kavita: karm yogi sachin -dr. kamla jauhari dogra


कर्मयोगी सचिन
डॉ. कमला जौहरी डोगरा
*
(सचिन के पिता श्री के निधन पश्चात् दिनांक २३.३.१९९९ को भोपाल में लिखी गयी रचना, काव्य संग्रह उदगार से)
कर्मयोगी हो सचिन तुम
विश्व के श्रेष्ठतम खिलाड़ी
तुम्हारा धर्म-कर्म-कर्त्तव्य
सब कुछ रहा क्रिकेट ही
उसके उपासक बनकर रहे.
पत्नी का प्रेम हो या कि
बेटी का वात्सल्य-स्नेह
पिता का शोकमय विछोह
विरत न कर पाया तुम्हें
इस कर्म से, इस धर्म से.
शोकाकुल, परिवार से अतिदूर
दिल  संजोये पिता की याद
उड़ गए तुम मुक्ताकाश में यान से
देश की डूबती नैया बचाने को
विश्व कप क्रिकेट के मैदान में.
धन्य है साहसी माता तुम्हारी
दे सकी जो दुःख में भी कर्तव्यबोध
शतक की श्रृद्धांजलि दी-
तुमने पिता को यथायोग्य,
राष्ट्र को सर्वोच्च समझा।
हे गीता के देश के प्यारे!
सच्चे कर्मयोगी खिलाडी
कर्म करो, फल विधाता पर छोड़ दो
कृष्ण का संदेश तो था यही
तुमने सच करके दिखाया।
यह राष्ट्र तुम्हें देता दुआएं अनेक
साथ ही कर्मयोगी की उपाधि।
**********

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kavita: sada rahogi -naren kumar panchbhaya

प्रवेश:
सदा रहोगी
नरेन् कुमार पंचभाया
*
मुझे पता नहीं तुम्हें तोहफे में
एक ताजमहल देने की
क़ाबलियत मुझमें है या नहीं,
पर वादा कर चुका हूँ
तुम्हें देने का

वादा टूटेगा या
सलामत रहेगा
यह तो मेरी किस्मत की
लकीरों को ही पता होगा,
पर मुझे इतना पता है कि
तुम सदा रहोगी
मेरे दिल की धड़कनों में
मुमताज़ बनकर।
*
(ओडिया में काव्य रचना करनेवाले नरेन् जी द्वारा लिखित प्रथम हिंदी कविता)

रविवार, 17 नवंबर 2013

chhand salila: kirti chhand -sanjiv

छंद सलिला :
संजीव
*
कीर्ति छंद
छंद विधान:

द्विपदिक, चतुश्चरणिक, मात्रिक कीर्ति छंद इंद्रा वज्रा तथा उपेन्द्र वज्रा के संयोग से बनता है. इसका प्रथम चरण उपेन्द्र वज्रा (जगण तगण जगण दो गुरु / १२१-२२१-१२१-२२) तथा शेष तीन दूसरे, तीसरे और चौथे चरण इंद्रा वज्रा (तगण तगण जगण दो गुरु / २२१-२२१-१२१-२२) इस छंद में ४४ वर्ण तथा ७१ मात्राएँ होती हैं.
उदाहरण:
१. मिटा न क्यों दें मतभेद भाई, आओ! मिलाएं हम हाथ आओ
   आओ, न जाओ, न उदास ही हो, भाई! दिलों में समभाव भी हो.

२. शराब पीना तज आज प्यारे!, होता नहीं है कुछ लाभ सोचो
   माया मिटा नष्ट करे सुकाया, खोता सदा मान, सुनाम भी तो.

३. नसीहतों से दम नाक में है, पीछा छुड़ाएं हम आज कैसे?
   कोई बताये कुछ तो तरीका, रोके न टोके परवाज़ ऐसे.

                        ----------------------------------------

muktak : sanjiv

​श्री कीर्तिवर्धन अगरवाल के प्रति:
मुक्तक सलिला:
संजीव
*
कीर्ति वर्धन हो सभीकी चाह है यही
चुप करते चलो काम शुभ की राह है यही
आलस न करो, परिश्रम से हाथ मिला लो-
'संजीव' ज़िन्दगी की परवाह है यही.
*
सीधी सरल शख्सियत है मित्र आपकी
शालीनता ही खासियत है मित्र आपकी
हँसकर गले मिले तो अपना बना लिया-
मुस्कान में रूमानियत है मित्र आपकी
*
साथ लक्ष्मी के शारदा की साधना
पवन बहुत है साथ निभाने की भावना
है साथ जवानों के सारा जहाँ 'सलिल'
दें साथ बुजुर्गों का सदा मनोकामना
*
नम आँख देखकर हमारी आँख नम हुई
दिल से करी तारीफ मगर वह भी कम हुई
हमने जलाई फुलझड़ी 'सलिल' ये क्या हुआ
दीवाला हो गया है वो जैसे ही बम हुई.
*
संजीव वर्मा 'सलिल'
२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन
जबलपुर ४८२००१
०७६१ २४१११३१ / ९४२५१ ८३२४४

शनिवार, 16 नवंबर 2013

geet: baad deepawali ke... sanjiv

गीति रचना :
बाद दीपावली के...
संजीव
*
बाद दीपावली के दिए ये बुझे
कह रहे 'अंत भी एक प्रारम्भ है.
खेलकर अपनी पारी सचिन की तरह-
मैं सुखी हूँ, न कहिये उपालम्भ है.
कौन शाश्वत यहाँ?, क्या सनातन यहाँ?
आना-जाना प्रकृति का नियम मानिए.
लाये क्या?, जाए क्या? साथ किसके कभी
कौन जाता मुझे मीत बतलाइए?
ज्यों की त्यों क्यों रखूँ निज चदरिया कहें?
क्या बुरा तेल-कालिख अगर कुछ गहें?
श्वास सार्थक अगर कुछ उजाला दिया,
है निरर्थक न किंचित अगर तम पिया.
*
जानता-मानता कण ही संसार है,

सार किसमें नहीं?, कुछ न बेकार है.

वीतरागी मृदा - राग पानी मिले

बीज श्रम के पड़े, दीप बन, उग खिले.

ज्योत आशा की बाली गयी उम्र भर.

तब प्रफुल्लित उजाला सकी लख नज़र.

लग न पाये नज़र, सोच कर-ले नज़र

नोन-राई उतारे नज़र की नज़र.

दीप को झालरों की लगी है नज़र

दीप की हो सके ना गुजर, ना बसर.

जो भी जैसा यहाँ उसको स्वीकार कर

कर नमन मैं हुआ हूँ पुनः अग्रसर.
*

बाद दीपावली के सहेजो नहीं,

तोड़ फेंकों, दिए तब नये आयेंगे.

तुम विदा गर प्रभाकर को दोगे नहीं

चाँद-तारे कहो कैसे मुस्कायेंगे?

दे उजाला चला, जन्म सार्थक हुआ.

दुख मिटे सुख बढ़े, गर न खेलो जुआ.

मत प्रदूषण करो धूम्र-ध्वनि का, रुको-

वृक्ष हत्या करे अब न मानव मुआ.

तीर्थ पर जा, मनाओ हनीमून मत.
​​

मुक्ति केदार प्रभु से मिलेगी 'सलिल'

पर तभी जब विरागी रहो राग में
और रागी नहीं हो विरागी मनस।
इसलिए हैं विकल मानवों के हिये।​
चल न पाये समय पर रुके भी नहीं
अलविदा कह चले, हरने तम आयें फिर 
बाद दीपावली के दिए जो बुझे.
*

hindi chhand: upendra vajra -sanjiv

छंद सलिला:
उपेन्द्र वज्रा
संजीव
*
इस द्विपदिक मात्रिक छंद के हर पद में क्रमश: जगण तगण जगण २ गुरु अर्थात ११ वर्ण और १७ मात्राएँ होती हैं.
उपेन्द्रवज्रा एक पद = जगण तगण जगण गुरु गुरु = १२१ / २२१ / १२१ / २२
उदाहरण:
१. सरोज तालाब गया नहाया
   सरोद सायास गया बजाया
   न हाथ रोका नत माथ बोला
   तड़ाग झूमा नभ मुस्कुराया
२. हथेलियों ने जुड़ना न सीखा
   हवेलियों ने झुकना न सीखा।
   मिटा दिया है सहसा हवा ने-
   फरेबियों से बचना न सीखा
३. जहाँ-जहाँ फूल खिलें वहाँ ही,
    जहाँ-जहाँ शूल, चुभें वहाँ भी,
   रखें जमा पैर हटा न पाये-
   भले महाकाल हमें मनायें।

chhand salila: indra vajraa


छंद सलिला:
इंद्रा वज्रा छंद
सलिल
*
इस द्विपदिक मात्रिक चतुःश्चरणी छंद के हर पद में २ तगण, १ जगण तथा २ गुरु मात्राएँ होती हैं. इस छंद का प्रयोग मुक्तक हेतु भी किया ज सकता है.
इन्द्रवज्रा एक पद = २२१ / २२१ / १२१ / २२ = ११ वर्ण तथा १८ मात्राएँ
उदाहरण:
१. तोड़ो न वादे जनता पुकारे
   बेचो-खरीदो मत धर्म प्यारे
   लूटो तिजोरी मत देश की रे!
   चेतो न रूठे, जनता न मारे
२. नाचो-नचाओ मत भूलना रे!
   आओ! न जाओ, कह चूमना रे!
   माशूक अपनी जब साथ में हो-
   झूमो, न भूले हँस झूलना रे!
३. पाया न / खोया न / रखा न / रोका
   बोला न / डोला न / कहा न / टोंका
   खेला न / झेला न / तजा न / हारा
   तोडा न / फोड़ा न / पिटा न / मारा
४. आराम / ही राम / हराम / क्यों हो?
   माशूक / के नाम / पयाम / क्यों हो?
   विश्वास / प्रश्वास / नि:श्वास टूटा-
   सायास / आभास / हुलास /  झूठा
                     ***
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thought of the day - mukul verma


Mukul Verma

sanjiv
*
 5 undeniable Facts
of Life :

1.
Don't educate
your children
to be rich.
Educate them
to be Happy.
So when
they grow up
they will know
the value of things
not the price

2.
Best awarded words
in London ...

"Eat your food
as your medicines.
Otherwise
you have to
eat medicines
as your food"

3.
The One
who loves you
will never leave you
because
even if there are
100 reasons
to give up
he will find
one reason
to hold on

4.
There is
a lot of difference
between
human being
and being human.
A Few understand it.

5.
You are loved
when you are born.
You will be loved
when you die.
In between
You have to manage...!

गुरुवार, 14 नवंबर 2013

CHHAND SALILA: achal dhriti chhand -sanjiv

 छंद सलिला:

अचल धृति छंद
संजीव
*
छंद विधान: सूत्र: ५ न १ ल, ५ नगण १ लघु = ५ (१ + १ +१ )+१ = हर पद में १६ लघु मात्रा, १६ वर्ण

उदाहरण:

१. कदम / कदम / पर ठ/हर ठ/हर क/र
    ठिठक / ठिठक / कर सि/हर सि/हर क/र
    हुलस / हुलस / कर म/चल म/चल क/र
    मनसि/ज सम / खिल स/लिल ल/हर क/र

२. सतत / अनव/रत प/थ पर / पग ध/र
    अचल / फिसल / गर सँ/भल ठि/ठकक/र
    रुक म/त झुक / मत चु/क मत / थक म/त
    'सलिल' / विहँस/कर प्र/वह ह/हरक/र

            ----------------------------------------------------------

 छंद सलिला:
अग्र / सर्वगामी छंद
संजीव
*
(छंद विधान : ७ तगण + २ गुरु, द्विपदिक मात्रिक छंद)
*
ओ शारदे माँ!, हमें तार दे माँ!, दिखा बिम्ब सारे, सिखा छंद प्यारे।
ओ भारती माँ!, करें आरती माँ!, अलंकार धारे, लिखा गीत न्यारे।।
*
शब्दाक्षरों में, लिखा माँ भवानी!, युगों की कहानी, न देखी न जानी।
ओ मातु अंबे!, न कोरी कहानी, धरा-ज़िंदगानी, बना दे सुहानी।।
*
भावानुभावों, रसों भावनाओं, हसीं कल्पनाओं, सदा मुस्कुराओ।
खोओ न- पाओ, गुमा पा बचाओ, लुटाओ-भुलाओ, हँसो गीत गाओ।।
फूलों न भूलो, खिलो और झूमो, बसंती फ़िज़ाओं, न पर्दा गिराओ।
​घाटों न नावों, न बाज़ार भावों, ​उतारों-चढ़ावों,​ सदा संग पाओ।।
*​

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chhand salila: achal chhand -sanjiv


छंद सलिला:                                                                                             अचल छंद                                                                                                  संजीव
*
अपने नाम के अनुरूप इस छंद में निर्धारित से विचलन की सम्भावना नहीं है. यह मात्रिक सह वर्णिक छंद है. इस चतुष्पदिक छंद का हर पद २७ मात्राओं तथा १८ वर्णों का होता है. हर पद (पंक्ति) में ५-६-७ वर्णों पर यति इस प्रकार है कि यह यति क्रमशः ८-८-११ मात्राओं पर भी होती है. मात्रिक तथा वार्णिक विचलन न होने के कारण इसे अचल छंद कहा गया होगा। छंद प्रभाकर तथा छंद क्षीरधि में दिए गए उदाहरणों में मात्रा बाँट १२१२२/१२१११२/२११२२२१ रखी गयी है. 
तदनुसार

सुपात्र खोजे, तभी समय दे, मौन पताका हाथ.

कुपात्र पाये, कभी न पद- दे, शोक सभी को नाथ..

कभी नवायें, न शीश अपना, छूट रहा हो साथ.

करें विदा क्यों, सदा सजल हो, नैन- न छोड़ें हाथ..

*

वर्ण तथा मात्रा बंधन यथावत रखते हुए मात्रा बाँट में परिवर्तन करने से इस छंद में प्रयोग की विपुल सम्भावनाएँ हैं.

मौन पियेगा, ऊग सूर्य जब, आ अँधियारा नित्य.

तभी पुजेगा, शिवशंकर सा, युगों युगों आदित्य..

चन्द्र न पाये, मान सूर्य सम, ले उजियारा दान-

इसीलिये तारक भी नभ में, करें न उसका मान..

इस तरह के परिवर्तन किये जाएं या नहीं? विद्वज्जनों के अभिमत आमंत्रित हैं.

बुधवार, 13 नवंबर 2013

muktak: sanjiv


मुक्तक :
गहोई
कहो पर उपकार की क्या फसल बोई?

मलिनता क्या ज़िंदगी से तनिक धोई?

सत्य-शिव-सुन्दर 'सलिल' क्या तनिक पाया-

गहो ईश्वर की कृपा तब हो गहोई।।
*
कहो किसका कब सदा होता है कोई?                                                             

कहो किसने कमाई अपनी न खोई?                                                                    

कर्म का औचित्य सोचो फिर करो तुम-                                                                  

कर गहो ईमान तब होगे गहोई।।
*
सफलता कब कहो किसकी हुई गोई?                                                             

श्रम करो तो रहेगी किस्मत न सोई.                                                                    

रास होगी श्वास की जब आस के संग-                                                                    

गहो ईक्षा संतुलित तब हो गहोई।।
*
कर्म माला जतन से क्या कभी पोई?                                                              

आस जाग्रत रख हताशा रखी सोई?                                                                     

आपदा में धैर्य-संयम नहीं खोना- 

गहो ईप्सा नियंत्रित तब हो गहोई।।
*
सफलता अभिमान कर कर सदा रोई.                                                          

विफलता की नष्ट की क्या कभी चोई..

प्रयासों को हुलासों की भेंट दी क्या? 

गहो ईर्ष्या 'सलिल' मत तब हो गहोई
*
(गोई = सखी, ईक्षा = दृष्टि, पोई = पिरोई / गूँथी,
ईप्सा = इच्छा,

​चोई = जलीय खरपतवार)





मंगलवार, 12 नवंबर 2013

chhand salila: saar chhand -sanjiv

 छंद सलिला:

सार छंद
संजीव
* 
(द्विपदिक मात्रिक छंद, मात्रा २८, १६ - १२ पर यति, पदांत २ गुरु मात्राएँ, उपनाम : ललित / दोवै / साकीं मराठी छंद)
सोलह बारह पर यति रखकर, द्विपदिक छंद बनायें
हों पदांत दो गुरु मात्राएँ, सार सुछंद सजायें
साकीं दोवै ललित नाम दे, कविगण रचकर गायें
घनानंद पा कविता प्रेमी, 'सलिल' संग मुस्कायें
*
कर सोलह सिंगार नवोढ़ा, सजना को तरसाती
दूर-दूर से झलक दिखाती, लेकिन हाथ न आती
जीभ चिढ़ाती कभी दिखाती, ठेंगा प्रिय खिसयाये                                  तरस-तरस कह कह तरसाती, किंचित तरस न खाये                                        'दाग लगा' यह बोला उसने, 'सलिल'-धार मुँह धोया
'छोड़ो' छोड़ न कसकर थामे, छवि निरखे वह खोया
___
बढ़े सैन्य दल एक साथ जब, दुश्मन थर्रा जाता
काँपे भय से निबल कलेजा, उसका मुँह को आता  
___
​​
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
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bhartendu ke dohe

विरासत :

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के दोहे

*

निज भाषा उन्नति अहै - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र,



निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।

अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।

उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय ।

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय ।

इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग ।

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात ।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय ।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात ।

सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय ।
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------
टीप: भरतेन्दी के काल से अब तक हिंदी में हुआ परिवर्तन और विकास शब्दों से सहज ही अनुमाना जा सकता है.

सोमवार, 11 नवंबर 2013

gazal ki baharen : navin chaturvedi

ग़ज़ल की ३२ बहरें : 
नवीन चतुर्वेदी :

क्र.
बह्र का नाम
बह्र के अरकान , वर्णिक संकेत  [1= लघु अक्षर, 2 = गुरु अक्षर]
शेर बतौरेनज़ीर
1
बहरे कामिल मुसम्मन सालिम
मुतफ़ाएलुन मुतफ़ाएलुन
मुतफ़ाएलुन मुतफ़ाएलुन
11212 11212 11212 11212
ये चमन ही अपना वुजूद है
इसे छोड़ने की भी सोच मत
नहीं तो बताएँगे कल को क्या
यहाँ गुल न थे कि महक न थी 
2
बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मख़बून
फ़ाएलातुन मुफ़ाएलुन फ़ालुन
2122 1212 22
प्या को प्या करना था केवल
एक अक्षर बदल न पाये हम
3
बहरे मज़ारिअ मुसम्मन मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़
मुख़न्नक मक़्सूर
मफ़ऊलु फ़ाएलातुन मफ़ऊलु फ़ाएलातुन
221 2122 221 2122
जब जामवन्त गरजा, हनुमत में जोश जागा
हमको जगाने वाला, लोरी सुना रहा है
4
बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ
मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फ़ालुन
1212 1122 1212 22  
भुला दिया है जो तूने तो कुछ मलाल नहीं
कई दिनों से मुझे भी तेरा ख़याल नहीं
5
बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब
मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाएलातु  मुफ़ाईलु फ़ाएलुन
 221 2121 1221 212
क़िस्मत को ये मिला तो मशक़्क़त को वो मिला
इस को मिला ख़ज़ाना उसे चाभियाँ मिलीं 
6
बहरे मुतकारिब मुसद्दस सालिम
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
122 122 122
कहानी बड़ी मुख़्तसर है
कोई सीप कोई गुहर है 
7
बहरे मुतकारिब मुसमन सालिम
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन   
122 122 122 122
वो जिन की नज़र में है ख़्वाबेतरक़्क़ी
अभी से ही बच्चों को पी. सी. दिला दें
8
बहरे मुतक़ारिब मुसम्मन मक़्सूर
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
122 122 122 2
इबादत की किश्तें चुकाते रहो
किराये पे है रूह की रौशनी
9
बहरे मुतदारिक मुसद्दस सालिम
फ़ाएलुन फ़ाएलुन फ़ाएलुन
212 212 212
सीढ़ियों पर बिछी है हयात
ऐ   ख़ुशी! हौले-हौले उतर
10
बहरे मुतदारिक मुसम्मन अहज़ज़ु आख़िर
फ़ाएलुन फ़ाएलुन फ़ाएलुन फ़ा
212 212 212 2
अब उभर आयेगी उस की सूरत
बेकली रंग भरने लगी है
11
बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
फ़ाएलुन फ़ाएलुन फ़ाएलुन फ़ाएलुन
212 212 212 212
जब छिड़ी तज़रूबे और डिग्री में जंग
कामयाबी बगल झाँकती रह गयी
12
बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू मुख़ल्ला
मुफ़ाइलुन फ़ाएलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाएलुन फ़ऊलुन
1212 212 122 1212 212 22
बड़ी सयानी है यार क़िस्मत,
सभी की बज़्में सजा रही है
किसी को जलवे दिखा रही है
कहीं जुनूँ आजमा रही है
13
बहरे रजज़ मुरब्बा सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212
ये नस्लेनौ है साहिबो
अम्बर से लायेगी नदी
14
बहरे रजज़ मुसद्दस मख़बून
मुस्तफ़इलुन मुफ़ाइलुन
2212 1212
क्या आप भी ज़हीन थे?
आ जाइये – क़तार में
15
बहरे रजज़ मुसद्दस सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212 2212
मैं वो नदी हूँ थम गया जिस का बहाव
अब क्या करूँ क़िस्मत में कंकर भी नहीं
16
बहरे रजज़ मुसम्मन सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212 2212 2212
उस पीर को परबत हुये काफ़ी ज़माना हो गया
उस पीर को फिर से नयी इक तरजुमानी चाहिये
17
बहरे रमल मुरब्बा सालिम
फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन
2122 2122
मौत से मिल लो, नहीं तो
उम्र भर पीछा करेगी
18
बहरे रमल मुसद्दस मख़बून मुसककन
फ़ाएलातुन फ़एलातुन फ़ालुन
2122 1122 22
सनसनीखेज़ हुआ चाहती है
तिश्नगी तेज़ हुआ चाहती है
19
बहरे रमल मुसद्दस महज़ूफ़
फ़ाएलातुन  फ़ाएलातुन फ़ाएलुन ,
2122 2122 212
अजनबी हरगिज़ न थे हम शह्र में
आप ने कुछ देर से जाना हमें
20
बहरे रमल मुसद्दस सालिम
फ़ाएलातुन  फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन
2122 2122 2122
ये अँधेरे ढूँढ ही लेते हैं मुझ को
इन की आँखों में ग़ज़ब की रौशनी है
21
बहरे रमल मुसमन महज़ूफ़
फ़ाएलातुन  फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलुन
2122 2122 21222 212
वह्म चुक जाते हैं तब जा कर उभरते हैं यक़ीन
इब्तिदाएँ चाहिये तो इन्तिहाएँ ढूँढना
22
बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाएलातुन फ़एलातुन फ़एलातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 22
गोया चूमा हो तसल्ली ने हरिक चहरे को
उस के दरबार में साकार मुहब्बत देखी
23
बहरे रमल मुसम्मन मशकूल सालिम मज़ाइफ़ [दोगुन]
फ़एलातु फ़ाएलातुन फ़एलातु फ़ाएलातुन
1121 2122 1121 2122  
वो जो शब जवाँ थी हमसे उसे माँग ला दुबारा
उसी रात की क़सम है वही गीत गा दुबारा
24
बहरे रमल मुसम्मन सालिम
फ़ाएलातुन  फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन
2122 2122 2122 2122
कल अचानक नींद जो टूटी तो मैं क्या देखता हूँ
चाँद की शह पर कई तारे शरारत कर रहे हैं
25
बहरे हज़ज  मुसद्दस महजूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन ,
1222 1222 122 
हवा के साथ उड़ कर भी मिला क्या
किसी तिनके से आलम सर हुआ क्या
26
बहरे हज़ज  मुसद्दस सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222
हरिक तकलीफ़ को आँसू नहीं मिलते
ग़मों का भी मुक़द्दर होता है साहब
27
बहरे हजज़ मुसमन अख़रब
मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ महज़ूफ़
मफ़ऊलु मुफ़ाईलु मुफ़ाईलु फ़ऊलुन
221 1221 1221 122
आवारा कहा जायेगा दुनिया में हरिक सम्त
सँभला जो सफ़ीना किसी लंगर से नहीं था
28
बहरे हज़ज मुसम्मन अख़रब
मक़्फूफ़ मक़्फूफ़ मुख़न्नक सालिम
मफ़ऊलु मुफ़ाईलुन मफ़ऊलु मुफ़ाईलुन
221 1222  221 1222 
हम दोनों मुसाफ़िर हैं इस रेत के दरिया के
उनवाने-ख़ुदा दे कर तनहा न करो मुझ को
29
बहरे हज़ज मुसम्मन अशतर
मक़्फूफ़ मक़्बूज़ मुख़न्नक सालिम 
फ़ाएलुन मुफ़ाईलुन फ़ाएलुन मुफ़ाईलुन
212 1222  212 1222 
ख़ूब थी वो मक़्क़ारी ख़ूब ये छलावा है
वो भी क्या तमाशा था ये भी क्या तमाशा है
30
बहरे हज़ज मुसम्मन अशतर
मक़्बूज़, मक़्बूज़, मक़्बूज़
फ़ाएलुन मुफ़ाएलुन मुफ़ाएलुन मुफ़ाएलुन
212 1212 1212 1212
लुट गये ख़ज़ाने और गुन्हगार कोइ नईं
दोष किस को दीजिये जवाबदार कोई नईं
31
बहरे हज़ज मुसम्मन मक़्बूज़
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 1212 1212 1212
गिरफ़्त ही सियाहियों को बोलना सिखाती है
वगरना छूट मिलते ही क़लम बहकने लगते हैं
32
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222
मुझे पहले यूँ लगता था करिश्मा चाहिये मुझको
मगर अब जा के समझा हूँ क़रीना चाहिये मुझको