कैसे चुकाया यहया ख़ां ने मानेकशॉ का क़र्ज़?
उनका पूरा नाम सैम होरमूज़जी
फ़्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ था लेकिन शायद ही कभी उनके इस नाम से पुकारा गया.
उनके दोस्त, उनकी पत्नी, उनके नाती, उनके अफ़सर या उनके मातहत या तो
उन्हें सैम कह कर पुकारते थे या "सैम बहादुर". सैम को सबसे पहले शोहरत मिली साल 1942 में. दूसरे
विश्व युद्ध के दौरान बर्मा के मोर्चे पर एक जापानी सैनिक ने अपनी मशीनगन
की सात गोलियां उनकी आंतों, जिगर और गुर्दों में उतार दीं.
डॉक्टर ने अनमने मन से उनके शरीर में घुसी गोलियाँ निकालीं और उनकी आंत का क्षतिग्रस्त हिस्सा काट दिया. आश्चर्यजनक रूप से सैम बच गए. पहले उन्हें मांडले ले जाया गया, फिर रंगून और फिर वापस भारत.
'कोई पीछे नहीं हटेगा'
उसी समय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और रक्षा मंत्री यशवंतराव चव्हाण ने सीमा क्षेत्रों का दौरा किया था. नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी भी उनके साथ थीं. सैम के एडीसी ब्रिगेडियर बहराम पंताखी अपनी किताब सैम मानेकशॉ– द मैन एंड हिज़ टाइम्स में लिखते हैं, "सैम ने इंदिरा गाँधी से कहा था कि आप ऑपरेशन रूम में नहीं घुस सकतीं क्योंकि आपने गोपनीयता की शपथ नहीं ली है. इंदिरा को तब यह बात बुरी भी लगी थी लेकिन सौभाग्य से इंदिरा गांधी और मानेकशॉ के रिश्ते इसकी वजह से ख़राब नहीं हुए थे."
शरारती सैम
उनकी बेटी माया दारूवाला ने बीबीसी को बताया, "लोग सोचते हैं कि सैम बहुत बड़े जनरल हैं, उन्होंने कई लड़ाइयां लड़ी हैं, उनकी बड़ी-बड़ी मूंछें हैं तो घर में भी उतना ही रौब जमाते होंगे. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था. वह बहुत खिलंदड़ थे, बच्चे की तरह. हमारे साथ शरारत करते थे. हमें बहुत परेशान करते थे. कई बार तो हमें कहना पड़ता था कि डैड स्टॉप इट. जब वो कमरे में घुसते थे तो हमें यह सोचना पड़ता था कि अब यह क्या करने जा रहे हैं."
रक्षा सचिव से भिड़ंत
शरारतें करने की उनकी यह अदा, उन्हें लोकप्रिय बनाती थीं लेकिन जब अनुशासन या सैनिक नेतृत्व और नौकरशाही के बीच संबंधों की बात आती थी तो सैम कोई समझौता नहीं करते थे.कपड़ों के शौकीन
मानेकशॉ को अच्छे कपड़े पहनने का शौक था. अगर उन्हें कोई निमंत्रण मिलता था जिसमें लिखा हो कि अनौपचारिक कपड़ों में आना है तो वह निमंत्रण अस्वीकार कर देते थे. दीपेंदर सिंह याद करते हैं, "एक बार मैं यह सोच कर सैम के घर सफ़ारी सूट पहन कर चला गया कि वह घर पर नहीं हैं और मैं थोड़ी देर में श्रीमती मानेकशॉ से मिल कर वापस आ जाऊंगा. लेकिन वहां अचानक सैम पहुंच गए. मेरी पत्नी की तरफ़ देख कर बोले, तुम तो हमेशा की तरह अच्छी लग रही हो.लेकिन तुम इस "जंगली" के साथ बाहर आने के लिए तैयार कैसे हुई, जिसने इतने बेतरतीब कपड़े पहन रखे हैं?"सैम चाहते थे कि उनके एडीसी भी उसी तरह के कपड़े पहनें जैसे वह पहनते हैं, लेकिन ब्रिगेडियर बहराम पंताखी के पास सिर्फ़ एक सूट होता था. एक बार जब सैम पूर्वी कमान के प्रमुख थे, उन्होंने अपनी कार मंगाई और एडीसी बहराम को अपने साथ बैठा कर पार्क स्ट्रीट के बॉम्बे डाइंग शो रूम चलने के लिए कहा. वहां ब्रिगेडियर बहराम ने उन्हें एक ब्लेजर और ट्वीड का कपड़ा ख़रीदने में मदद की. सैम ने बिल दिया और घर पहुंचते ही कपड़ों का वह पैकेट एडीसी बहराम को पकड़ा कर कहा,"इनसे अपने लिए दो कोट सिलवा लो."
इदी अमीन के साथ भोज
सैम के आदेश पर रातोंरात कनॉट प्लेस की मशहूर दर्ज़ी की दुकान एडीज़ खुलवाई गई और करीब बारह दर्ज़ियों ने रात भर जाग कर इदी अमीन के लिए वर्दियां सिलीं.
सैम के ख़र्राटे
सैम को खर्राटे लेने की आदत थी. उनकी बेटी माया दारूवाला कहती है कि उनकी मां सीलू और सैम कभी भी एक कमरे में नहीं सोते थे क्योंकि सैम ज़ोर-ज़ोर से खर्राटे लिया करते थे. एक बार जब वह रूस गए तो उनके लाइजन ऑफ़िसर जनरल कुप्रियानो उन्हें उनके होटल छोड़ने गए.1971 की लड़ाई में इंदिरा गांधी चाहती थीं कि वह मार्च में ही पाकिस्तान पर चढ़ाई कर दें लेकिन सैम ने ऐसा करने से इनकार कर दिया क्योंकि भारतीय सेना हमले के लिए तैयार नहीं थी. इंदिरा गांधी इससे नाराज़ भी हुईं. मानेकशॉ ने पूछा कि आप युद्ध जीतना चाहती हैं या नहीं. उन्होंने कहा, "हां." इस पर मानेकशॉ ने कहा, मुझे छह महीने का समय दीजिए. मैं गारंटी देता हूं कि जीत आपकी होगी.
इंदिरा गांधी के साथ उनकी बेतकल्लुफ़ी के कई किस्से मशहूर हैं. मेजर जनरल वीके सिंह कहते हैं, "एक बार इंदिरा गांधी जब विदेश यात्रा से लौटीं तो मानेकशॉ उन्हें रिसीव करने पालम हवाई अड्डे गए. इंदिरा गांधी को देखते ही उन्होंने कहा कि आपका हेयर स्टाइल ज़बरदस्त लग रहा है. इस पर इंदिरा गांधी मुस्कराईं और बोलीं, और किसी ने तो इसे नोटिस ही नहीं किया."
टिक्का ख़ां से मुलाकात
इस पर मानेकशॉ ने उन्हें तुरंत टोका, "जिस स्टाफ़ ऑफ़िसर की लिखी ब्रीफ़ आप पढ़ रहे हैं उसे अंग्रेज़ी लिखनी नहीं आती है. ऑल्टरनेटिव्स हमेशा दो होते हैं, तीन नहीं. हां संभावनाएं या पॉसिबिलिटीज़ दो से ज़्यादा हो सकती हैं." सैम की बात सुन कर टिक्का इतने नर्वस हो गए कि हकलाने लगे... और थोड़ी देर में वो थाकोचक को वापस भारत को देने को तैयार हो गए.
ललित नारायण मिश्रा के दोस्त
बहुत कम लोगों को पता है कि सैम मानेकशॉ की इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल के एक सदस्य ललित नारायण मिश्रा से बहुत गहरी दोस्ती थी. सैम के मिलिट्री असिस्टेंट जनरल दीपेंदर सिंह एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं, "एक शाम ललित नारायण मिश्रा अचानक मानेकशॉ के घर पहुंचे. उस समय दोनों मियां-बीवी घर पर नहीं थे. उन्होंने कार से एक बोरा उतारा और सीलू मानेकशॉ के पलंग के नीचे रखवा दिया और सैम को इसके बारे में बता दिया. सैम ने पूछा कि बोरे में क्या है तो ललित नारायण मिश्र ने जवाब दिया कि इसमें पार्टी के लिए इकट्ठा किए हुए रुपए हैं. सैम ने पूछा कि आपने उन्हें यहां क्यों रखा तो उनका जवाब था कि अगर इसे घर ले जाऊंगा तो मेरी पत्नी इसमें से कुछ पैसे निकाल लेगी. सीलू मानेकशॉ को तो पता भी नहीं चलेगा कि इस बोरे में क्या है. कल आऊंगा और इसे वापस ले जाऊंगा."दीपेंदर सिंह बताते हैं कि ललित नारायण मिश्रा को हमेशा इस बात का डर रहता था कि कोई उनकी बात सुन रहा है. इसलिए जब भी उन्हें सैम से कोई गुप्त बात करनी होती थी वह उसे कागज़ पर लिख कर करते थे और फिर कागज़ फाड़ दिया करते थे.
मानेकशॉ और यहया ख़ां
साल 1947 में मानेकशॉ और यहया ख़ां दिल्ली में सेना मुख्यालय में तैनात थे. यहया ख़ां को मानेकशॉ की मोटरबाइक बहुत पसंद थी. वह इसे ख़रीदना चाहते थे लेकिन सैम उसे बेचने के लिए तैयार नहीं थे. यहया ने जब विभाजन के बाद पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया तो सैम उस मोटरबाइक को यहया ख़ां को बेचने के लिए तैयार हो गए. दाम लगाया गया 1,000 रुपए. यहया मोटरबाइक पाकिस्तान ले गए और वादा कर गए कि जल्द ही पैसे भिजवा देंगे. सालों बीत गए लेकिन सैम के पास वह चेक कभी नहीं आया. बहुत सालों बाद जब पाकितान और भारत में युद्ध हुआ तो मानेकशॉ और यहया ख़ां अपने अपने देशों के सेनाध्यक्ष थे. लड़ाई जीतने के बाद सैम ने मज़ाक किया, "मैंने यहया ख़ां के चेक का 24 सालों तक इंतज़ार किया लेकिन वह कभी नहीं आया. आखिर उन्होंने 1947 में लिया गया उधार अपना देश दे कर चुकाया."
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