कालजयी कविता
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
*
इस दुनिया में
आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
न संविधान
इसके नाम पर
कागज पर लिखी
कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है
जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अन्धा है
जो शासन
चल रहा हो बन्दूक की नली से
हत्यारों का धन्धा है ( हथियारों )
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है
एक बच्चे की हत्या
एक औरत की मौत
एक आदमी का गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन
ऐसा खून बहकर
धरती में जज्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झण्डों को
थामा करता है
जिस धरती पर
फौजी बूटों के निशान हों
और उन पर लाशें गिर रही हो
वह धरती
यदि तुम्हारे खून में आग बनकर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो
तुम्हें यहां सांस लेने तक का नहीं है अधिकार
तुम्हारे लिए नहीं रहा यह संसार
आखिरी बात
बिल्कुल साफ
किसी भी हत्यारे को
कभी मत करो माफ
चाहे हो वह तुम्हारा यार
धर्म का ठेकेदार
चाहे लोकतंत्र का स्वनामधन्य पहरेदार
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