नवगीत:
गायब बेर, बेल,
सीताफल
जंगली हम
काटते जंगल
करें अपना
आप अमंगल
भा रहा है
स्वार्थ का दंगल
भूला कल
पर है हावी कल
रौंद डाले
हैं सुकोमल फूल
बच न पाये
नीम जाम बबूल
खोद डाले
हैं नदी के कूल
वहशी हम
फिर भी रहे मचल
गायब
गिद्ध काग गौरैया
दादी-
बब्बा बापू-मैया
नहीं चेतते
तनकऊ दैया!
ईश्वर! दे मति
सकें सम्हल
*
गायब बेर, बेल,
सीताफल
जंगली हम
काटते जंगल
करें अपना
आप अमंगल
भा रहा है
स्वार्थ का दंगल
भूला कल
पर है हावी कल
रौंद डाले
हैं सुकोमल फूल
बच न पाये
नीम जाम बबूल
खोद डाले
हैं नदी के कूल
वहशी हम
फिर भी रहे मचल
गायब
गिद्ध काग गौरैया
दादी-
बब्बा बापू-मैया
नहीं चेतते
तनकऊ दैया!
ईश्वर! दे मति
सकें सम्हल
*
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें