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बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

doha:

दोहा सलिला:
(दो दुम के दोहे)

प्रकृति की करुणा अमित, क्षमा करे अपराध
नष्ट कर रहा क्यों मनुज, बनकर निर्मम व्याध
वृक्ष को लिपट बचाएं
सहोदर इसे बनायें
*
नदियाँ माँ ममतामयी, हरतीं जग की प्यास
मानव उनको मलिन कर, दे-पाता संत्रास
किनारे हरे कीजिए
विमल जल विहँस पीजिए
*
पर्वत ऊँचा पिता सा, रखता सर पर छाँह
हर मुश्किल से ले बचा, थाम तुम्हारी बाँह
न इसकी छाती खोदो
स्नेह के पौधे बो दो
*
बब्बा-नाना सा गगन, करता सदा दुलार
धूप चाँदनी वृष्टि दे, जीवन रखें सँवार
धूम्र से मलिन न करिये
कुपित हो जाए न डरिए
*
दादी-नानी सी हवा, दे आशीष दुलार
रुके प्राण निकले- लगे, बहती रहे बयार
धरा माँ को हरिया दें
नेह-नर्मदा बहा दें
*


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