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शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

muktak salila:

मुक्तक सलिला:



बसाया ही नहीं है घर कि जगत अपना है
अधूरा ही रहे जो देखा नहीं सपना है
बाँह में और कोई, चाह में हो और कोई
तुम्हारा होगा हमारा नहीं ये नपना है
*
प्यास औरों की बुझाई है, सदा तृप्त किया
इसलिए तो हुए पूज्य ताल, नदी, कुँआ
बुझाई प्यास सदा हमने भी तो औरों की
मिला न श्रेय क्यों सबने हमें बदनाम किया?
*
देह को बेचता किसान और श्रमिक भी है
देह का दान कर शहीद हुआ सैनिक है
देह का दान किया हमने, भोग सबने किया-
पूज्य हम भी हैं, प्रथा यह सुरों की दैविक है
*
मृदा भी देहरी की सत्य कहें पावन है
शक्ति-आराधकों के लिए यही भावन है 
तंत्र की साधना हमारे बिन नहीं होती
न पूजता जो उजड़ता, न मिलता सावन है
*
हमें है गर्व कमाया हुआ ही खाया है
कभी न घपले-घुटालों में नाम आया है
न नकली माल बनाया, न मिलावट की है
दिया संतोष, तभी दाम थोड़ा पाया है
*
मिटी गृहस्थी तभी जब न तालमेल रहा
दोष क्यों हमको?, प्रीत-दिए में न तेल रहा
हमने सौदों को निभाया ईमानदारी से
प्यार तुमने न किया, ज़िंदगी से खेल किया
*
कहा वारांगना, वैश्या या तवायफ तुमने
बाई, रथ्या से नहीं दिल को लगाया तुमने
सेक्सवर्कर ने तुम्हें सुख दिया हमेशा पर-
वह भी इंसान है, अनुमान न पाया तुमने
*

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