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शनिवार, 22 नवंबर 2014

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नवगीत:

अहर्निश चुप 
लहर सा बहता रहे 

आदमी क्यों रोकता है धार को?
क्यों न पाता छोड़ वह पतवार को 
पला सलिला के किनारे, क्यों रुके?
कूद छप से गव्हर नापे क्यों झुके?

सुबह उगने साँझ को 
ढलता रहे 
हरीतिमा की जयकथा 
कहता रहे 

दे सके औरों को कुछ ले कुछ नहीं 
सिखाती है यही भू माता मही 
कलुष पंकिल से उगाना  है कमल 
धार तब ही बह सकेगी हो विमल 

मलिन वर्षा जल 
विकारों सा बहे  
शांत हों, मन में न 
दावानल दहे 

ऊर्जा है हर लहर में कर ग्रहण  
लग न लेकिन तू लहर में बन ग्रहण 
विहंगम रख दृष्टि, लघुता छोड़ दे 
स्वार्थ साधन की न नाहक होड़ ले 

कहानी कुदरत की सुन, 
अपनी कहे 
स्वप्न बनकर नयन में 
पलता रहे 
***

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