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गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

shiv tandav stotra: hindi kavyanuvad -sanjiv

रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
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श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शव नंदन-वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
*
प्रात स्नान कर, श्वेत वसन धरें कुश-आसन.
मौन करें शिवलिंग, यंत्र, विग्रह का पूजन..
'ॐ नमः शिवाय' जपें रुद्राक्ष माल ले-
बार एक सौ आठ करें, स्तोत्र का पठन..
भाँग, धतूरा, धूप, दीप, फल, अक्षत, चंदन,
बेलपत्र, कुंकुम, कपूर से हो शिव-अर्चन..
उमा-उमेश करें पूरी हर मनोकामना-
'सलिल'-साधन सफल करें प्रभु, निर्मल कर मन..
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: रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
श्रीगणेशाय नमः
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्ड्ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् || १||

सघन जटा-वन-प्रवहित गंग-सलिल प्रक्षालित.
पावन कंठ कराल काल नागों से रक्षित..
डम-डम, डिम-डिम, डम-डम, डमरू का निनादकर-
तांडवरत शिव वर दें, हों प्रसन्न, कर मम हित..१..

सघन जटामंडलरूपी वनसे प्रवहित हो रही गंगाजल की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ को प्रक्षालित करती (धोती) हैं, जिनके गले में लंबे-लंबे, विक्राक सर्पों की मालाएँ सुशोभित हैं, जो डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य कर रहे हैं-वे शिवजी मेरा कल्याण करें.१.
*

जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि |
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम|| २||

सुर-सलिला की चंचल लहरें, हहर-हहरकर,
करें विलास जटा में शिव की भटक-घहरकर.
प्रलय-अग्नि सी ज्वाल प्रचंड धधक मस्तक में,
हो शिशु शशि-भूषित शशीश से प्रेम अनश्वर.. २

जटाओं के गहन कटावों में भटककर अति वेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की लहरें जिन शिवजी के मस्तक पा र्लाहरा रहे एहेन, जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालायें धधक-धधककर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे- बाल-चन्द्रमा से विभूषित मस्तकवाले शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिपल बढ़ता रहे.२.

धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे |
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि || ३||

पर्वतेश-तनया-विलास से परमानन्दित,
संकट हर भक्तों को मुक्त करें जग-वन्दित!
वसन दिशाओं के धारे हे देव दिगंबर!!
तव आराधन कर मम चित्त रहे आनंदित..३..

पर्वतराज-सुता पार्वती के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परमानन्दित (शिव), जिनकी कृपादृष्टि से भक्तजनों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, उन शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा?.३.
*
लताभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे |
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तुभूतभर्तरि || ४||

केशालिंगित सर्पफणों के मणि-प्रकाश की,
पीताभा केसरी सुशोभा दिग्वधु-मुख की.
लख मतवाले सिन्धु सदृश मदांध गज दानव-
चरम-विभूषित प्रभु पूजे, मन हो आनंदी..४..

जटाओं से लिपटे विषधरों के फण की मणियों के पीले प्रकाशमंडल की केसर-सदृश्य कांति (प्रकाश) से चमकते दिशारूपी वधुओं के मुखमंडल की शोभा निरखकर मतवाले हुए सागर की तरह मदांध गजासुर के चरमरूपी वस्त्र से सुशोभित, जगरक्षक शिवजी में रामकर मेरे मन को अद्भुत आनंद (सुख) प्राप्त हो.४.
*
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजस्फुल्लिंगया, निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकं |
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं, महाकलपालिसंपदे सरिज्जटालमस्तुनः ||५||

ज्वाला से ललाट की, काम भस्मकर पलमें,
इन्द्रादिक देवों का गर्व चूर्णकर क्षण में.
अमियकिरण-शशिकांति, गंग-भूषित शिवशंकर,
तेजरूप नरमुंडसिंगारी प्रभु संपत्ति दें..५..

अपने विशाल मस्तक की प्रचंड अग्नि की ज्वाला से कामदेव को भस्मकर इंद्र आदि देवताओं का गर्व चूर करनेवाले, अमृत-किरणमय चन्द्र-कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटावाले नरमुंडधारी तेजस्वी शिवजी हमें अक्षय संपत्ति प्रदान करें.५.
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सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः |
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ||६||

सहसनयन देवेश-देव-मस्तक पर शोभित,
सुमनराशि की धूलि सुगन्धित दिव्य धूसरित.
पादपृष्ठमयनाग, जटाहार बन भूषित-
अक्षय-अटल सम्पदा दें प्रभु शेखर-सोहित..६..

इंद्र आदि समस्त देवताओं के शीश पर सुसज्जित पुष्पों की धूलि (पराग) से धूसरित पाद-पृष्ठवाले सर्पराजों की मालाओं से अलंकृत जटावाले भगवान चन्द्रशेखर हमें चिरकाल तक स्थाई रहनेवाली सम्पदा प्रदान करें.६.
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करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्ध नञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके |
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचनेरतिर्मम || ७||

धक-धक धधके अग्नि सदा मस्तक में जिनके,
किया पंचशर काम-क्षार बस एक निमिष में.
जो अतिदक्ष नगेश-सुता कुचाग्र-चित्रण में-
प्रीत अटल हो मेरी उन्हीं त्रिलोचन-पद में..७..
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अपने मस्तक की धक-धक करती जलती हुई प्रचंड ज्वाला से कामदेव को भस्म करनेवाले, पर्वतराजसुता (पार्वती) के स्तन के अग्र भाग पर विविध चित्रकारी करने में अतिप्रवीण त्रिलोचन में मेरी प्रीत अटल हो.७.
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत् - कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः |
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः || ८||

नूतन मेघछटा-परिपूर्ण अमा-तम जैसे,
कृष्णकंठमय गूढ़ देव भगवती उमा के.
चन्द्रकला, सुरसरि, गजचर्म सुशोभित सुंदर-
जगदाधार महेश कृपाकर सुख-संपद दें..८..

नयी मेघ घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के सघन अन्धकार की तरह अति श्यामल कंठवाले, देवनदी गंगा को धारण करनेवाले शिवजी हमें सब प्रकार की संपत्ति दें.८.
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प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकछिदं तमंतकच्छिदं भजे || ९||

पुष्पित नीलकमल की श्यामल छटा समाहित,
नीलकंठ सुंदर धारे कंधे उद्भासित.
गज, अन्धक, त्रिपुरासुर भव-दुःख काल विनाशक-
दक्षयज्ञ-रतिनाथ-ध्वंसकर्ता हों प्रमुदित..

खिले हुए नीलकमल की सुंदर श्याम-प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कन्धोंवाले, गज, अन्धक, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों को मिटानेवाले, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करनेवाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ.९.
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अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदंबमञ्जरी रसप्रवाहमाधुरी विजृंभणामधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे || १०||

शुभ अविनाशी कला-कली प्रवहित रस-मधुकर,
दक्ष-यज्ञ-विध्वंसक, भव-दुःख-काम क्षारकर.
गज-अन्धक असुरों के हंता, यम के भी यम-
भजूँ महेश-उमेश हरो बाधा-संकट हर..१०..

नष्ट न होनेवाली, सबका कल्याण करनेवाली, समस्त कलारूपी कलियों से नि:सृत, रस का रसास्वादन करने में भ्रमर रूप, कामदेव को भस्म करनेवाले, त्रिपुर नामक राक्षस का वध करनेवाले, संसार के समस्त दु:खों के हर्ता, प्रजापति दक्ष के यज्ञ का ध्वंस करनेवाले, गजासुर व अंधकासुर को मारनेवाले,, यमराज के भी यमराज शिवजी का मैं भजन करता हूँ.१०.
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जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वसद्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् |
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः || ११||

वेगवान विकराल विषधरों की फुफकारें,
दह्काएं गरलाग्नि भाल में जब हुंकारें.
डिम-डिम डिम-डिम ध्वनि मृदंग की, सुन मनमोहक.
मस्त सुशोभित तांडवरत शिवजी उपकारें..११..

अत्यंत वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्निवाले, मृदंग की मंगलमय डिम-डिम ध्वनि के उच्च आरोह-अवरोह से तांडव नृत्य में तल्लीन होनेवाले शिवजी सब प्रकार से सुशोभित हो रहे हैं.११.
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दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः |
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहत || १२||

कड़ी-कठोर शिला या कोमलतम शैया को,
मृदा-रत्न या सर्प-मोतियों की माला को.
शत्रु-मित्र, तृण-नीरजनयना, नर-नरेश को-
मान समान भजूँगा कब त्रिपुरारि-उमा को..१२..

कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शैया, सर्प और मोतियों की माला, मिट्टी के ढेलों और बहुमूल्य रत्नों, शत्रु और मित्र, तिनके और कमललोचनी सुंदरियों, प्रजा और महाराजाधिराजों के प्रति समान दृष्टि रखते हुए कब मैं सदाशिव का भजन करूँगा?
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कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरस्थमञ्जलिं वहन् |
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् || १३||

कुञ्ज-कछारों में गंगा सम निर्मल मन हो,
सिर पर अंजलि धारणकर कब भक्तिलीन हो?
चंचलनयना ललनाओं में परमसुंदरी,
उमा-भाल-अंकित शिव-मन्त्र गुंजाऊँ सुखी हो?१३..

मैं कब गंगाजी कछार-कुंजों में निवास करता हुआ, निष्कपट होकर सिर पर अंजलि धारण किये हुए, चंचल नेत्रोंवाली ललनाओं में परमसुंदरी पार्वती जी के मस्तक पर अंकित शिवमन्त्र का उच्चारण करते हुए अक्षय सुख प्राप्त करूँगा.१३.
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निलिम्पनाथनागरी कदंबमौलिमल्लिका, निगुम्फ़ निर्भरक्षन्म धूष्णीका मनोहरः.
तनोतु नो मनोमुदं, विनोदिनीं महर्नीशं, परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चय:|| १४||

सुरबाला-सिर-गुंथे पुष्पहारों से झड़ते,
परिमलमय पराग-कण से शिव-अंग महकते.
शोभाधाम, मनोहर, परमानन्दप्रदाता,
शिवदर्शनकर सफल साधन सुमन महकते..१४..

देवांगनाओं के सिर में गुंथे पुष्पों की मालाओं से झड़ते सुगंधमय पराग से मनोहर परम शोभा के धाम श्री शिवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानन्दयुक्त हमारे मनकी प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें.१४.

प्रचंडवाडवानल प्रभाशुभप्रचारिणी, महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूतजल्पना.
विमुक्तवामलोचनों विवाहकालिकध्वनि:, शिवेतिमन्त्रभूषणों जगज्जयाम जायतां|| १५||

पापभस्मकारी प्रचंड बडवानल शुभदा,
अष्टसिद्धि अणिमादिक मंगलमयी नर्मदा.
शिव-विवाह-बेला में सुरबाला-गुंजारित,
परमश्रेष्ठ शिवमंत्र पाठ ध्वनि भव-भयहर्ता..१५..

प्रचंड बड़वानल की भाँति पापकर्मों को भस्मकर कल्याणकारी आभा बिखेरनेवाली शक्ति (नारी) स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रोंवाली देवकन्याओं द्वारा शिव-विवाह के समय की गयी परमश्रेष्ठ शिवमंत्र से पूरित, मंगलध्वनि सांसारिक दुखों को नष्टकर विजयी हो.१५.
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इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् || १६||

शिवतांडवस्तोत्र उत्तमोत्तम फलदायक,
मुक्तकंठ से पाठ करें नित प्रति जो गायक.
हो सन्ततिमय भक्ति अखंड रखेंहरि-गुरु में.
गति न दूसरी, शिव-गुणगान करे सब लायक..१६..

इस सर्वोत्तम शिवतांडव स्तोत्र का नित्य प्रति मुक्त कंठ से पाठ करने से भरपूर सन्तति-सुख, हरि एवं गुरु के प्रति भक्ति अविचल रहती है, दूसरी गति नहीं होती तथा हमेशा शिव जी की शरण प्राप्त होती है.१६.
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पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे |
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः || १७||

करें प्रदोषकाल में शिव-पूजन रह अविचल,
पढ़ दशमुखकृत शिवतांडवस्तोत्र यह अविकल.
रमा रमी रह दे समृद्धि, धन, वाहन, परिचर.
करें कृपा शिव-शिवा 'सलिल'-साधना सफलकर..१७..

परम पावन, भूत भवन भगवन सदाशिव के पूजन के नत में रावण द्वारा रचित इस शिवतांडव स्तोत्र का प्रदोष काल में पाठ (गायन) करने से शिवजी की कृपा से रथ, गज, वाहन, अश्व आदि से संपन्न होकर लक्ष्मी सदा स्थिर रहती है.१७.

|| इतिश्री रावण विरचितं शिवतांडवस्तोत्रं सम्पूर्णं||

|| रावणलिखित(सलिलपद्यानुवादित)शिवतांडवस्तोत्र संपूर्ण||

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Shiva Tandava Stotram (शिवताण्डवस्तोत्रम्) 


Shiva Tandava Stotram is a hymn of praise in the Hindu tradition that describes Shiva's power and beauty. It was sung by the son of Rishi Vishrawas (aka Vishrava), Ravana whose brother is Kubera. Both the fourth and fifth quatrains of this hymn conclude with lists of Shiva's epithets as destroyer, even the destroyer of death itself. Alliteration and onomatopoeia create roiling waves of resounding beauty in this example of Hindu devotional poetry.

In the final quatrain of the poem, after tiring of rampaging across the Earth, Ravana asks, "When will I be happy?" Because of the intensity of his prayers and ascetic meditation, of which this hymn was an example, Ravana received from Shiva the boon of indestructibility by all powers on heaven and earth — except by a human being. Disdaining the seeming weakness of humans, Ravana abducted the wife of Rama, Lord Vishnu incarnate. India's great epic, the Ramayana, tells the story of this abduction and of the battle between Lord Rama and Ravana which shook the universe.

The stotra is in the Aryageeti (आर्यागीति) style, a variant of the Arya (आर्य) style. There are 32 syllables per half shloka.

Shiva Tandava Mantra is a great prayer of Dancing Shiva and those who reads Siva Tandav Stotra at the end of every worship or, reads it after worship of Lord Shiva on the Pradosha day, will get by the blessing of Lord Shiva, and the affectionate sight of god of wealth.


Shiva Tandava Stotram


Jatatavee galajjala pravaha pavitasthale,
Gale avalabhya lambithaam bhujanga tunga malikaam,
Damaddamaddama ddama ninnadava damarvayam,
Chakara chanda tandavam tanotu na shivh shivam. 1

That Shiva, Who have long-garlands of the snake king (cobra) at the neck which is purified by the flow of trickling water-drops in the forest-like twisted hair-locks, Who danced the fierce Tāṇḍava-dance to the music of a sounding-drum, — may bless us.[1]


Jata kataha sambhramabhramanillimpa nirjari,
Vilola veechi vallari viraja mana moordhani,
Dhaga dhaga dhaga jjwala lalata patta pavake,
Kishora Chandra shekare ratih prati kshanam mama. 2

At every moment, may I find pleasure in Shiva, Whose head is situated in between the creeper-like unsteady waves of Nilimpanirjharī (Gańgā), in whose head unsteadily fire (energy) is fuming the like twisted hair-locks, Who has crackling and blazing fire at the surface of forehead, and Who has a crescent-moon (young moon) at the forehead.[2]


Dhara dharendra nandini vilasa bhandhu bhandura,
Sphuradriganta santati pramoda mana manase,
Kripa kataksha dhorani niruddha durdharapadi,
Kwachi digambare mano vinodametu vastuni. 3

May my mind seeks happiness in Shiva, Whose mind has the shining universe and all the living-beings inside, Who is the charming sportive-friend of the daughter of the mountain-king of the Earth ( Himālaya's daughter parvati), Whose uninterrupted series of merciful-glances conceals immense-troubles, and Who has direction as His clothes.[3]


Jata bhujanga pingala sphurat phana mani prabha,
Kadamba kumkuma drava pralipta digwadhu mukhe,
Madhandha sindhura sphuratwagu uttariyamedure,
Manovinodamadbhutam bibhartu bhoota bhartari. 4

May my mind hold in Shiva, by Whom — with the light from the jewels of the shining-hoods of creeper-like yellow-snakes — the face of Dikkanyās’ are smeared with Kadamba-juice like red Kuńkuma, Who looks dense due to the glittering skin-garment of an intoxicated elephant, and Who is the Lord of the ghosts.[4]


Lalata chatwara jwaladdhanam jaya sphulingaya,
Nipeeta pancha sayakam namannilimpanayakam,
Sudha mayookha lekhaya virajamana shekharam,
Maha kapali sampade, sirijjatalamastunah. 5

For a long time, may Shiva — Whose foot-basement is grey due to the series of pollen dust from flowers at the head of Indra (Sahasralocana) and all other demi-gods, Whose matted hairlocks are tied by a garland of the king of snakes, and Who has a head-jewel of the friend of cakora bird — produce prosperity.[5]


Sahastralochana prabhrityashesha lekha shekhara,
Prasoona dhooli dhorani vidhu saranghripeethabhuh,
Bhujangaraja Malaya nibaddha jaata jootakah,
Shriyai chiraya jayatam chakora bandhu shekharah. 6

May we acquire the possession of tress-locks of shiva, Which absorbed the five-arrows (of Kaamadeva) in the sparks of the blazing fire stored in the rectangular-forehead, Which are being bowed by the leader of supernatural-beings, Which have an enticing-forehead with a beautiful streak of crescent-moon.[6]



Karala bhala pattika dhagaddhadhagaddha gajjwala,
Ddhananjayahuti kruta prachanda panchasayake ,
Dharadharendra nandini kuchagra chithrapathraka,
Prakalpanaikashilpini, trilochane ratirmama. 7

May I find pleasure in Trilocana, Who offered the five great-arrows (of Kāmadeva) to the blazing and chattering fire of the plate-like forehead, and Who is the sole-artist placing variegated artistic lines on the breasts of the daughter of Himālaya (Pārvatī).[7]


Naveena megha mandali niruddha durdharatsphurat,
Kuhuh nisheethineetamah prabhandha baddha kandharah,
Nilimpa nirjhari dharastanotu krutti sundarah,
Kalanidhana bandhurah shriyam jagat durandharah. 8

May Shiva — Whose cord-tied neck is dark like a night with shining-moon obstructed by a group of harsh and new clouds, Who holds the River Gańgā, Whose cloth is made of elephant-skin, Who has a curved and crescent moon placed at the forehead, and Who bears the universe — expand [my] wealth.[8]


Prafulla neela pankaja prapancha kalimaprabha,
Valambi kantha kandali ruchi prabandha kandharam,
Smarchchhidam purachchhidam bhavachchhidam makhachchhidam,
Gajachchhidandha kachchhidam tamant kachchhidam bhaje. 9

I adore Shiva, Who supports the dark glow of blooming blue lotus series at around the girdle of His neck, Who cuts-off Smara (Kāmadeva), Who cuts-off Pura, Who cuts-off the mundane existence, Who cuts-off the sacrifice (of Dakṣa), Who cuts-off the demon Gaja, Who cuts-off Andhaka, and Who cuts-off Yama (death).[9]


Akharva sarva mangalaa kalaa kadamba manjari,
Rasa pravaha madhuri vijrumbhane madhuvritam,
Smrantakam, purantakam, bhavantakam, makhantakam,
Gajantakandhakantakam tamantakantakam bhaje. 10

I adore Shiva, Who only eats the sweet-flow of nectar from the beautiful flowers of Kadamba-trees which are the abode of all important auspicious qualities, Who destroys Smara (Kāmadeva), Who destroys Pura, Who destroys the mundane existence, Who destroys the sacrifice (of Dakṣa), Who destroys the demon Gaja, Who destroys Andhaka, and Who destroys Yama (death).[10]


Jayatwadabhra vibhrama bhramadbujanga mashwasad,
Vinirgamat, kramasphurat, karala bhala havya vaat,
Dhimiddhimiddhimi maddhwanan mridanga tunga mangala,
Dhwani krama pravartitah prachanda tandawah shivah. 11


May Shiva, Whose dreadful forehead has oblations of plentiful, turbulent and wandering snake-hisses — first coming out and then sparking, Whose fierce tāṇḍava-dance is set in motion by the sound-series of the auspicious and best-drum (ḍamaru) — which is sounding with ‘dhimit-dhimit’ sounds, be victorious.[11]


Drushadwichitra talpayor bhujanga mauktikastrajor,
Garishtha ratna loshtayoh suhrid wipaksha pakshayoh,
Trinara vinda chakshushoh praja mahee mahendrayoh,
Samapravrittikah katha sadashivam bhajamyaham. 12

When will I adore SadāShiva with an equal vision towards varied ways of the world, a snake or a pearl-garland, royal-gems or a lump of dirt, friend or enemy sides, a grass-eyed or a lotus-eyed person, and common men or the king.[12]


Kada nilimpa nirjharee nikunja kotare vasan,
Vimukta durmatih sada shirahstha manjali vahan,
Vilola lola lochane lalama bhala lagnakah,
Shiveti mantra muchcharan kada sukhee bhavamyaham. 13

Living in the hollow of a tree in the thickets of River Gańgā, always free from ill-thinking, bearing añjali at the forehead, free from lustful eyes, and forehead and head bonded, when will I become content while reciting the mantra ‘‘Shiva?’’[13]


Nilimpnath naagaree kadamb mauli mallika,
nigumpha nirbharkshanm dhooshnika manoharah.
tanotu no manomudam vinodineem maharshinam,
parshriyam param padam tadanjatvisham chayah.14

Divine beauty of different parts of Lord Shiv which are enlighted by fragrence of the flowers decorating the twisted hairlocks of angles may always bless us with happiness and pleasure.[14]


prachanda wadavaanal prabha shubh pracharinee,
mahaasht siddhi kaaminee janavahoot jalpana.
vimukta vaam lochano vivaah kaalikdhvanih,
shiveti mantra bhooshano jagajjayaay jaaytaam.15

The Shakti (energy) which is capable of burning all the sins and spreading welfare of all and the pleasent sound produced by angles during enchanting the pious Shiv mantra at the time of Shiv-Parvati Vivah may winover & destroy all the sufferings of the world.[15]


Imam hi nitya meva mukta muttamottamstavam,
Pathantaram bhunannaro vishuddhmeti santatam,
Hare Gurau sa bhaktimashu yati nanyatha gati,
Vimohanam hi dehinaa tu shankarasya chitanam. 16

Reading, remembering, and reciting this eternal, having spoken thus, and the best among best eulogy indeed incessantly leads to purity. In preceptor Hara (Śhiva) immediately the state of complete devotion is achieved; no other option is there. Just the thought of Śhiva (Śhańkara) is enough for the people.[16]


Poojavasana samaye dasha vaktra geetam,
Yah shambhu poojana param pathati pradoshe,
Tasyasthiraam ratha gajendra turanga yuktaam,
Lakshmeem sadaiva sumukheem pradadaati shambuh. 17

At the time of prayer-completion, that who reads this song by Daśavaktra (Rāvaṇa) after the prayer of Śambhu — Śambhu gives him stable wealth including chariots, elephants and horses, and beautiful face.[17]


Iti Shree Ravanavirachitam, Shiva tandava stotram, Sampoornam.

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                               शिव महिम्न स्तोत्र का उनीसवां श्लोक

हरिस्ते साहस्त्रं कमलबलिमाधाय पदयोर्यदेकोने तस्मिन्निजमुदहरन्नेत्रकमलम|   
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषारयाणां रक्षायै त्रिपुरहर! जागर्ति जगताम|१९|
भावानुवाद
शिव-पूजन हित विराजे, हरि ले कमल हजार
एक कमल हरकर रहे, हर चुप दृश्य निहार
नटवर दुविधा-व्यथित हर-कौतुक से अनजान
नयनकमल अर्पण करूँ, मन ही मनमें ठान 
जैसे ही तत्पर हुए, प्रगटे शिव त्रिपुरारि 
रक्षा की दे सुदर्शन चक्र- विव्हल गिरधारि 
*****



बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

dwipadiyan: anjaan -sanjiv

द्विपदियाँ
अनजान 
संजीव
*
अनजान 
दुनिया को जानने की ज़िद करता रहा मगर
मैं अपने आप ही से अनजान रह गया.
*
दंगे-फसाद कर रहे वे जान-बूझकर
मौला भला किया मुझे अनजान ही रखा
*
जानवर अनजान हैं बुराई से 'सलिल'
इंसान जान कर बुराई पालता मिला
*
यूं तो नुमाइंदे हैं वे आम के मगर
हैं आम से अनजान खुद को ख़ास कह रहे
*
अनजान अपने आप से वह शख्स रह गया
जिसने उमर गुज़ार दी औरों की फ़िक्र में
*



CHHAND SALILA: AKHAND CHHAND -SANJIV

छंद सलिला: 
अखण्ड छंद
संजीव 
*
यह वासव जाति (प्रति चरण ८ मात्रा), २ पद, ४ चरण का छंद है जिसमें अन्य कोई बंधन नहीं है.

लक्षण छंद:

चार चरण से दो पद रचिए,
छंद अखंड न बंधन रखिए
चरण-चरण हो अष्ट मात्रिक 
गति लय भाव बिम्ब रस लखिए

उदाहरण:
१. सुनो प्रणेता, बनो विजेता 
    कहो कहानी नित्य सुहानी 
    तजो बहाना वचन निभाना
    सजन सजा ना! साज बजा ना!
    लगा डिठौना, नाचे छौना 
    चाँद चाँदनी, पूत पावनी 
    है अखंड जग, आठ दिशा मग 
    पग-पग चलना, मंज़िल वरना

२. कवि जी युग की करुणा लिखा दो 
    कविता अरुणा-वरुणा लिख दो 
    सरदी-गरमी-बरखा लिख दो 
    बुझना जलना चलना लिख दो 
    रुकना, झुकना, तनना लिख दो 
    गिरना-उठना-बढ़ना लिख दो 
    पग-पग सीढ़ी चढ़ना लिख दो

(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी) 
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शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

chhand salila: chaubola chhand -sanjiv

​छंद सलिला:
१५ मात्रा का तैथिक छंद : चौबोला 
संजीव
*

लक्षण: २  पद, ४ चरण, प्रतिचरण १५ मात्रा, चरणान्त लघु गुरु

लक्षण छंद: 
बाँचौ बोला तिथि पर कथा, अठ-सत मासा भोगे व्यथा
लघु गुरु हो तो सब कुछ भला, उलटा हो तो विधि ने छला 
(संकेत: तिथि = १५ मात्रा, अठ-सत = आठ-सात पर यति, लघु-गुरु चरणान्त)

उदाहरण:
१. अष्टमी-सप्तमी शुभ सदा, हो वही विधि लिखा जो बदा
   कौन किसका हुआ कब कहो, 'सलिल' जल में कमल सम रहो

२. निर्झरिणी जब कलकल बहे, तब निर्मल जल धारा गहे
    रुके तड़ाग में पंक घुले, हो सार्थक यदि पंकज खिले 

३. लोकतंत्र की महिमा यही, ताकत जन के हाथों रही 
   जिसको चाहा उसको चुना, जिसे न चाहा बाहर किया    

(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी) 
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chitra par kavita: doha -sanjiv

चित्र पर कविता
संजीव
*


जब कविता ही सामने, कलम लिये हो हाथ
सलिल नहीं कविता करे, यह कैसे हो नाथ?
*
प्रश्नाकुल हैं नयन पर, उत्तर हुए अशेष
खाली प्याला चाय का, कहे कहानी शेष
*
युग कागज़ को समेटे, तरुणी बनी सवाल
संसद या जम्हूरियत के जी का जंजाल?
*
कोरे कागज़ पर लिखूँ, क्या? जो दे संतोष
जिससे तनिक समृद्ध हो, सरस्वती का कोष
*
श्यामल कंगन हाथ का, युग की नज़र उतार
कहे आम को ही चुनो, ख़ास तजो इस बार
*

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बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

chhand salila: kakubh chhand -sanjiv

​ककुभ / कुकुभ
संजीव
*
(छंद विधान: १६ - १४, पदांत में २ गुरु)
*
यति रख सोलह-चौदह पर कवि, दो गुरु आखिर में भाया
ककुभ छंद मात्रात्मक द्विपदिक, नाम छंद ने शुभ पाया
*
देश-भक्ति की दिव्य विरासत, भूले मौज करें नेता
बीच धार मल्लाह छेदकर, नौका खुदी डुबा देता
*
आशिको-माशूक के किस्से, सुन-सुनाते उमर बीती.
श्वास मटकी गह नहीं पायी, गिरी चटकी सिसक रीती.
*
जीवन पथ पर चलते जाना, तब ही मंज़िल मिल पाये
फूलों जैसे खिलते जाना, तब ही तितली मँडराये
हो संजीव सलिल निर्मल बह, जग की तृष्णा हर पाये
शत-शत दीप जलें जब मिलकर, तब दीवाली मन पाये
*
(ककुभ = वीणा का मुड़ा हुआ भाग, अर्जुन का वृक्ष)
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, ककुभ, कीर्ति, घनाक्षरी, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)

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doha salila: samyikidohe -sanjiv

सामयिक दोहे
संजीव
*
जो रणछोड़ हुए उन्हें, दिया न हमने त्याग
किया श्रेष्ठता से सदा, युग-युग तक अनुराग।
*
मैडम को अवसर मिला, नहीं गयीं क्या भाग?
त्यागा था पद अटल ने, किया नहीं अनुराग।
*
शास्त्री जी ने भी किया, पद से तनिक न मोह
लक्ष्य हेतु पद छोड़ना, नहिं अपराध न द्रोह।
*
केर-बेर ने मिलाये, स्वार्थ हेतु जब हाथ
छोड़ा जिसने पद विहँस, क्यों न उठाये माथ?
*
करते हैं बदलाव की, जब-जब भी हम बात
पूर्व मानकों से करें, मूल्यांकन क्यों तात?
*
विष को विष ही मारता, शूल निकाले शूल
समय न वह जब शूल ले, आप दीजिये फूल
*
सहन असहमति को नहीं, करते जब हम-आप
तज सहिष्णुता को 'सलिल', करें व्यर्थ संताप
**

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

lekh: prem geet men sangeet chetna -sanjiv

प्रेम गीत में संगीत चेतना
संजीव
*
साहित्य और संगीत की स्वतंत्र सत्ता और अस्तित्व असंदिग्ध है किन्तु दोनों के समन्वय और सम्मिलन से अलौकिक सौंदर्य सृष्टि-वृष्टि होती है जो मानव मन को सच्चिदानंद की अनुभूति और सत-शिव-सुन्दर की प्रतीति कराती है. साहित्य जिसमें सबका हित समाहित हो और संगीत जिसे अनेक कंठों द्वारा सम्मिलित-समन्वित गायन१।
वाराहोपनिषद में अनुसार संगीत 'सम्यक गीत' है. भागवत पुराण 'नृत्य तथा वाद्य यंत्रों के साथ प्रस्तुत गायन' को संगीत कहता है तथा संगीत का लक्ष्य 'आनंद प्रदान करना' मानता है, यही उद्देश्य साहित्य का भी होता है.
संगीत के लिये आवश्यक है गीत, गीत के लिये छंद. छंद के लिये शब्द समूह की आवृत्ति चाहिए जबकि संगीत में भी लयखंड की आवृत्ति चाहिए। वैदिक तालीय छंद साहित्य और संगीत के समन्वय का ही उदाहरण है.
अक्षर ब्रम्ह और शब्द ब्रम्ह से साक्षात् साहित्य करता है तो नाद ब्रम्ह और ताल ब्रम्ह से संगीत। ब्रम्ह की
मतंग के अनुसार सकल सृष्टि नादात्मक है. साहित्य के छंद और संगीत के राग दोनों ब्रम्ह के दो रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
साहित्य और संगीत का साथ चोली-दामन का सा है. 'वीणा-पुस्तक धारिणीं भगवतीं जाड्यंधकारापहाम्' - वीणापाणी शारदा के कर में पुस्तक भी है.
'संगीत साहित्य कलाविहीन: साक्षात पशु: पुच्छ विषाणहीनः' में भी साहित्य और संगीत के सह अस्तित्व को स्वीकार किया गया है.
स्वर के बिना शब्द और शब्द के बिना स्वर अपूर्ण है, दोनों का सम्मिलन ही उन्हें पूर्ण करता है.
ग्रीक चिंतक और गणितज्ञ पायथागोरस के अनुसार 'संगीत विश्व की अणु-रेणु में परिव्याप्त है. प्लेटो के अनुसार 'संगीत समस्त विज्ञानों का मूल है जिसका निर्माण ईश्वर द्वारा सृष्टि की विसंवादी प्रवृत्तियों के निराकरण हेतु किया गया है. हर्मीस के अनुसार 'प्राकृतिक रचनाक्रम का प्रतिफलन ही संगीत है.
नाट्य शास्त्र के जनक भरत मुनि के अनुसार 'संगीत की सार्थकता गीत की प्रधानता में है. गीत, वाद्य तथा नृत्य में गीत ही अग्रगामी है, शेष अनुगामी.
गीत के एक रूप प्रगीत (लिरिक) का नामकरण यूनानी वाद्य ल्यूरा के साथ गाये जाने के अधर पर ही हुआ है. हिंदी साहित्य की दृष्टि से गीत और प्रगीत का अंतर आकारगत व्यापकता तथा संक्षिप्तता ही है.
गीत शब्दप्रधान संगीत और संगीत नाद प्रधान गीत है. अरस्तू ने ध्वनि और लय को काव्य का संगीत कहा है. गीत में शब्द साधना (वर्ण अथवा मात्रा की गणना) होती है, संगीत में स्वर और ताल की साधना श्लाघ्य है. गीत को शब्द रूप में संगीत और संगीत को स्वर रूप में गीत कहा जा सकता है.
प्रेम के दो रूप संयोग तथा वियोग श्रृंगार तथा करुण रस के कारक हैं.
प्रेम गीत इन दोनों रूपों की प्रस्तुति करते हैं. आदिकवि वाल्मीकि के कंठ से नि:सृत प्रथम काव्य क्रौंचवध  की प्रतिक्रिया था. पंत जी के नौसर: 'वियोगी होगा पहला कवि / आह से उपजा होगा गान'
लव-कुश द्वारा रामायण का सस्वर पाठ सम्भवतः गीति काव्य और संगीत की प्रथम सार्वजनिक समन्वित प्रस्तुति थी.
लालित्य सम्राट जयदेव, मैथिलकोकिल विद्यापति, वात्सल्य शिरोमणि सूरदास, चैतन्य महाप्रभु, प्रेमदीवानी मीरा आदि ने प्रेमगीत और संगीत को श्वास-श्वास जिया, भले ही उनका प्रेम सांसारिक न होकर दिव्य आध्यात्मिक रहा हो.
आधुनिक हिंदी साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', हरिवंश राय बच्चन आदि कवियों की दृष्टि और सृष्टि में सकल सृष्टि संगीतमय होने की अनुभूति और प्रतीति उनकी रचनाओं की भाषा में अन्तर्निहित संगीतात्मकता व्यक्त करती है.
निराला कहते हैं- "मैंने अपनी शब्दावली को छोड़कर अन्यत्र सभी जगह संगीत के छंदशास्त्र की अनुवर्तिता की है.… जो संगीत कोमल, मधुर और उच्च भाव तदनुकूल भाषा और प्रकाशन से व्यक्त होता है, उसके साफल्य की मैंने कोशिश की है.''
 पंत के अनुसार- "संस्कृत का संगीत जिस तरह हिल्लोलाकार मालोपमा से प्रवाहित होता है, उस तरह हिंदी का नहीं। वह लोल लहरों का चंचल कलरव, बाल झंकारों का छेकानुप्रास है.''
लोक में आल्हा, रासो, रास, कबीर, राई आदि परम्पराएं गीत और संगीत को समन्वित कर आत्मसात करती रहीं और कालजयी हो गयीं।
गीत और संगीत में प्रेम सर्वदा अन्तर्निहित रहा. नव गति, नव लय, ताल छंद नव (निराला), विमल वाणी ने वीणा ली (प्रसाद), बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ (महादेवी), स्वर्ण भृंग तारावलि वेष्ठित / गुंजित पुंजित तरल रसाल (पंत) से प्रेरित समकालीन और पश्चात्वर्ती रचनाकारों की रचनाओं में यह सर्वत्र देखा जा सकता है.
छायावादोत्तर काल में गोपालदास सक्सेना 'नीरज', सोम ठाकुर, भारत भूषण, कुंवर बेचैन आदि के गीतों और मुक्तिकाओं (गज़लों) में प्रेम के दोनों रूपों की सरस सांगीतिक प्रस्तुति की परंपरा अब भी जीवित है.
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doha salila: samyik dohe -salil


सामयिक दोहे
संजीव
*
इनके पंजे में कमल, उनका भगवा हाथ
आम आदमी देखकर, नत दोनों का माथ
*
'राज्य बनाया है' कहो या 'तोडा है राज्य'
तोड़ रही है सियासत, कैसे हों अविभाज्य?
*
भाग्य विधाता आम है, शोषण करता ख़ास
जो खासों का साथ दे, उसको मानो दास
*
साथ आम का दो सलिल, उस पर कर विश्वास
साथ  ख़ास के जो रहा, वह भोगे संत्रास 
*
ख़ास हुआ है वह 'सलिल', जिसे न  भाये आम 
बेच रहा ईमान निज, जो निश-दिन ले दाम 
*
एक द्विपदी:
मिलाकर हाथ खासों ने, किया है आम को बाहर
नहीं लेना न देना ख़ास से, हम आम इन्सां हैं
*
 

chhand salila: chandika chhand -sanjiv

छंद सलिला:
चंडिका छंद
संजीव
*
दो पदी, चार चरणीय, १३ मात्राओं के मात्रिक चंडिका छंद में चरणान्त में गुरु-लघु-गुरु का विधान है.
 

लक्षण छंद:
१. तेरह मात्री चंडिका, वसु-गति सम जगवन्दिता 
   गुरु लघु गुरु चरणान्त हो, श्वास-श्वास हो नंदिता 

२. वसु-गति आठ व पाँच हो, रगण चरण के अंत में 
   रखें चंडिका छंद में, ज्ञान रहे ज्यों संत में 

उदाहरण:

१. त्रयोदशी! हर आपदा, देती राहत संपदा
   श्रम करिये बिन धैर्य खो, नव आशा की फस्ल बो 

२. जगवाणी है भारती,
विश्व उतारे आरती
   ज्ञान-दान जो भी करे, शारद भव से तारती

३. नेह नर्मदा में नहा, राग द्वेष दुःख दें बहा 
   विनत नमन कर मात को, तम तज वरो उजास को 

४. तीन न तेरह में रहे,
जो मिथ्या चुगली कहे
   मौन भाव सुख-दुःख सहे, कमल पुष्प सम हँस बहे

(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
*********

रविवार, 16 फ़रवरी 2014

chhand salila: pradosh chhand -sanjiv

छंद सलिला:
प्रदोष छंद
संजीव
*
दो पदी, चार चरणीय, १२ मात्राओं के मात्रिक प्रदोष छंद में दो चतुष्कल एक पंचकल होते हैं तथा चरणान्त में गुरु-लघु (तगण, जगण) वर्जित हैं.
उदाहरण:
१. प्रदोष व्रत दे शांति सुख, उमेश हर लें भ्रान्ति-दुःख
त्रिदोष मेंटें गजानन, वर दें दुर्गे-षडानन
२. भारत भू है पुरातन, धरती है यह सनातन
जां से प्यारा है वतन, चिन्तन-दर्शन चिरंतन
३. झण्डा ऊंचा तिरंगा, नभ को छूता तिरंगा 

 अपना सपना तिरंगा, जनगण वरना तिरंगा 
 *
१. लक्षण संकेत: उमेश = १२ ज्योतिर्लिंग = १२ मात्रायें
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
*********

charcha: prem geet -salil

चर्चा:
प्रेम गीत
सलिल 
*
स्थापना और प्रतिस्थापना के मध्य संघात, संघर्ष, स्वीकार्यता, सहकार और सृजन सृष्टि विकास का मूल है। विज्ञान बिग बैंग थ्योरी से उत्पन्न ध्वनि तरंग जनित ऊर्जा और पदार्थ की सापेक्षिक विविधता का अध्ययन करता है तो दर्शन और साहित्य अनाहद नाद की तरंगों से उपजे अग्नि और सोम के चांचल्य को जीवन-मृत्यु का कारक कहता है। प्राणमय सृष्टि की गतिशीलता ही जीवन का लक्षण है। यह गतिशीलता वेदना, करुणा, सौन्दर्यानुभूति, हर्ष और श्रृंगार के पञ्चतात्विक वृत्तीय सोपानों पर जीवनयात्रा को मूर्तित करती है। 
 
'जीवन अनुभूतियों की संसृति है। मानव का अपने परिवेश से संपर्क किसी न किसी सुखात्मक या दुखात्मक अनुभूति को जन्म देता है और इन संवेदनों पर बुद्धि की क्रिया-प्रतिक्रिया मूल्यात्मक चिंतन के संस्कार बनती चलती है। विकास की दृष्टि से संवेदन चिंतन के अग्रज रहे हैं क्योंकि बुद्धि की क्रियाशीलता से पहले ही मनुष्य की रागात्मक वृत्ति सक्रिय हो जाती है।'-महादेवी वर्मा, संधिनी, पृष्ठ ११

इस रागात्मक वृत्ति की प्रतीति, अनुभूति और अभिव्यक्ति की प्रेम गीतों का उत्स है। गीत में भावना, कल्पना और सांगीतिकता की त्रिवेणी का प्रवाह स्वयमेव होता है। गीतात्मकता जल प्रवाह, समीरण और चहचहाहट में भी विद्यमान है। मानव समाज की सार्वजनीन और सरकालिक अनुभूतियों को कारलायल ने 'म्यूजिकल थॉट' कहा है. अनुभूतियों के अभिव्यमति कि मौखिक परंपरा से नि:सृत लोक गीत और वैदिक छान्दस पाठ कहने-सुनने की प्रक्रिया से कंठ से कंठ तक गतिमान और प्राणवंत होता रहा। आदिम मनुष्य के कंठ से नि:सृत नाद ब्रम्ह व्यष्टि और समष्टि के मध्य प्रवाहमान होकर लोकगीत और गीत परंपरा का जनक बना। इस जीवन संगीत के बिना संसार असार, लयहीन और बेतुक प्रतीत होने लगता है। अतः जीवन में तुक, लय और सार का संधान ही गीत रचना है। काव्य और गद्य में क्रमशः क्यों, कब, कैसे की चिंतनप्रधानता है जबकि गीत में अनुभूति और भावना की रागात्मकता मुख्य है। गीत को अगीत, प्रगीत, नवगीत कुछ भी क्यों न कहें या गीत की मृत्यु की घोषणा ही क्यों न कर दें गीत राग के कारण मरता नहीं, विरह और शोक में भी जी जाता है। इस राग के बिना तो विराग भी सम्भव नहीं होता।

आम भाषा में राग को प्रेम कहा जाता है और राग-प्रधान गीतों को प्रेम गीत। 
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शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

savaiya geet: vindhyeshwari prasad tripathi 'vinay'

(सवैया गीत)
दुख और जीवन
विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी 'विनय'
*

इस जीवन में दुख ही दुख है, गृह त्याग चलें वन गौतम नाई।
फिर भी संग छूट नहीं दुख से, घर बैठ सुता सुत नारि रोवाई॥
मन सूख रहा जग आतप से, अब नैन वरीष गये हरियाई।
बहु भांति विचार किया हमने, पथ कंटक झेल रहो जग भाई॥

यदि तृप्त नहीं मन तो भटके, जब तोष हुआ दुख तो मिटता है।
पर तृप्त करें किस भांति इसे, यह तो बिन बात के भी हठता है॥
हठवान बड़ा मन मान नहीं, भगवान कहो तुम ही समझाई।
पद पंकज में जब ध्यान लगे, तब छोड़ रहा मन है हठताई॥

मन की हठता सुन है तब ही, जब ही इसको तुम ढील दियो है।
कहता मन लोलुप जो तुम से, उसके सुर में सुर आप दियो है॥
निज आत्म सुनो सच वो कहता, 'वह ईश्वर अंश' कहे बुध भाई।
अनमोल बड़ा यह जीवन है, इसको नर वीर न व्यर्थ गवाई॥

गह सार रहें जग में डट के, दुख झंझट से अब दूर भगें ना।
जग में जब ईश्वर जन्म दिये, तब ईश दिये कुछ कार्य करें ना॥
बिन कर्म किये घर ईश गये, उनको यह सूरत क्यों दिखलाई?
डर रंच नहीं इस जीवन से, जग में रह कर्म करो कुछ भाई॥

chhand salila: nit chhand -sanjiv

​​छंद सलिला:
नित छंद
 
संजीव  
*
दो पदी, चार चरणीय, १२ मात्राओं के मात्रिक नित छंद में चरणान्त में रगण, सगण या नगण होते हैं.
उदाहरण:
१. नित जहाँ होगा नमन, सत
वहाँ होगा रसन
   राशियाँ ले गंग जल, कर रहीं हँस आचमन 
२. जां लुटाते देश पर, जो वही होते अमर 
   तिरंगा जब लहरता, गीत गाता आसमां 
३. नित गगन में रातभर, खेलते तारे नखत
    निशा सँग शशि नाचता, देखकर नभ विहँसता
                                                        *
१. लक्षण संकेत: नित = छंद का नाम, रसन = चरणान्त में रगण, सगण या नगण, राशियाँ = १२ मात्रायें
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि,
​जाया, ​
तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
                                             *********

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

doha salila: valentine -sanjiv

दोहा सलिला:
वैलेंटाइन 
संजीव
*
उषा न संध्या-वंदना, करें खाप-चौपाल
मौसम का विक्षेप ही, बजा रहा करताल
*
लेन-देन ही प्रेम का मानक मानें आप
किसको कितना प्रेम है?, रहे गिफ्ट से नाप
*
बेलन टाइम आगया, हेलमेट धर शीश
घर में घुसिए मित्रवर, रहें सहायक ईश
*
पर्व स्वदेशी बिसरकर, मना विदेशी पर्व
नकद संस्कृति त्याग दी, है उधार पर गर्व
*
उषा गुलाबी गाल पर, लेकर आई गुलाब
प्रेमी सूरज कह रहा, प्रोमिस कर तत्काल
*
धूप गिफ्ट दे धरा को, दिनकर करे प्रपोज  
देख रहा नभ मन रहा, वैलेंटाइन रोज
*
रवि-शशि से उपहार ले, संध्या दोनों हाथ
मिले गगन से चाहती, बादल का भी साथ
*
चंदा रजनी-चाँदनी, को भेजे पैगाम
मैंने दिल कर दिया है, दिलवर तेरे नाम
*
पुरवैया-पछुआ कहें, चखो प्रेम का डोज
मौसम करवट बदलता, जब-जब करे प्रपोज
*

hasya salila: valentine -sanjiv

हास्य सलिला:
वैलेंटाइन पर्व:
संजीव
*
भेंट पुष्प टॉफी वादा आलिंगन भालू फिर प्रस्ताव
लला-लली को हुआ पालना घर से 'प्रेम करें' शुभ चाव
कोई बाँह में, कोई चाह में और राह में कोई और
वे लें टाई न, ये लें फ्राईम, सुबह-शाम बदलें का दौर *

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

chhand salila: siddhi chhand -sanjiv

​​छंद सलिला:
सिद्धि छंद
 
संजीव  
*
       दो पदी, चार चरणीय, ४४ वर्णों, ६९ मात्राओं के मात्रिक सिद्धि छंद में प्रथम चरण इन्द्रवज्रा (तगण तगण जगण २ गुरु) तथा द्वितीय, तृतीय व चतुर्थ चरण उपेन्द्रवज्रा (जगण तगण जगण २ गुरु) छंद के होते हैं.
उदाहरण:
१. आना, न जाना मन में समाना, बना बहाना नज़रें मिलाना
   सुना तराना नज़दीक आना, बना बहाना नयना चुराना 

२. ऊषा लजाये खुद को भुलाये, उठा करों में रवि चूम भागा                               हुए गुलाबी कह गाल क्यों हैं?, करे ठिठोली रतनार मेघा 

३. आकाशचारी उड़ता अकेला, भरे उड़ानें नभ में हमेशा
    न पिंजरे में रहना सुहाता, हरा चना भी उसको न भाता
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, जाया, ​ तांडव, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
*********

hasya salila: lala gulab -sanjiv

हास्य सलिला:
लाल गुलाब
संजीव
*
लालू घर में घुसे जब लेकर लाल गुलाब
लाली जी का हो गया पल में मूड ख़राब
'झाड़ू बर्तन किये बिन नाहक लाये फूल
सोचा, पाकर फूल मैं जाऊंगी सच भूल
लेकिन मुझको याद है ए लाली के बाप!
फूल शूल के हाथ में देख हुआ संताप
चलो रसोई सम्हालो, मैं जाऊं बाज़ार
चलकर पहले पोंछ दो मैली मेरी चार.'
****

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

kruti charcha: bol meri zindagi -sanjiv

कृति चर्चा:
बोल मेरी ज़िंदगी: हिंदी ग़ज़ल का उजला रूप 
चर्चाकार: संजीव वर्मा 'सलिल'
*
               (कृति विवरण: बोल मेरी ज़िंदगी, हिंदी गज़ल संग्रह, चंद्रसेन 'विराट', आकर डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, पृष्ठ १८४, मूल्य ३००रु, समान्तर पब्लिकेशन तराना, उज्जैन)
*
               हिंदी गीतिकाव्य की मुक्तिका परंपरा के शिखर हस्ताक्षरों में प्रमुख, हिंदी की भाषिक शुद्धता के सजग पहरुए, छांदस काव्य के ध्वजवाहक चंद्रसेन विराट का नया हिंदी गज़ल संग्रह 'बोल मेरी ज़िंदगी' हिंदी ग़ज़ल का उज्जवल रूप प्रस्तुत करता है. संग्रह का शीर्षक ही ग़ज़लकार के सृजन-प्रवाह की लहरियों के नर्तन में परिवर्तन का संकेत करता है. पूर्व के ११ हिंदी गज़ल संग्रहों से भिन्न इस संग्रह में भाषिक शुद्धता के प्रति आग्रह में किंचित कमी और भाषिक औदार्य के साथ उर्दू के शब्दों के प्रति पूर्वपेक्षा अधिक सहृदयता परिलक्षित होती है. सम्भवतः सतत परिवर्तित होते परिवेश, नयी पीढ़ी की भाषिक संवेदनाएँ और आवश्यकताएँ तथा समीक्षकीय मतों ने विराट जी को अधिक भाषिक औदार्य की ओर उन्मुख किया है.

               गीतिका,  उदयिका, प्रारम्भिका, अंतिका, पदांत, तुकांत जैसी सारगर्भित शब्दावली के प्रति आग्रही रही कलम का यह परिवर्तन नये पाठक को भले ही अनुभव न हो किन्तु विराट जी के सम्पूर्ण साहित्य से लगातार परिचित होते रहे पाठक की दृष्टि से नहीं चूकता। पूर्व संग्रहों निर्वासन चाँदनी में रूप-सौंदर्य, आस्था के अमलतास में विषयगत व्यापकता, कचनार की टहनी में अलंकारिक प्रणयाभिव्यक्ति, धार के विपरीत में वैषम्य विरोध, परिवर्तन की आहट में सामयिक चेतना, लड़ाई लम्बी है में मानसिक परिष्कार का आव्हान, न्याय कर मेरे समय में व्यंग्यात्मकता, इस सदी का आदमी  में आधुनिकताजन्य विसंगतियों पर चिंता, हमने कठिन समय देखा है में विद्रूपताओं की श्लेषात्मक अभिव्यञ्जना, खुले तीसरी आँख में उज्जवल भविष्य के प्रति आस्था के स्वरों के बाद 'बोल मेरी ज़िंदगी' में आम आदमी की सामर्थ्य पर विश्वास की अभिव्यक्ति का स्वर मुखर हुआ है. विराट जी का प्रबुद्ध और परिपक्व गज़लकार सांस्कारिक प्रतिबद्धता, वैश्विक चेतना, मानवीय गरिमा, राष्ट्रीय सामाजिकता और स्थानीय आक्रोश को तटस्थ दृष्टि से देख-परख कर सत्य की प्रतीति करता-कराता है. 

               विश्व भाषा हिंदी के समृद्धतम छंद भंडार की सुरभि, संस्कार, परंपरा, लोक ग्राह्यता और शालीनता के मानकों के अनुरूप रचित श्रेष्ठ रचनाओं को प्रयासपूर्वक खारिज़ करने की पूर्वाग्रहग्रसित आलोचकीय मनोवृत्ति की अनदेखी कर बह्र-पिंगल के छन्दानुशासन को समान महत्त्व देते हुए अंगीकार कर कथ्य को लोकग्राह्य और प्रभावी बनाकर प्रस्तुत कर विराट जी ने अपनी बात अपने ही अंदाज़ में कही है;

'कैसी हो ये सवाल ज़रा बाद में हल हो 
पहली यह शर्त है कि गज़ल है तो गज़ल हो 
भाषा में लक्षणा हो कि संकेत भरे हों 
हो गूढ़ अर्थवान मगर फिर भी सरल हो'

               अरबी-फ़ारसी के अप्रचलित और अनावश्यक शब्दों का प्रयोग किये बिना छोटी, मझोली और बड़ी बहरों की ग़ज़लों में शिद्दत और संजीदगी के साथ समर्पण का अद्भुत मिश्रण हुआ है इस संग्रह में. विराट जी आलोचकीय दृष्टि की परवाह न कर अपने मानक आप बनाते हैं-

तृप्त हो जाए सुधीजन यह बहुत / फिर समीक्षक से विवेचन हो न हो 
जी सकूँ मैं गीत को कृतकृत्य हो / अब निरंतर गीत लेखन हो न हो 
               ग़ालिब ने अपने अंदाज़े बयां को 'और' अर्थात अनूठा बताया था, विराट जी की 'कहन' अपनी मिसाल आप है :

देह की दूज तो मन गयी / प्रेम की पंचमी रह गयी 
*
मूढ़ है मौज में आज भी / और ज्ञानी परेशान है 
*
मादा सिर्फ न माँ भी तू / नत होकर औरत से कह
*
लूँ न जमीं के बदले में / यह जुमला जन्नत से कह 
*
आते कल के महामहिम बच्चे / उनको उठकर गुलाब दो पहले 
*
गुम्बद का जो मखौल उड़ाती रही सदा / मीनार जलजले में वो अबके ढही तो है 
*
               विराट जी मूलतः गीतकार हैं. उनका गीतकार मुक्तिकाकार का विरोधी नहीं पूरक है. वे गज़ल में भी गीत की दुहाई न सिर्फ देते है बल्कि पूरी दमदारी से देते हैं:

गीत की सर्जना / ज्यों प्रसव-वेदना 
*
जी सकूँ मैं गीत को कृतकृत्य हो / अब निरंतर गीत लेखन हो न हो 
*
क्षमा हरगिज़ न माँगूँगा / ये गर्दन गंग कवि की है 
*
मैं कवि ब्रम्ह रचना में रत हूँ हे देवों!
*
उनका दावा था रचना मौलिक है / वह मेरे गीत की नकल निकली 
*
तू रख मेरे गीत नकद / यश की आय मुझे दे दे 
*
मुक्त कविता के घर में गीतों का / छोड़कर क्यों शिविर गया कोई?
*
हम भावों को गीत बनाने / शब्दों छंदों लय तक पहुँचे 
*
ह्रदय तो गीत से भरता / उदर भरता न पर जिससे 
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मेरे गीत! कुशलता से / मर्मव्यथा मार्दव से कह 
*
गीत! इस मरुस्थल में तू कहाँ चला आया
*
बेच हमने भी दिये गीत नहीं रोयेंगे / पेट भर खायेंगे हम आज बहुत सोयेंगे 
*

               विराट जी हिंदी के वार्णिक-मात्रिक छंदों की नींव पर हिंदी ग़ज़ल के कथ्य की इमारत खड़ी कर उर्दू के बहरो-अमल से उसकी साज-सज्जा  करते हैं. हिंदी ग़ज़लों की इस केसरिया स्वादिष्ट खीर में बराए नाम कुछ कंकर भी हैं जो चाँद में दाग की तरह हैं:
ये मीठी हँसी की अधर की मिठाई / हमें कुछ चखाओ गज़ल कह रहा हूँ 
               यहाँ प्रेमी अपनी प्रेमिका से अधरों की मधुरता चखने का निवेदन कर रहा है. कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से अनेकों को अधर-रस-पान कराने का अनुरोध नहीं कर सकता। अतः, कर्ता एकवचन 'हैम' के स्थान पर 'मैं' होगा। यहाँ वचन दोष है. 

दिल को चट्टान मान बैठे थे / किस कदर अश्रु से सजल निकली 

               यहाँ 'चट्टान' पुल्लिंग तथा 'निकली' स्त्रीलिंग होने से लिंग दोष है. 
पत्नी को क्यों लगाया युधिष्ठिर बताइये / क्यों दाँव पर स्वयं को लगाया नहीं गया?
               महाभारत में वर्णित अनुसार युधिष्ठिर पहले राज्य फिर भाइयों को, फिर स्वयं को तथा अंत में द्रौपदी को हारे थे. अतः, यहाँ तथ्य दोष है. 

               'मौन क्यों रहती है तू' शीर्षक ग़ज़ल में 'रहती है तू, कहती है तू, महती है तू, दहती है तू, ढहती है तू, बहती है तू तथा सहती है तू' के साथ 'वरती है तू' का प्रयोग खटकता है. 

               'वचनों से फिर गया कोई' शीर्षक गज़ल की अंतिम द्विपदी 'यह तो मौसम था उसके खिलने का / हाय, इसमें ही खिर गया कोई' में प्रयुक्त 'खिर' शब्द हिंदी-उर्दू शब्द कोष में नहीं मिला। यहाँ 'ही' को 'हि' की तरह पढ़ना पड़ रहा है जो हिंदी  ग़ज़ल में दोष कहा जायेगा। यदि 'हाय, इसमें बिखर गया कोई' कर दिया जाए तो लय और अर्थ दोनों सध जाते हैं. 
               विराट जी की रचनाओं में पौराणिक मिथकों और दृष्टान्तों का पिरोया जाना स्वाभाविक और सहज है. इस संग्रह का वैशिष्ट्य गीता-महाभारत-कृष्ण सम्बन्धी प्रसंगों का अनेक स्थलों पर विविध सन्दर्भों में मुखर होना है. यथा: हो चुका अन्याय तब भी जातियों के नाम पर / मान्य अर्जुन को किया पर कर्ण ठुकराया गया, बढ़ोगे तुम भी लक्ष्य वो चिड़िया की आँख का / अर्जुन की भाँति खुद को निष्णात तो करो,  उठा दे दखल ज़िंदगी / यक्ष के ताल से चुन कमल ज़िंदगी, प्राप्त माखन नहीं / छाछ को क्यों मथा, सब कोष तो खुले हैं कुबेरों के वास्ते / लेकिन किसी सुदामा को अवसर तो नहीं है, फेन काढ़ता है दंश को उसका अहम् सदा / तक्षक का खानदान है / है तो हुआ करे, समर में कृष्ण ने जो भी युधिष्ठिर से कहलवाया / 'नरो वा कुंजरो वा' में सचाई है- नहीं भी है, हम अपनी डाल पर हैं सुरक्षित तो न चिंता / उन पर बहेलिये का है संधान हमें क्या? मोर का पंख / यश है मुकुट का बना, तुम बिना कृष्ण के अर्जुन हो उठो भीलों से / गोपियाँ उनकी बचा लो कि यही अवसर है, भीष्म से पार्थ बचे और न टूटे प्रण भी / कृष्ण! रथ-चाक उठा लो कि यही अवसर है, भोले से एकलव्य से अंगुष्ठ माँगकर / अर्जुन था द्रोण-शिष्य विरल कर दिया गया, एक सपना तो अर्जुन बने / द्रोण सी शिक्षा-दीक्षा करें आदि. उल्लेखनीय है कि एक ही प्रसंग को दो स्थानों पर दो भिन्नार्थों में प्रयोग किया गया है. यह गज़लकार की असाधारण क्षमता का परिचायक है. 

               सारतः, अनुप्रास, उपमा और दृष्टान्त  विराट जी को सर्वाधिक प्रिय अलंकार हैं जिनका प्रयोग प्रचुरता से हुआ है. विराट जी की शब्द सामर्थ्य स्पृहणीय है. हिंदी शब्दों के साथ संस्कृत, उर्दू तथा देशज शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है जबकि अंगरेजी शब्द (सेंसेक्स, डॉक्टर आदि) अपरिहार्य होने पर अपवाद रूप ही हैं. संग्रह में प्रयुक्त भाषा प्रसाद गुण संपन्न है. व्यंग्यात्मक, अलंकारिक तथा उद्बोधनात्मक शैली में विराट जी पाठक के मन को बाँध पाये हैं. सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों की कसौटी पर चतुर्दिक घट रही राजनैतिक घटनाओं और सामाजिक परिवर्त्तनों के प्रति सजग कवि की सतर्क प्रतिक्रिया गज़लों को पठनीय ही नहीं ग्रहणीय भी बनाती हैं. सामयिक संकलनों की भीड़ में विराट जी का यह संग्रह अपनी परिपक्व चिंतनपूर्ण ग़ज़लों के कारण पाठकों को न केवल भायेगा अपितु बार-बार उद्धृत भी किया जायेगा।
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संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
वार्ता: ०७६१ २४१११३१ / ९४२५१ ८३२४४ 
salil.sanjiv@gmail.com , divya narmada



geet: fahra naheen tiranga -sanjiv

गीत:
फहरा नहीं तिरंगा...
संजीव
*
झुका न शासन-नेत्र शर्म से सुन लें हिंदुस्तान में
फहरा नहीं तिरंगा सोची खेलों के मैदान में...
*
आज़ादी के संघर्षों में जन-गण का हथियार था
शीश चढ़ाने हेतु समुत्सुक लोगों का प्रतिकार था
आज़ादी के बाद तिरंगा आम जनों से दूर हुआ
शासन न्याय प्रशासन गूंगा अँधा बहरा  क्रूर हुआ
झंडा एक्ट बनाकर झंडा ही जनगण से दूर किया
बुझा न पाये लेकिन चाहा बुझे तिरंगा-प्रेम-दिया
नेता-अफसर स्वार्थ साधते खेलों के शमशान में...
*
कमर तोड़ते कर आरोपित कर न घटाते खर्च हैं
अफसर-नेताशाही-भर्रा लोकतंत्र का मर्ज़ हैं
भत्ता नहीं खिलाड़ी खातिर, अफसर करता मौज है
खेल संघ या परम भ्रष्ट नेता-अफसर की फ़ौज है
नूरा कुश्ती मैच करा जनता को ठगते रहे सभी
हुए जाँच में चोर सिद्ध पर शर्म न आयी इन्हें कभी
बिका-बिछा है पत्रकार भी भ्रष्टों के सम्मान में...
*
ससुर पुत्र दामाद पुत्रवधु बेटी पीछे कोई नहीं
खेले नहीं कभी खेलों के आज मसीहा बने वही
लगन परिश्रम त्याग समर्पण तकनीकों की पूछ नहीं
मौज मजा मस्ती अधनंगापन की बिक्री खूब हुई
मुन्नी-शीला बेच जवानी गंदी बात करें खो होश
संत पादरी मुल्ला ग्रंथी बहे भोग में किसका दोष?
खुद के दोष भुला कर ढूँढें दोष 'सलिल' भगवान में...
*

facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

chhand salila: riddhi chhand -sanjiv


​​छंद सलिला:
ऋद्धि छंद
संजीव
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि,
​जाया, ​
तांडव, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सुगति, सुजान, हंसी)

*
दो पदी, चार चरणीय, ४४ वर्ण, ६९ मात्राओं के मात्रिक ऋद्धि छंद में प्रथम- तृतीय-चतुर्थ चरण उपेन्द्र वज्रा छंद के
तथा द्वितीय चरण इंद्र वज्रा छंद के होते हैं.
उदाहरण:
१. करो न बातें कुछ काम भी हो, यों ही नहीं नाम मिला किसी को
   चलो करें काम न सिर्फ बातें, बढ़ो न भूलो निज लक्ष्य साथी
२. चुनाव कैसे करेगी जनता, गुंडे मवाली ही हों खड़े तो?
   न दो किसी को मत आप भाई, भगा उन्हें दो दर से- न रोको
३. बना खिलोने खुश हो विधाता, देखे करे क्या कब कौन कैसा?
    उठो लिखेंगे खुद किस्मतें भी, पुजे हमारा श्रम देवता सा
*********
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शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

chhand salila: jaya chhand -sanjiv

​​छंद सलिला:
जाया छंद
संजीव
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि,
​जाया, ​
तांडव, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सुगति, सुजान, हंसी)

*
दो पदी, चार चरणीय, ४ वर्ण, ६९ मात्राओं के मात्रिक जाया छंद में प्रथम- द्वितीय-तृतीय चरण उपेन्द्र वज्रा छंद के
तथा चतुर्थ चरण इंद्र वज्रा छंद के होते हैं.
उदाहरण:
१. अनाम नाता न निभा सकोगी, प्रणाम माता न डिगा सकोगी
   दिया सहारा जिसने मुझे था, बोलो उसे भी अपना सकोगी?
२. कभी न कोई उपकार भूले, कहीं न कोई प्रतिकार यूँ ले
   नदी तरंगोंवत झूल झूले, तौलो न बोलो कडुआ कभी भी
३. हमें लुभातीं छवियाँ तुम्हारी, प्रिये! न जाओ नज़दीक आओ
    यही तुम्हारी मनकामना है, जानूं! हमीं से सच ना छिपाओ
*********
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शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

ram-ravan yuddha -sanjiv

 
^ उस युद्धभूमि की पहचान कर ली गई जहां श्रीराम जी और रावण के बीच निर्णायक युद्ध किया गया था

अब तक हुए अनुसंधान में भगवान हनुमान का श्रीलंका में उत्तर दिशा में एंट्री प्वांइट नागद्वीप से शुरू होने के निशान मिले हैं। यहीं नहीं अनुसंधान के दौरान उस स्थान की भी तलाश पूरी कर ली गई है जिस स्थान पर राम व रावण के बीच भीषण व निर्णायक जंग हुई थी।

श्रीलंका में आज भी उस युद्धस्थान को युद्धागनावा नाम से जाना जाता है जहां पर रावण का भगवान राम ने वध किया था। इसी स्थान पर दक्षिणा दिशा में दोनारा वह स्थल हैं जहां से प्रभु श्रीराम की सेना ने रावण की सेना पर पहला हमला बोला था। अब यहां पर वन्य जीव सेंचुरी है जहां पर घास के अलावा कोई भी उपज नहीं होती। लंकेश रावण के घर लंका में से जो कुछ खंगाला जा रहा है, वह दुनिया भर में मील का पत्थर साबित हो रहा है। यही नहीं, हिन्दुस्थान में जहां दीपावली पर राम के वापस अयोध्या लौटने पर दीए जलाए जाते हैं, वहीं श्रीलंका में आज भी रावण की मौत के बाद विभीषण के राज्याभिषेक पर दीवाली मनाई जाती है।

श्रीलंका की संसद में विभीषण को लंका के चार भगवानों में से एक के तौर पर मान्यता दी गई है। यहां लोग दीपावली पर दीए तो जलाते ही हैं, आतिशबाजी भी होती है। यह विभीषण के राज्यभिषेक की खुशी में होता है। श्रीलंका में कैलेनिया कस्बे में स्थित बुद्ध मंदिर में यहां विभीषण का मंदिर भी बनाया गया है। इसके मुख्य द्वार पर लक्ष्मणजी द्वारा विभीषण का राजतिलक करते हुए दिखाया गया है। श्रीलंका में रामायण से जुड़ी घटनाओं और इससे जुड़े धार्मिक स्थलों को खोज-खोज कर इन्हें रामायणरूपी एक माला में पिरोया गया है।

श्रीलंका रामायण रिसर्च कमेटी द्वारा पिछले पाँच साल में सेंट्रल व पश्चिमी श्रीलंका के भागों में लगभग 50 रामायण साइट्स की खोज के बाद उन्हें श्रीराम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान, रावण और मेघनाद के साथ जोड़ा गया है। हाल ही में अशोक वाटिका के समीप भगवान हनुमान के विराट रूप के पांवों के निशान भी मिले हैं। यह विराट रूप हनुमानजी ने अशोक वाटिका में उस समय धारण किया था, जब वह माता सीता को भगवान राम की सूचना देने पहुंचे थे। हनुमान जी के छोटे रूप के पांवों के निशान भी यहां खोजे गए हैं। युद्ध स्थल पर जाने से पहले जब श्रीराम ने हनुमानजी को सीता का पता लगाने भेजा तो रास्ते में कुछ दिन हनुमानजी पहाड़ियों में रुके थे। इन पहाड़ियों को रामबोड़ा का नाम दिया गया है। यहां पर अब हनुमानजी का लंका में सबसे पुराना मंदिर है।

श्रीलंका में रावण ने जिस स्थान पर माता सीता को रखा था, उस अशोक वाटिका की तलाश पूरी हो चुकी है। इसे अब सीता टियर पोंड के नाम से जाना जाता है। सीता टियर पोंड आज भी लंका में लोगों के लिए आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। इस टियर पोंड से पहले एक बड़ी-सी झील आती है, जहां कुछ देर रुक कर पर्यटक बोटिंग का लुप्फ लेते हैं।
सीता टियर पोंड के बारे में कहा गया है कि गर्मी के दिनों में जब आसपास के कई तालाब सूख जाते हैं तो भी यह कभी नहीं सूखता। आस-पास का पानी तो मीठा है, लेकिन इसका पानी आंसुओं जैसा खारा है। कहते हैं कि रावण जब सीता माता को हरण करके ले जा रहा था तो इसमें सीताजी के आंसू गिरे थे।

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hasya salila: deewana -sanjiv


हास्य सलिला:
दीवाना 
संजीव
*
लालू ने सीटी फूँकी ज्यों लाली पडी दिखाई
'रे कालू! चेहरे पर काहे दिखती नहीं लुनाई
जीरो फिगर, हाड़ से गायब मांस भुतनिया आई
नहीं फूल या कली शूल है, कैसे करूँ सगाई?
वैलेंटाइन डे पर ले जो फूल कमर झुक जाए
दूध भैंस का पिये तनिक तो कोई इसे समझाए'
"लाली गरजी: ओ रे कालू! भैंसे सा मत फूल
लट्ठ पड़ेगा बापू का तो, चाटेगा तू धूल
लिख-पढ़ ले, कुछ काम-काज कर, क्यों खाता है गाली
रोज रोज़ लाएगा तो भी हाथ न आये लाली"
कालू बोला: तुम दोनों की माया अजब निराली
चैन न पड़ता बिना मिले, क्यों मुझको देते गाली?
खाता कसम न अब से मुझको साथ तुम्हारे आना
बेगानी शादी में क्यों हो अब्दुल्ला दीवाना?
*


 

लड़की ने उत्तर दिया;
डालूंगी मैं तुझको घास कोन्या
आने दूंगी कभी भी पास कोन्या
कुड़ियों का पीछा छोड़ काम-काज कर
पुलिसवाला मेरा बाप हास कोन्या

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