कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
हमने
बोये थे गुलाब
क्यों 
नागफनी उग आयी?
.
दूध पिलाकर
जिनको पाला
बन विषधर
डँसते हैं,
जिन पर
पैर जमा
बढ़ना था
वे पत्त्थर
धँसते हैं.
माँगी रोटी,
छीन लँगोटी
जनप्रतिनिधि
हँसते हैं.
जिनको
जनसेवा
करना था,
वे मेवा 
फँकते हैं.
सपने
बोने थे जनाब
पर
नींद कहो कब आयी?
.
सूत कातकर
हमने पायी
आज़ादी
दावा है.
जनगण
का हित मिल 
साधेंगे 
झूठा हर
वादा है.
वीर शहीदों
को भूले
धन-सत्ता नित  
भजते हैं.
जिनको
देश नया 
गढ़ना था,
वे निज घर  
भरते हैं.
जनता   
ने पूछा हिसाब
क्यों   
तुमने आँख चुरायी?
.
हैं बलिदानों
के वारिस ये
जमी जमीं
पर नजरें.
गिरवी
रखें छीन  
कर धरती
सेठों-सँग
हँस पसरें.
कमल कर रहा  
चीर हरण
खेती कुररी
सी बिलखे.
श्रम को
श्रेय जहाँ
मिलना था
कृषक क्षुब्ध
मरते हैं.
गढ़ ही  
दे इतिहास नया   
अब  
‘आप’ न हो रुसवाई.

*

कोई टिप्पणी नहीं: