कुल पेज दृश्य

शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

navgeet: संजीव

नवगीत  : 
संजीव
*
द्रोण में 
पायस लिये
पूनम बनी,
ममता सनी
आयी सुजाता,
बुद्ध बन जाओ.
.
सिसकियाँ
कब मौन होतीं?
अश्रु
कब रुकते?
पर्वतों सी पीर
पीने
मेघ रुक झुकते.
धैर्य का सागर
पियें कुम्भज
नहीं थकते.
प्यास में,
संत्रास में
नवगीत का
अनुप्रास भी
मन को न भाता.
युद्ध बन जाओ.
.
लहरियां
कब रुकीं-हारीं.
भँवर
कब थकते?
सागरों सा धीर
धरकर
मलिनता तजते.
स्वच्छ सागर सम
करो मंथन
नहीं चुकना.
रास में
खग्रास में
परिहास सा
आनंद पाओ
शुद्ध बन जाओ.
.

कोई टिप्पणी नहीं: