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शनिवार, 4 जुलाई 2015

एक ग़ज़ल : और कुछ कर या न कर...

और कुछ कर या न कर ,इतना तो कर
आदमी को आदमी  समझा  तो  कर

उँगलियाँ जब भी उठा ,जिस पे उठा
सामने इक आईना रख्खा  तो कर 

आज तू है अर्श पर ,कल खाक में
इस अकड़ की चाल से तौबा तो कर

बन्द कमरे में घुटन महसूस होगी
दिल का दरवाजा खुला रख्खा तो कर

दस्तबस्ता सरनिगूँ  यूँ  कब तलक ?
मर चुकी ग़ैरत अगर ,ज़िन्दा तो कर

सिर्फ़ तख्ती पर न लिख नारे नए
इन्क़लाबी जोश भी पैदा तो कर

हो चुकी  अल्फ़ाज़ की  जादूगरी
छोड़ जुमला ,काम कुछ अच्छा तो कर 

कुछ इबारत है लिखी  दीवार पर
यूँ कभी ’आनन’ इसे देखा तो कर

शब्दार्थ
दस्तबस्ता ,सरनिगूँ = हाथ जोड़े सर झुकाए

-आनन्द.पाठक-
09413395592

1 टिप्पणी:

संजीव ने कहा…

बहुत खूब