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गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

laghukatha

लघु कथा -
आदमी जिंदा है
*
साहित्यिक आयोजन में वक्ता गण साहित्य की प्रासंगिकता पर चिंतन कम और चिंता अधिक व्यक्त कर रहे थे। अधिकांश चाहते थे कि सरकार साहित्यकारों को आर्थिक सहयोग दे क्योंकि साहित्य बिकता नहीं, उसका असर नहीं होता।

भोजन काल में मैं एक वरिष्ठ साहित्यकार से भेंट करने उनके निवास पर जा ही रहा था कि हरयाणा से पधारे अन्य साहित्यकार भी साथ हो लिये। राह में उन्हें आप बीती बताई- 'कई वर्ष पहले व्यापार में लगातार घाटे से परेशं होकर मैंने आत्महत्या का निर्णय लिया और रेल स्टेशन पहुँच गया, रेलगाड़ी एक घंटे विलंब से थी। मरता क्या न करता प्लेटफ़ॉर्म पर टहलने लगा। वहां गीताप्रेस गोरखपुर का पुस्तक विक्रय केंद्र खुला देख तो समय बिताने के लिये एक किताब खरीद कर पढ़ने लगा। किताब में एक दृष्टान्त को पढ़कर न जाने क्या हुआ, वापिस घर आ गया। फिर कोशिश की और सफलता की सीढ़ियाँ चढ़कर आज सुखी हूँ। व्यापार बेटों को सौंप कर साहित्य रचता हूँ। शायद इसे पढ़कर कल कोई और मौत के दरवाजे से लौट सके। भोजन छोड़कर आपको आते देख रुक न सका, आप जिनसे मिलाने जा रहे हैं, उन्हीं की पुस्तक ने मुझे नवजीवन दिया।

साहित्यिक सत्र की चर्चा से हो रही खिन्नता यह सुनते ही दूर हो गयी। प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता? सत्य सामने था कि साहित्य का असर आज भी बरकरार है, इसीलिये आदमी जिंदा है।
***

navgeet

एक रचना
काम न काज
*
काम न काज
जुबानी खर्चा
नये वर्ष का कोरा पर्चा
*
कल सा सूरज उगे आज भी
झूठा सच को ठगे आज भी
सरहद पर गोलीबारी है
वक्ष रक्त से सने आज भी
किन्तु सियासत कहे करेंगे
अब हम प्रेम
भाव की अर्चा
*
अपना खून खून है भैया
औरों का पानी रे दैया!
दल दलबंदी के मारे हैं
डूबे लोकतंत्र की नैया
लिये ले रहा जान प्रशासन
संसद करती
केवल चर्चा
*
मत रोओ, तस्वीर बदल दो
पैर तले दुःख-पीर मसल दो
कृत्रिम संवेदन नेता के
लौटा, थोड़ी सीख असल दो
सरकारों पर निर्भर मत हो
पायें आम से
खास अनर्चा
***

बुधवार, 30 दिसंबर 2015

navgeet

एक रचना:
*
सोलह साला
सदी हुई यह
*
सपनीली आँखों में आँसू
छेड़ें-रेपें हरदिन धाँसू 
बहू कोशिशी झुलस-जल रही
बाधा दियासलाई सासू
कैरोसीन ननदिया की जय
माँग-दाँव पर
लगी हुई सह
सोलह साला
सदी हुई यह
*
मालिक फटेहाल बेचारा
नौकर का है वारा-न्यारा
जीना ही दुश्वार हुआ है
विधि ने अपनों को ही मारा
नैतिकता का पल-पल है क्षय
भाँग चाशनी
पगी हुई कह
सोलह साला
सदी हुई यह
*
रीत पुरातन ज्यों की त्यों है
मत पूछो कैसी है?, क्यों है?
कहीं बोलता है सन्नाटा
कहीं चुप्प बैठी चिल्ल-पों है
अंधियारे की दिवाली में
ज्योति-कालिमा
सगी हुई ढह
सोलह साला
सदी हुई यह
*

navgeet

एक रचना -
हिंदी भाषी 
*
हिंदी भाषी ही 
हिंदी की 
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
हिंदी जिनको
रास न आती
दीगर भाषा बोल न पाते।
*
हिंदी बोल, समझ, लिख, पढ़ते
सीढ़ी-दर सीढ़ी है चढ़ते
हिंदी माटी,हिंदी पानी
श्रम करके मूरत हैं गढ़ते
मैया के माथे
पर बिंदी
मदर, मम्मी की क्यों चिपकाते?
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
जो बोलें वह सुनें - समझते
जो समझें वह लिखकर पढ़ते
शब्द-शब्द में अर्थ समाहित
शुद्ध-सही उच्चारण करते
माँ को ठुकरा
मौसी को क्यों
उसकी जगह आप बिठलाते?
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
मनुज-काठ में पंचस्थल हैं
जो ध्वनि के निर्गमस्थल हैं
तदनुसार ही वर्ण विभाजित
शब्द नर्मदा नद कलकल है
दोष हमारा
यदि उच्चारण
सीख शुद्ध हम नहीं सिखाते
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
अंग्रेजी के मोह में फँसे
भ्रम-दलदल में पैर हैं धँसे
भरम पाले यह जगभाषा है
जाग पायें तो मोह मत ग्रसे
निज भाषा का
ध्वज मिल जग में
हम सब काश कभी फहराते
***

navgeet

एक रचना
*
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
वही रफ़्तार बेढंगी
जो पहले थी, सो अब भी है
दिशा बदले न गति बदले
निकट हो लक्ष्य फिर कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
हरेक चेहरा है दोरंगी
न मेहनत है, न निष्ठा है
कहें कुछ और कर कुछ और
अमिय हो फिर गरल कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
हुई सद्भाव की तंगी
छुरी बाजू में मुख में राम
धुआँ-हल्ला दसों दिश है
कहीं हो अमन फिर कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
***

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

laghukatha :

लघुकथा:
करनी-भरनी
*
अभियांत्रिकी महाविद्यालय में परीक्षा का पर्यवेक्षण करते हुए शौचालयों में पुस्तकों के पृष्ठ देखकर मन विचलित होने लगा। अपना विद्यार्थी काल में पुस्तकों पर आवरण चढ़ाना, मँहगी पुस्तकों की प्रति तैयार कर पढ़ना, पुस्तकों में पहचान पर्ची रखना ताकि पन्ने न मोड़ना पड़े, वरिष्ठ छात्रों से आधी कीमत पर पुस्तकें खरीदना, पढ़ाई कर लेने पर अगले साल कनिष्ठ छात्रों को आधी कीमत पर बेच अगले साल की पुस्तकें खरीदना, पुस्तकालय में बैठकर नोट्स बनाना, आजीवन पुस्तकों में सरस्वती का वास मानकर खोलने के पूर्व नमन करना, धोखे से पैर लग जाए तो खुद से अपराध हुआ मानकर क्षमाप्रार्थना करना आदि याद हो आया। 

नयी खरीदी पुस्तकों के पन्ने बेरहमी से फाड़ना, उन्हें शौच पात्रों में फेंक देना, पैरों तले रौंदना क्या यही आधुनिकता और प्रगतिशीलता है? 

रंगे हाथों पकड़ेजानेवालों की जुबां पर गिड़गड़ाने के शब्द पर आँखों में कहीं पछतावे की झलक नहीं देखकर स्तब्ध हूँ। प्राध्यापकों और प्राचार्य से चर्चा में उन्हें इसकी अनदेखी करते देखकर कुछ कहते नहीं बनता। उनके अनुसार वे रोकें या पकड़ें तो उन्हें जनप्रतिनिधियों, अधिकारियों या गुंडों से धमकी भरे संदेशों और विद्यार्थियों के दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है। तब कोई साथ नहीं देता। किसी तरह परीक्षा समाप्त हो तो जान बचे। उपाधि पा भी लें तो क्या, न ज्ञान होगा न आजीविका मिलेगी, जैसा कर रहे हैं वैसा ही भरेंगे।
***

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

laghukatha

लघुकथा-
सफ़ेद झूठ
*
गाँधी जयंती की सुबह दूरदर्शन पर बज रहा था गीत 'दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल', अचानक बेटे ने उठकर टीवी बंद कर दिया। कारण पूछने पर बोला- '१८५७ से लेकर १९४६ में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के अज्ञातवास में जाने तक क्रांतिकारियों ने आत्म-बलिदान की अनवरत श्रंखला की अनदेखी कर ब्रिटेन  संसद सदस्यों से  में प्रश्न उठवानेवालों को शत-प्रतिशत श्रेय देना सत्य से परे है. सत्यवादिता के दावेदार के जन्म दिन पर कैसे सहन किया जा सकता है सफ़ेद झूठ?
***     

laghukatha

लघुकथा -
कब्रस्तान
*
महाविद्यालय के प्राचार्य मुख्य अतिथि को अपनी संस्था की गुणवत्ता और विशेषताओं की जानकारी दे रहे थे. पुस्तकालय दिखलाते हुए जानकारी दी की हमारे यहाँ विषयों की पाठ्य पुस्तकें तथा सन्दर्भ ग्रंथों के साथ-साथ अच्छा साहित्य भी है. हम हर वर्ष अच्छी मात्र में साहित्यिक पुस्तकें भी क्रय करते हैं.
आतिथि ने उनकी जानकारी पर संतोष व्यक्त करते हुए पुस्तकालय प्रभारी से जानना चाहा कि गत २ वर्षों में कितनी पुस्तकें क्रय की गयीं, विद्यार्थियों ने कितनी पुस्तकें पढ़ने हेतु लीं तथा किन पुस्तकों की माँग अधिक थी? उत्तर मिला इस वर्ष क्रय की गयी पुस्तकों की आदित जांच नहीं हुई है, गत वर्ष खरीदी गयी पुस्तकें दी नहीं जा रहीं क्योंकि विद्यार्थी या तो विलम्ब से वापिस करते हैं या पन्ने फाड़ लेते हैं.
नदी में बहते पानी की तरह पुस्तकालय से प्रतिदिन पुस्तकों का आदान-प्रदान न हो तो उसका औचित्य और सार्थकता ही क्या है? तब तो वह किताबों का कब्रस्तान ही हो जायेगा, अतिथि बोले और आगे चल दिए.
***

रविवार, 27 दिसंबर 2015

navgeet

एक रचना- 
*
सल्ललाहो अलैहि वसल्लम
*
सल्ललाहो अलैहि 
वसल्लम
क्षमा करें सबको 
हम हरदम 
*
सब समान हैं, ऊँच न नीचा 
मिले ह्रदय बाँहों में भींचा 
अनुशासित रह करें इबादत 
ईश्वर सबसे बड़ी नियामत 
भुला अदावत, क्षमा दान कर
द्वेष-दुश्मनी का 
मेटें तम 
सल्ललाहो अलैहि 
वसल्लम
*
तू-मैं एक न दूजा कोई
भेदभाव कर दुनिया रोई 
करुणा, दया, भलाई, पढ़ाई 
कर जकात सुख पा ले भाई 
औरत-मर्द उसी के बंदे 
मिल पायें सुख 
भुला सकें गम
सल्ललाहो अलैहि 
वसल्लम
*
ज्ञान सभ्यता, सत्य-हक़ीक़त
जगत न मिथ्या-झूठ-फजीहत 
ममता, समता, क्षमता पाकर 
राह मिलेगी, राह दिखाकर 
रंग- रूप, कद, दौलत, ताकत 
भुला प्रेम का 
थामें परचम 
सल्ललाहो अलैहि 
वसल्लम
*
कब्ज़ा, सूद, इजारादारी
नस्लभेद घातक बीमारी 
कंकर-कंकर में है शंकर 
हर इंसां में है पैगंबर
स्वार्थ छोड़कर, करें भलाई 
ईशदूत बन 
संग चलें हम 
सल्ललाहो अलैहि 
वसल्लम
*      

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एक रचना -
हिंदी भाषी 
*
हिंदी भाषी ही 
हिंदी की 
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
हिंदी जिनको
रास न आती
दीगर भाषा बोल न पाते।
*
हिंदी बोल, समझ, लिख, पढ़ते
सीढ़ी-दर सीढ़ी है चढ़ते
हिंदी माटी,हिंदी पानी
श्रम करके मूरत हैं गढ़ते
मैया के माथे
पर बिंदी
मदर, मम्मी की क्यों चिपकाते?
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
जो बोलें वह सुनें - समझते
जो समझें वह लिखकर पढ़ते
शब्द-शब्द में अर्थ समाहित
शुद्ध-सही उच्चारण करते
माँ को ठुकरा
मौसी को क्यों
उसकी जगह आप बिठलाते?
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
मनुज-काठ में पंचस्थल हैं
जो ध्वनि के निर्गमस्थल हैं
तदनुसार ही वर्ण विभाजित
शब्द नर्मदा नद कलकल है
दोष हमारा
यदि उच्चारण
सीख शुद्ध हम नहीं सिखाते
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
अंग्रेजी के मोह में फँसे
भ्रम-दलदल में पैर हैं धँसे
भरम पाले यह जगभाषा है
जाग पायें तो मोह मत ग्रसे
निज भाषा का
ध्वज मिल जग में
हम सब काश कभी फहराते
***

navgeet

एक रचना:
*
तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
*
लीक छोड़ तीनों चलें
शायर सिंह सपूत
लीक-लीक तीनों चलें
कायर स्यार कपूत
बहुत लड़े, आओ बने
आज शांति के दूत
दिल से लगाया
और
अंतर भुलाये रे
तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
*
राह दोस्ती की चलें
चलो शत्रुता भूल
हाथ मिलायें आज फिर
दें न भेद को तूल
मिल बिखराएँ फूल कुछ
दूर करें कुछ शूल
जग चकराया
और
हम मुस्काये रे
तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
*
जिन लोगों के वक्ष पर
सर्प रहे हैं लोट
उनकी नजरों में रही
सदा-सदा से खोट
अब मैं-तुम हम बन करें
आतंकों पर चोट
समय न बोले
मौके
हमने गँवाये रे!तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
*

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

उर्दू शायरी में माहिया निगारी

प्रिय मित्रो !
पिछले कुछ दिनों से इसी मंच पर क़िस्तवार :"माहिया" लगा रहा था जिसे पाठकों ने काफ़ी पसन्द किया और सराहा भी। कुछ पाठको ने "माहिया" विधा के बारे में जानना चाहा कि माहिया क्या है ,इसके विधान /अरूज़ी निज़ाम क्या है ?
अत: इसी को ध्यान में रखते हुए यह आलेख : "उर्दू शायरी में माहिया निगारी" लगा रहा हूँ --मेरी इस कोशिश से शायद इस विधा पर कुछ रोशनी पड़ सके\

एक बात और...
चूंकि यह मंच कविता आदि के लिए निर्धारित है अत: आलेख का लगाना शायद मुनासिब न था ,मगर मज़बूरी यह है कि इसी मंच पर ’माहिया’ लगाता रहा अत: वज़ाहत/तफ़्सीलात भी यहीं लगाना मुनासिब समझा ---धृष्टता के लिए क्षमा-प्रार्थी हूँ

उर्दू शायरी में ’माहिया निगारी’[माहिया लेखन]

उर्दू शायरी में वैसे तो बहुत सी विधायें प्रचलित हैं जैसे क़सीदा,मसनवी,मुसम्मत,क़ता,रुबाई,तरजीह बन्द.तरक़ीब बन्द मुस्तज़ाद,फ़र्द,मर्सिया,हम्द,ना’त,मन्क़बत,ग़ज़ल,नज़्म वगैरह।परन्तु इन सबमें ज़्यादा लोकप्रिय विधा ग़ज़ल ही है । इन सब के अपनी अरूज़ी इस्तलाहत [परिभाषायें] है, अपने असूल है ,अपनी क़वायद हैं। ना’त के साथ तो सबसे ख़ास बात ये है कि ना’त नंगे सर नहीं पढ़ते ।ना’त पढ़ते वक़्त ,शायर सर पर रुमाल ,कपड़ा ,तौलिया या टोपी रख कर पढ़ते हैं। यह बड़ी मुक़द्दस [पवित्र] विधा है।
परन्तु हाल के कुछ दशकों से उर्दू शायरी में 2-अन्य विधायें बड़ी तेजी से प्रयोग में आ रहीं हैं- माहिया निगारी और हाईकू ।हाईकू यूँ तो जापानी काव्य विधा है मगर इस का प्रयोग ’हिन्दी’ और उर्दू दोनों में समान रूप से किया जा रहा है।अभी ये शैशवास्था में हैं।परन्तु माहिया उर्दू शायरी में बड़ी तेजी से मक़बूल हो रही है।
’माहिया’ वैसे तो पंजाबी लोकगीत में सदियों से प्रचलित है और काफी लोकप्रिय भी है जैसे हमारे पूर्वांचल में ’कजरी’ ’चैता’ लोकगीत हैं ।परन्तु माहिया को उर्दू शायरी का विधा बनाने में पाकिस्तान के शायर [जो आजकल जर्मनी में प्रवासी हैं] हैदर क़ुरेशी साहब का काफी योगदान है। माहिया का शाब्दिक अर्थ ही होता प्रेमिका [beloved ] और इसकी [theme] ग़ज़ल की तरह हिज्र-[-वियोग] ही है परन्तु आप चाहे तो और theme पे माहिया कह सकते है ,मनाही नहीं है ।बहुत से गायकों ने और पंजाब के आंचलिक गायकों ने माहिया गाया है। दृष्टान्त के लिए एक [link] लगा रहा हूँ जगजीत सिंह और चित्रा सिंह ने गाया है जो पंजाबी में बहुत ही मशहूर और लोकप्रिय माहिया है http://www.youtube.com/watch?v=5CV6w01O95Q

"कोठे ते आ माहिया
मिलणा ता मिल आ के
नहीं ता ख़स्मा नूँ खा माहिया"

आप सभी ने हिन्दी फ़िल्म फ़ागुन [1958] [भारत भूषण और मधुबाला] संगीत ओ पी नैय्यर का वो गीत ज़रूर सुना होगा जिसे मुहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले जी ने गाया है

" तुम रूठ के मत जाना
मुझ से क्या शिकवा
दीवाना है दीवाना

यूँ हो गया बेगाना
तेरा मेरा क्या रिश्ता
ये तू ने नहीं जाना

यह माहिया है ।
दरअस्ल माहिया 3-मिसरों की उर्दू शायरी में एक विधा है जिसमें पहला मिसरा और तीसरा मिसरा हम क़ाफ़िया [और हमवज़्न भी] होते हैं और दूसरा मिसरा हमकाफ़िया हो ज़रूरी नहीं । दूसरे मिसरे में 2-मात्रा [एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़] कम होता है।
डा0 आरिफ़ हसन खां जो उर्दू के मुस्तनद अरूज़ी और शायर हैं जो मुरादाबाद [उ0प्र0] में क़याम फ़र्माते हैं ।डा0 साहब उर्दू साहित्य जगत और शैक्षिक जगत में एक नामाचीन हस्ती है,आप ने उर्दू में दर्जनों किताबें लिखीं और अवार्ड प्राप्त किए हैं। [शायद मेरी उर्दू आशनाई देखते हुए] बतौर-ए-सौगात आप ने अपनी एक किताब ’ख़्वाबों की किरचें’ [माहिया संग्रह] की एक लेखकीय प्रति बड़ी मुहब्बत से मुझें भेंट में किया है

यह किताब उर्दू में है और इस में 117 माहिया संकलित है। अपने हिन्दीदां दोस्तों की सुविधा के लिए इस किताब को मैंने बड़े शिद्दत-ओ- शौक़ से हिन्दी में ’लिप्यन्तरण’[Transliteration] किया है और डा0 साहब से नज़र-ए-सानी भी करा लिया है। ।आप ने बड़ी ख़लूस-ओ-मुहब्बत से इस बात की इजाज़त दे दी है कि हिन्दी के पाठकों के लिए इसे मैं अपने ब्लाग [www.hindi-se-urdu.blogspot.in] पर सिलसिलेवार लगा सकता हूं
माहिया के बारे में चन्द हक़ायक़ उन्हीं किताब से [जो उन्होने तम्हीद [प्राक्कथन/भूमिका]के तौर पर लिखा है हू-ब-हू दर्ज-ए-ज़ैल [निम्न लिखित] है
चन्द हक़ायक़ [कुछ तथ्य]

माहिया दरअस्ल पंजाब की अवामी शे’री सिन्फ़ [साहित्यिक विधा] है।उर्दू में इसे मुतआर्रिफ़ [परिचित] कराने का सेहरा [श्रेय] सरज़मीन पंजाब के एक शायर हिम्मत राय शर्मा के सर है जिन्होने फ़िल्म ’ख़ामोशी’ के लिए 1936 में माहिया लिख कर उर्दू में माहिया निगारी का आग़ाज़ किया।
इस के तक़रीबन 17 साल बाद क़तील शिफ़ाई ने पाकिस्तानी फ़िल्म ’हसरत’ के लिए 1953 में माहिए लिखे।क़मर जलालाबादी ने 1958 में फ़िल्म ’फ़ागुन’ के लिए माहिए लिखे। इस के बाद चन्द और फ़िल्मों के लिए भी शायरों ने माहिए लिखे जो काफी मक़बूल [लोकप्रिय] हुए।लेकिन माहिए लिखे जाने का ये सिलसिला चन्द फ़िल्मों के बाद मुनक़तअ [ख़त्म] हो गया और बीसवीं सदी की आठवीं औए नौवीं दहाई [दशक] में माहिया शो’अरा [शायरों] की अदम तवज्जही [उपेक्षा] का शिकार रहा । लेकिन सदी की आख़िरी दहाई माहिया के हक़ में बड़ी साज़गार साबित हुई और एक बार फिर शो’अरा ने माहियों की तरफ़ न सिर्फ़ तवज्जो दी बल्कि माहिया निगारी एक तहरीक [आन्दोलन] की शकल में नमूदार [प्रगट] हुई। गुज़िश्ता [पिछले] पाँच-छ: साल की मुद्दत में शायरों की एक बड़ी तादाद इस सिन्फ़ की तरफ़ मुतवज्ज: [आकर्षित] हुई है। माहिया निगारी की इस तहरीक में जर्मनी में मुक़ीम [प्रवासी] पाकिस्तानी शायर हैदर क़ुरेशी की कोशिशों को बहुत दख़ल है और बिला शुबह [नि:सन्देह] बहुत से शायर इन की तहरीक पर ही इस सिन्फ़ की तरफ़ मुतवज्ज हुए। वजह जो भी ,बहरहाल गुज़िश्ता 5-6 साल में मुख़तलिफ़ [विभिन्न]अदबी रिसाईल ने [साहित्यिक पत्रिकाओं ने] माहिये पर मज़ामीन [कई आलेख ] शायअ [प्रकाशित]किए। कुछ ने माहिया नम्बर [विशेषांक] और माहिए पर गोशे [ स्तम्भ ] निकाले और माहिए की शमूलियत [शामिल करना] तो अब तक़रीबन हर एक अदबी रिसाले में होती ही है।
माहिये के सिलसिले में एक बहस अभी नाक़िदीन[ आलोचकों] और शो’अरा में जारी है कि इस का दुरुस्त वज़न क्या है? बाज़ [कुछ लोगों ] के नज़दीक [ और अक्सरीयत [बहुत लोगों ] का यही ख़याल है] कि माहिया का पहला और तीसरा मिसरा हम वज़न [और हम क़ाफ़िया भी] होते हैं जबकि दूसरा मिसरा इन के मुक़ाबिले में एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कम होता है । लेकिन बाज़ के नज़दीक तीनों मिसरों का वज़न बराबर होता है। बहर हाल अक्सरीयत के ख़याल को तर्जीह [ प्रधानता] देते हुए माहिया के का दुरुस्त वज़्न पहले और तीसरे मिसरे के लिए फ़एलुन् ,फ़एलुन् .फ़एलुन् /फ़एलान्] मुतदारिक मख़बून /मख़बून मज़ाल] और दूसरे मिसरे के लिए फ़ेलु .. फ़ऊल्.. फ़अल्/फ़ऊल् [मुतक़ारिब् असरम् मक़्बूज़् महज़ूफ़् /मक़सूर्] है। इन दोनों औजान [वज़्नों] पर बित्तरतीब [क्रमश:] तकसीन और तख़नीक़ के अमल हैं। मुख़तलिफ़ मुतबादिल औज़ान [वज़न बदल बदल कर विभिन्न वज़्न के रुक्न] हासिल किए जा सकते हैं [तफ़सील [विवेचना ] के लिए मुलाहिज़ा कीजिए राकिम उस्सतूर [इन पंक्तियों के लेखक] की किताब ’ मेराज़-उल-अरूज़’ का बाब माहिए के औज़ान]। अकसर-ओ-बेशतर[प्राय:] शायरों ने इन औज़ान में ही माहिए कहे हैं
राकिम-उस्सतूर को माहिए कहने का ख़याल पहली बार उस वक़्त आया जब ’तीर-ए-नीमकश’ में तबसिरे [समीक्षा] के लिए बिरादर गिरामी डा0 मनाज़िर आशिक़ हरगानवी ने अपनी मुरत्तबकर्दा[सम्पादित की हुई] किताब ’रिमझिम रिमझिम’ इरसाल की।इस पर तबसिरे के दौरान दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि चन्द माहिये लिखे जाएं । चुनांचे [अत:] चन्द माहिए लिखे और ’तीर-ए-नीमकश’ अप्रैल 1997 के शुमारे [अंक] में शामिल किए।फिर उन्हीं की फ़रमाइश पर ’कोहसार’ के लिए चन्द माहिए लिखे।
इस वज़्न में ऐसी दिलकशी है कि राक़िम-उस्सतूर[इन पंक्तियों के लेखक] के नज़दीक एक मख़सूस [ख़ास] क़िस्म के जज़्बात की तर्जुमानी के लिए इस से ज़ियादा मौज़ूँ [उचित] कोई दूसरी हैयत नहीं।बहरहाल गुज़िश्ता दिनों जो चन्द माहिए मअरज़े वजूद में आए उन्हीं मे से कुछ नज़र-ए-क़ारईन [पाठकों के सामने ] हैं। ख़ाशाक [घास-फूस] के इस ढेर में शायद एक-आध ऐसी तख़्लीक़ [रचना] भी हो जो क़ारईन [पाठकों] के दिल को छू सके।

आरिफ़ हसन ख़ान
मुरादाबाद
----------------------------
उर्दू शायरी में माहिया के लिए निम्न बुनियादी औज़ान मुकर्रर किए गये हैं

फ़एलुन् ,फ़एलुन् .फ़एलुन् [22 22 22
फ़एलुन् ,फ़एलुन् .फ़ा [22 22 2]
फ़एलुन् ,फ़एलुन् .फ़एलुन् [22 22 22 ]
डा0 आरिफ़ हसन खां साहब ने अपनी किताब ’मेराज़-उल-अरूज़;[उर्दू में ] में माहिया के निज़ाम-ए-औज़ान पर काफी तफ़सील से लिखा है बुनियादी वज़न पर तख़्नीक़ के अमल से पहले और तीसरे मिसरे [हमक़ाफ़िया और हमवज़न भी] के लिए 16 औज़ान और दूसरे मिसरे के लिए 8 औज़ान मुक़र्रर किए जा सकते हैं ठीक वैसे ही जैसे रुबाई के लिए 24-औज़ान मुक़र्रर किए गये हैं।
यह विधा उर्दू शायरी में इतनी तेजी से मक़बूल हो रही है कि अब तो कई शायर इस पर तबाआज़्माई [कोशिश] कर रहे हैं । नमूने के तौर पे कुछ माहिया दीगर शायरों के लगा रहा हूँ जिससे आप लोग भी आनन्द उठायें
कहा जाता है कि सबसे पहला माहिया ,हिम्मत राय शर्मा जी ने एक फ़िल्म के लिए 1936 में लिखा था

इक बार तो मिल साजन
आ कर देख ज़रा
टूटा हुआ दिल साजन
---------
जनाब हैदर क़ुरेशी साहब का [जिन्हें उर्दू शायरी में माहिया के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है] का एक माहिया है

फूलों को पीरोने में
सूई तो चुभनी थी
इस हार के होने में
--------
एक माहिया हरगानवी साहिब का है
रंगीन कहानी दो
अपने लहू से तुम
गुलशन को जवानी दो

यहाँ यह कहना ग़ैर मुनासिब न होगा कि माहिया निगारी में शायरात [महिला शायरों ]ने भी तबाआज़्माई की है 1-2 उदाहरण देना चाहूंगा
आँगन में खिले बूटे
ऐसे मौसम में
वो हम से रहे रूठे
-सुरैया शहाब

खिड़की में चन्दा है
इश्क़ नहीं आसां
ये रुह का फ़न्दा है
--बशरा रहमान

मंच के पाठकों के लिए आरिफ़ खां साहब की किताब[ख़्वाबों की किरचें] से नमूने के तौर पर चन्द माहिया लगा रहा हूँ जिससे आप लोग भी लुत्फ़-अन्दोज़ हों
1
ऎ काश न ये टूटें
दिल में चुभती हैं
इन ख़्वाबों की किरचें
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2
मिट्टी के खिलौने थे
पल में टूट गए
क्या ख़्वाब सलोने थे
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3
आकाश को छू लेता
साथ जो तू देती
क़िस्मत भी बदल देता
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4
पिघलेंगे ये पत्थर
इन पे अगर गुज़रे
जो गुज़री है मुझ पर
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5
वो दिलबर कैसा है
मुझ से बिछुड़ कर भी
मेरे दिल में रहता है

अस्तु

यार ज़िन्दा सोहबत बाक़ी
आनन्द पाठक
09413395592

[

गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

aalha chhand

​​रसानंद दे छंद नर्मदा : १०   
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छंद ओज बलिदान का आल्हा रचें सुजान  
*
छंद ओज बलिदान का, आल्हा रचें सुजान। 
सुन वीरों के भुज फड़क, कहें लड़ा दे जान 
 
सोलह-पन्द्रह यति रखें, गा अल्हैत रस-वान
मुर्दों में भी फूँकता, छंद वीर नव जान

MAHOBA,%20U.P.%20-%20udal.jpgविषम चरण के अंत में, गुरु या दो लघु श्रेष्ट
गुरु लघु सम चरणांत में, रखते आये ज्येष्ठ  

जगनिक आल्हा छंद के रचनाकार महान
आल्हा-ऊदल की कथा, गा-सुन लड़ें जवान 

छंद विधान:

आल्हा या वीर छंद भी दोहा की ही तरह अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसे मात्रिक सवैया भी कहा जाता है। 
आल्हा भी दो पदों (पंक्तियों) तथा चार चरणों (अर्धाली) में रचा जाता है किन्तु दोहे की १३-११ पर यति के स्थान पर वीर छंद में १६-१५ पर यति होती है 
दोहा के ग्यारह मात्रीय सम चरण में ४ मात्रिक शब्द जोड़कर आल्हा या वीर छंद बन जाता है इसके विपरीत आल्हा या वीर छंद के १५ मात्री सम चरण में से चार मात्राएँ कम करने पर दोहा का सम अंश शेष रहता हैवीर छंद में विषम चरण का अंत गुरु अथवा २ लघु से तथा सम चरण का अंत गुरु लघु से होता है
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बुंदेलखंड-बघेलखंड में गाँव-गाँव में चौपालों पर सावन के पदार्पण के साथ ही अल्हैतों (आल्हा गायकों) की टोलियाँ ढोल-मंजीरा के साथ आल्हा गाती हैं। प्राचीन समय में युद्धों के समय दरबारों में तथा सेनाओं के साथ अल्हैत होते थे जो अपने राज्य या सेना प्रमुख अथवा किसी महावीर की कीर्ति का बखान आल्हा गाकर करते थे। इससे जवानों में लड़ने का जोश ताता जान की बजी लगाने की भावना पैदा होथी थी, शत्रु सेना के उत्साह में कमी आती थी

इस छंद का ’यथा नाम तथा गुण’ की तरह इसके कथ्य ओज भरे होते हैं और सुनने वाले के मन में उत्साह और उत्तेजना पैदा करते हैं अतिश्योक्ति पूर्ण अभिव्यंजनाएँ इस छंद का मौलिक गुण हो जाता है।आधुनिक काल में आल्हा छंद में हास्य रचनाएँ भी की गयीं हैं 
                                                                               

    आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य   
गुरु या दो लघु विषम, सम रखें, गुरु-लघु तब ही हो स्वीकार्य

    अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़    
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।  -
सौरभ पाण्डेय
 महाकाव्य आल्हा-खण्ड में दो महावीर बुन्देला युवाओं आल्हा-ऊदल के पराक्रम की गाथा है. विविध प्रसंगों में विविध रसों की कुछ पंक्तियाँ देखें-

    पहिल बचनियां है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ
    आजु बाघ कल बैरी मारउ, मोर छतिया कै डाह बुझाउ
    ('मोर' का उच्चारण 'मुर' की तरह)
    बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय
    जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि मर जाय
                        
        *
   
4292918593_a1f9f7d02d.jpg    टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडौगढ़ बरगद की डार
    आधी रतिया की बेला में, खोपड़ी कहे पुकार-पुकार
   ('खोपड़ी' का उच्चारण 'खुपड़ी')
    कहवाँ आल्हा कहवाँ मलखे, कहवाँ ऊदल लडैते लाल
    ('ऊदल' का उच्चारण 'उदल')
    बचि कै आना मांडौगढ़ में, राज बघेल जिए कै काल
*
    अभी उमर है बारी भोरी, बेटा खाउ दूध औ भात
    चढ़ै जवानी जब बाँहन पै, तब के दैहै तोके मात
*
    एक तो सूघर लड़कैंयां कै, दूसर देवी कै वरदान
('एक' का उच्चारण 'इक')
    नैन सनीचर है ऊदल के, औ बेह्फैया बसे लिलार
    महुवरि बाजि रही आँगन मां, जुबती देखि-देखि ठगि जाँय
    राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय
*
सावन चिरैया ना घर छोडे, ना बनिजार बनीजी जाय
टप-टप बूँद पडी खपड़न पर, दया न काहूँ ठांव देखाय
आल्हा चलिगे ऊदल चलिगे, जइसे राम-लखन चलि जायँ
राजा के डर कोइ न बोले, नैना डभकि-डभकि रहि जायँ
*
बारह बरिस ल कुक्कुर जीऐं, औ तेरह लौ जिये सियार
बरिस अठारह छत्री जीयें,  आगे जीवन को धिक्कार
                                                                         

बुंदेली के नीके बोल... संजीव 'सलिल'
*
तनक न चिंता करो दाउ जू, बुंदेली के नीके बोल
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल
कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल

अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय

फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय
*
सामान्यतः  आल्हा छंद की रचनाएँ वीर रस और अतिशयोक्ति अलंकार से युक्त होती हैं। उक्त रचना में आल्हा छंद में हास्य रस वर्षा का प्रयास है।
 
उदाहरण:

१. संध्या घनमाला की ओढे, सुन्दर रंग-बिरंगी छींट
    गगन चुम्बिनी शैल श्रेणियाँ, पहने हुए तुषार-किरीट 
सम पदों मे से 'सुन्दर' तथा 'पहने' हटाने पर दोहा के सम पदांत 'रंग-बिरंगी छींट' तथा 'हुए तुषार-किरीट' शेष रहता है जो दोहा के सम पद हैं   

२. तिमिर निराशा मिटे ह्रदय से, आशा-किरण चमक छितराय
    पवनपुत्र को ध्यान धरे जो, उससे महाकाल घबराय 
    भूत-प्रेत कीका दे भागें, चंडालिन-चुडैल चिचयाय
    मुष्टक भक्तों की रक्षा को, उठै दुष्ट फिर हा-हा खाँय

३. कर में गह करवाल घूमती, रानी बनी शक्ति साकार
    सिंहवाहिनी, शत्रुघातिनी सी करती थी आरी संहार
    अश्ववाहिनी बाँध पीठ पै, पुत्र दौड़ती चारों ओर 
    अंग्रेजों के छक्के छूटे, दुश्मन का कुछ, चला न जोर 

४. बड़े लालची हैं नेतागण, रिश्वत-चारा खाते रोज
    रोज-रोज बढ़ता जाता है, कभी न घटता इनका डोज़
    'सलिल' किस तरह ये सुधरेंगे?, मिलकर करें सभी हम खोज
    नोच रहे हैं लाश देश की, जैसे गिद्ध कर रहे भोज
चित्र परिचय: आल्हा ऊदल मंदिर मैहर, वीरवर उदल, वीरवर आल्हा, आल्हा-उदल की उपास्य माँ शारदा का मंदिर, आल्हा-उदल का अखाड़ा तथा तालाब. जनश्रुति है कि आल्हा-उदल आज भी मंदिर खुलने के पूर्व तालाब में स्नान कर माँ शारदा का पूजन करते हैं. चित्र आभार: गूगल.

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