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बुधवार, 23 मार्च 2016

मुक्तिका

मुक्तिका:
मापनी- २११ २२१ ११२
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काश न हों यूँ सरहदें
प्यार सकें बो हर हदें

टूट रही है कमर ही
तोड़ रहा है कर हदें

बोझ न बनती ज़िंदगी
हो सकते गर घर-हदें

पूछ रहा है समय चुप
क्यों न कर सके सर हदें

ऊग रहा सूरज चलो
हों खुशियों से तर हदें

होश न खो, आ मिल गले
दूर करें  सब डर हदें

खोल न देना खिड़कियाँ
तोड़ न देना दर-हदें
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