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मंगलवार, 1 मार्च 2016

samiksha

पुस्तक सलिला:
'नहीं कुछ भी असम्भव' कथ्य है नवगीत के लिये
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
[कृति विवरण- नहीं कुछ भी असंभव, नवगीत, निर्मल शुक्ल, वर्ष २०१३, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, कपडे की बंधाई, सिलाई गुरजबंदी, पृष्ठ ८०, मूल्य २९५/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ सेक्टर के, आशियाना कॉलोनी लखनऊ २२६०१२, नवगीतकार संपर्क ९८३९८२५०१२ / ९८३९१७१६६१]
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'नहीं कुछ भी असंभव' विश्व वाणी हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार-समीक्षक निर्मल शुक्ल का पंचम नवगीत संग्रह है। इसके पूर्व अब तक रही कुँवारी धूप, अब है सुर्ख कनेर, एक और अरण्य काल तथा नील वनों के पार में नवगीत प्रेमी शुक्ल जी  के विषय वैविध्य, साधारण में असाधारणता को देख सकने की दृष्टि, असाधारण में अन्तर्निहित साधारणता को देख-दिखा सकने की सामर्थ्य, अचाक्षुष बिम्बों की अनुभूति कर शब्दित कर सकने की सामर्थ्य, मारक शैली, सटीक शब्द-चयन आदि से परिचित हो चुके हैं। शुक्ल जी सक्षम नवगीतकार ही नहीं समर्थ समीक्षक, सुधी पाठक और सजग प्रकाशक भी हैं भाषा के व्याकरण, पिंगल और नवगीत के उत्स, विकास, परिवर्तन और सामयिकता की जानकारी उन्हें उस अनुभूति और कहन से संपन्न करती है जो किसी अन्य के लिये सहज नहीं। 

शुक्ल जी के अनुसार ''कविता रचनाकार की सर्वप्रथम अपने से की जानेवाली बातचीत का लयबद्ध स्वरूप है जो अवरोधों से अप्रभावित रहते हुए गतिमान रहती है, शाश्वत है ......कविता पर समय काल की गति-स्थिति से आवश्यकतानुसार धारा-परिवर्तन होता रहता है जो उसे समय-काल का वैशिष्ट्य प्रदान करता है। ....समय चक्र में कविता जागृत हुई है, चेतना मुखरित हुई है और मुखरित हुई है एक नव-स्फूर्ति..... शनैः -शनैः दृष्टिगोचर हुआ काव्य का अपराजित उत्कर्ष 'गीत'। .....गीत और उसके अधुनातन संस्करण नवगीत की प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हुए अनिवार्य है काव्य के गेयात्मक तत्व का रेखांकन। इस अनुपमेय आत्म बोध के पवित्र कलेवर, सर्वांगीण उपस्थिति एवं औचित्य पर मोह निद्रावश किसी साहित्यानुरागी द्वारा आडंबरों में निर्लिप्त पूर्वाग्रहों के चढ़ाये खोल को विदीर्ण कर उतार फेंकना ही होगा, तोडना ही होगा उन सड़ी-गली चितकबरी विडंबनाओं का अमांगलिक पिंजरा, प्रदान करना होगा स्वच्छंद गीत को उसका इंद्र धनुषी उन्मुक्त ललित आकाश।'' 'उपसर्ग' का यह सारांश शुक्ल जी के नवगीत लेखन के उद्देश्य को स्पष्ट करता है। वे नवगीत को विडम्बनाओं, पीड़ाओं, शोषण, चीत्कार और प्रकारांतर से साम्यवादी नई कविता का गेय संस्करण बनाने के जड़ विधान तो खंडित करते हुए गीतीय मांगकी भाव से अभिषिक्त कर समूचे जीवन का पर्याय बनते हुए देखना चाहते हैं।  उन नये-पुराने  गीतकारों-नवगीतकारों के लिए यह दृष्टि बोध अनिवार्य है जो नवगीत के विधान, मान्यताओं और स्वरूप को लेकर अपनी रचना के गीत या नवगीत होने को लेकर भ्रमित होते हैं

विवेच्य संग्रह में ३० नवगीत सम्मिलित हैं। प्रत्येक गीत बारम्बार पढ़े जाने योग्य है। पाठक को हर बार एक नए भावलोक की प्रतीति होती है। नवगीत के वरिष्ठतम हस्ताक्षर प्रो। देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' के शब्दों में "कविता (नवगीत) में व्यक्ति एक होकर भी अनेक के साथ जुड़ जाता है- यही है 'एकोsहं बहुस्याम' की भावना। इस भावना को आत्मविस्तार भी कहा जा सकता है। आत्म का यह विस्तार ही साहित्य अथवा काव्य में साधारणीकरण की दिशा में उसे ले जाता है। इस साधारणीकरण के अभाव में रस निष्पत्ति के लिये कोई अवकाश नहीं होता। शुक्ल जी का रचनाकार इस तथ्य से अपरिचित नहीं है तभी तो वे लिखते हैं 
तुम हमारे गाँव के हो / हम तुम्हारे गाँव के 
एक टुकड़ा धुप का जो / बो गये तुम खेत में 
अचकचाकर / जम गये हैं / कई सूरज रेत में 
अब यहाँ आकाश हैं, तो / बस सुनहरी छाँव के" 

इस काल में पल-पल उन्नति पहाड़ा पढ़ता मानव वास्तव में अपने आदिम स्वरूप की तुलना में बदतर होता जा रहा है। चतुर्दिक घट रही घटनाएं मानव के मानवीय कदाचरण की साक्षी हैं। इस सर्वजनीन अनुभूति की अभिव्यक्ति शुक्ल जी भी करते हैं पर उनका अंदाज़े-बयां औरों से भिन्न है- 
राम कहानी / तुम्हें तुम्हारी     
उसकी तो है हवा-हवाई         
ईसा से पहले के पहले / उसको आदिम नाम मिला था 
इसके हिस्सेवाला सूरज / तब सबसे बेहतर निकला था 
अब तो बस / सादा कागज़ है 
भोर सुहानी / तुम्हें तुम्हारी 
उसकी तो है पीर-पराई 
पैर पसारे तो कपड़ों से / नंगेपन का डर लगता है 
एक सुनहरे दिन का सपना / केवल मुट्ठी भर लगता है 
देह थकी है / ओस चाटते 
रात सयानी / तुम्हें तुम्हारी
उसकी तो है दुआ-दवाई 
एक भरोसा खुली हवा का / टिका नहीं बेजान हो गया 
राजावाली चिकनी सूरत / लुटा हुआ सामान हो गया 
आगे सदी / बहुत बाकी है 
अदा हुनर की / तुम्हें तुम्हारी 
उसकी हाँफ चुकी चतुराई 

निर्मल शुक्ल जी हिंदी, उर्दू, अवधी का मिश्रित प्रयोग करनेवाले लखनऊ से हैं, संस्कृत और अंग्रेजी उनके लिये सहज साध्य हैं शब्दों के सटीक चयन में वे सिद्धहस्त हैं। कम शब्दों में अधिक कहना, मौलिक बिम्ब और प्रतीक प्रयोग करना, वर्तमान की विसंगतियों की अतीत के परिप्रेक्ष्य में तुलना कर भविष्य के लिये वैचारिक पीठिका तैयार करने की सामर्थ्य इन नवगीतों में है। 

निर्मल जी का वैशिष्ट्य लक्षणा और व्यंजना के पथ पर पग रखते हुए भाषिक सौष्ठव और संतुलित भावाभिव्यक्ति है। वे अतिरेक से सर्वथा दूर रहते हैं। रेत के टीले को विदा होती पीढ़ी अथवा बुजुर्ग के रूप में देखते हुए कवि उसके संघर्ष और जीवट को व्यक्त किया है
मेरे घर के आगे ऊँचा / रेत का टीला है         १६-११ 
इक्का-दुक्का / झाड़ी-झंखड़                       ८-८ 
यहाँ-वहाँ दिखते हैं                                    १२ 
मरुथल के मरुथल / होने की                     १०-६ 
कुल गाथा लिखते हैं                                 १२ 
जलता है ऊपर-ऊपर / पर, भीतर गीला है  १४-१२ 
जहाँ हवा का / झोंका कोई                         ८-८ 
सीधा आता है                                          १० 
अक्सर रेत कणों से / सारा                       १२-४ 
घर घिर जाता है                                      १० 
बाबा का कालीन / अभी तक पूरा पीला है  ११-१५ 
पल में तोला / पल में माशा                     ८-८ 
इधर-उधर उड़ता है                                १२ 
बाबा कहते / अब भी                              १२ 
काली आँधी से लड़ता है                         १६ 
टूट चुका है कण-कण में                         १४ 
पर अभी हठीला है                                 १२ 

शुक्ल जी की छंदों पर पूरी पकड़ है वे कहीं छूट लेते हैं तो इस तरह की लय-भंग न हो।  'राम कहानी तुम्हें तुम्हारी' नवगीत सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय पादाकुलक छंद में है। 'तब सबसे बेहतर निकला था' में १७ मात्र होने पर भी लय बनी हुई है। उक्त दूसरे गीत में संस्कारी तथा आदित्य जातीय छंदों की एक-एक पंक्ति का प्रयोग दूसरे-तीसरे पद में है जबकि द्वितीय पद में संस्कारी तथा दैशिक छंद का प्रयोग है। ऐसा प्रयोग सिद्धस्तता के उपरान्त ही करना संभव होता है। उल्लेख्य है कि छंद वैविध्य के बावजूद तीनों पदों की गेयता पर विपरीत प्रभाव नहीं है। 

नगरीय जीवन की सीमाओं, त्रासदियों, संघर्षों, आघातों, प्रतिकारों और पीछे छूट चुके गाँव की स्मृतियों के शब्द चित्र कई गीतों की कई पंक्तियों में दृष्टव्य हैं। नगरों के अधिकाँश निवासी आगे-पीछे ग्राम्य अंचलों से ही आये होते हैं अत:, ऐसी अनुभूति व्यक्तिपरक न रहकर समष्टिगत हो जाती है और रचना से पाठक / श्रोता को जोड़ती है। गुलमोहर की छाया में रिश्तों की पहुनाई (ऊँचे झब्बेवाली बुलबुल), पुरखों से डाँट-डपट की चाह (ऊँचे स्वर के संबोधन), रेत का टीला और झाड़ी-झंखड़ (रेत का टीला), छप्पर और सरकंडे (छोटा है आकाश), सनातन परंपराओं के प्रति श्रद्धा (गंगारथ),  मोहताजी और उगाही (पीढ़ी-पीढ़ी चले उगाही), पोखर-पंछी (रूठ गए मेहमान), सावन-दूब ढोर नौबत-नगाड़े (तुम जानो हम जाने) में गाँव-नगर के संपर्क सेतु सहज देखे जा सकते हैं। 

निर्मल शुक्ल जी भाषिक सौष्ठव, कथ्य की सुगढ़ता, अभिव्यक्ति के अनूठेपन, मौलिक बिम्ब-प्रतीकों तथा चिंतन की नवता के लिये जाने जाते हैं। 'नहीं कुछ भी असंभव' के नवगीत इस मत के साक्ष्य हैं। उनकी मान्यता है कि समयाभाव तथा अभिरुचि ह्रास के इस काल में पाठक समयाभाव से ग्रस्त है इसलिए संकलन में रचनाएँ कम रखी जाएँ ताकि उन्हें पर्याप्त समय देकर पढ़ा, समझा और गुना जा सके। संकलन का मुद्रण, प्रस्तुतीकरण, कागज़, बंधाई, आवरण, पाठ्य शुद्धि आदि स्तरीय है। सामान्य पाठक, विद्वज्जन तथा समीक्षक शुक्ल जी अगले संकलन की प्रतीक्षा करेंगे। 

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- २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४

1 टिप्पणी:

कविता रावत ने कहा…

निर्मल शुक्ल जी की कृति "नहीं कुछ भी असंभव" की सार्थक समीक्षा प्रस्तुति हेतु आभार!
शुक्ल जी को हार्दिक बधाई!