मुक्तिका
वार्णिक छंद उपेन्द्रवज्रा –
मापनी- १२१ २२१ १२१ २२
सूत्र- जगण तगण जगण दो गुरु
तुकांत गुरु, पदांत गुरु गुरु
*
पलाश आकाश तले खड़ा है
उदास-खो हास, नहीं झुका है
हजार वादे कर आप भूले
नहीं निभाए, जुमला कहा है
सियासती है मनुआ हमारा
चचा न भाए, कर में छुरा है
पड़ोस में ही पलते रहे हो
मिलो न साँपों, अब मारना है
तुम्हें दई सौं, अब तो बताओ
बसंत में कंत कहाँ छिपा है
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