बाल गीत अपनी माँ का मुखड़ा..... संजीव वर्मा 'सलिल'
मुझको सबसे अच्छा लगता अपनी माँ का मुखड़ा..... सुबह उठाती गले लगाकर, फिर नहलाती है बहलाकर.आँख मूँद, कर जोड़ पूजती प्रभु को सबकी कुशल मनाकर.देती है ज्यादा प्रसाद फिर सबकी नजर बचाकर. आंचल में छिप जाता मैं ज्यों रहे गाय सँग बछड़ा.मुझको सबसे अच्छा लगता अपनी माँ का मुखड़ा..... बारिश में छतरी आँचल की. ठंडी में गर्मी दामन की.. गर्मी में धोती का पंखा, पल्लू में छाया बादल की.कभी दिठौना, कभी आँख में कोर बने काजल की.. दूध पिलाती है गिलास भर -
कहे बनूँ मैं तगड़ा. ,
मुझको सबसे अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा!
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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बुधवार, 11 अगस्त 2010
बाल गीत अपनी माँ का मुखड़ा..... संजीव वर्मा 'सलिल'
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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3 टिप्पणियां:
माँ जैसी अति स्नेहसिक्त रचना लगी .
माधव :
सुन्दर
बचपन की यादों को ताज़ा करती बेहतरीन रचना पढ़ कर मज़ा आया सलिल जी| मैं दूसरे बंद को ऐसे पढ़ना पसंद करूँगा:-
ठंडी में गर्मी दामन की.,
बारिश में छतरी आँचल की ,
गर्मी में साड़ी का पंखा-,
पल्लू में छाया बादल की !
कभी डिठौना, कभी आँख में कोर बने काजल की..
बहुत ही अच्छी कविता, मान को छू गयी| बधाई स्वीकरिएगा|
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