व्यंग्यपरक मुक्तिका:
क्यों डरूँ?
संजीव 'सलिल'
*
उठ रहीं मेरी तरफ कुछ उँगलियाँ तो क्यों डरूँ?
छोड़ कुर्सी, स्वार्थ तजकर, मुफ्त ही मैं क्यों मरूँ??
गलतियाँ करना है फितरत पर सजा पाना नहीं.
गैर का हासिल तो अपना खेत नाहक क्यों चरूँ??
बेईमानी की डगर पर सफलताएँ मिल रहीं.
विफलता चाही नहीं तो राह से मैं क्यों फिरूँ??
कौन किसका कब हुआ अपना?, पराये हैं सभी.
लूटने में किसीको कोई रियायत क्यों करूँ ??
बाज मैं, नेता चुनें चिड़िया तो मेरा दोष क्या?
लाभ अपना छोड़कर मैं कष्ट क्यों उनके हरूँ??
आँख पर पट्टी, तुला हाथों में, करना न्याय है.
कोट काला कहे किस पलड़े पे कितना-क्या धरूँ??
गरीबी को मिटाना है?, दूँ गरीबों को मिटा.
'सलिल' जिंदा रख उन्हें मैं मुश्किलें क्योंकर वरूँ??
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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मंगलवार, 2 नवंबर 2010
व्यंग्यपरक मुक्तिका: क्यों डरूँ? संजीव 'सलिल'
चिप्पियाँ Labels:
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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4 टिप्पणियां:
इसको कहते हैं दो टूक बात , बहुत सुन्दर व्यंग बन पडा है |
बधाई आपको |
Your's ,
Achal Verma
माननीय!
वन्दे मातरम.
एक कहावत है खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान...
तुलसी ने कहा- राम ते अधिक राम कर दासा...
हमारी विरासत ही ज़हर पीनेवाले शिव को पूजने की है, अमरित पीनेवाले राहू को नहीं...
सिर पर ईश्वर से बड़े उसके भक्त आप का हाथ है तो और क्या चाहिए...
बदनाम भी हुए तो कुछ नाम तो हुआ...
सबको नमन...
सलिला का जन्म ही पंकिल पद-पद्म पखारने हेतु हुआ है...
यश-अपयश जो-जब मिला सादर सिर पर धार.
नील गगन से समुद तक पहुँच सलिल असार.
आत्मीय
धन्यवाद ! आश्वस्त हुआ |
sundar sarthaqk kavita salil ji. badhai.
mahesh chandra dwivedy
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